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मानस रोग

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मानस रोग कछुक में गाए। हहिं सब के लखि बिरलेन्ह पाए।।   हम सब शरीर के रोगों से भलीभांति अवगत होते हैं, यहां तक कि केवल एक शारीरिक रोग में ...

मानस रोग कछुक में गाए।

हहिं सब के लखि बिरलेन्ह पाए।।

  हम सब शरीर के रोगों से भलीभांति अवगत होते हैं, यहां तक कि केवल एक शारीरिक रोग में इतनी शक्ति होती है कि वह हमारे पूरे दिन को कष्टदायक बना देता है लेकिन हम यह नहीं जानते कि हम निरंतर बहुसंख्यक मानसिक रोगों से ग्रसित हो रहे हैं और क्योंकि हम वासना, लोभ आदि को मानसिक रोग रूप में स्वीकार नहीं करते और उनका निदान करने का प्रयास नहीं करते। मनोविज्ञान मानव के मन मस्तिष्क को समझने की पद्धति है जिसके द्वारा इन रोगों का विश्लेषण करने के पश्चात इनके उपचार का प्रयास किया जाता है।

ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।

सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥

 विषय-वस्तुओं के बारे में सोचते रहने से मनुष्य को उनसे आसक्ति हो जाती है. इससे उनमें कामना यानी इच्छा पैदा होती है और कामनाओं में विघ्न आने से क्रोध की उत्पत्ति होती है।

यत् पृथिव्यां व्रीहियवं हिरण्यं पशवः स्त्रियः।

न दुह्यन्ति मन:प्रीतिं पुंसः कामहतस्य ते ।।

  यदि कोई मनुष्य सभी प्रकार की धन, संपदा, ऐश्वर्य और संसार के इंद्रिय भोग-विलास भी प्राप्त कर ले तो भी उसकी कामनाओं की तुष्टि नहीं होगी इसलिए इसे दुखों का कारण मानते हुए बुद्धिमान पुरुष को कामनाओं का त्याग करना चाहिए।" इसका दूसरा पहलू यह है कि यदि कामनाओं की तुष्टि में कोई बाधा उत्पन्न होती तब क्या होगा? इससे क्रोध की ज्वाला और अधिक भड़कती है। मन में यह ध्यान रखें कि क्रोध अपने आप उत्पन्न नहीं होता। यह इच्छाओं की पूर्ति में बाधा आने से उत्पन्न होता है और इच्छाएँ आसक्ति उत्पन्न करती हैं और आसक्ति इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करने से उत्पन्न होती है। इस प्रकार से हम देखते हैं कि इन्द्रियों के विषयों के सुख का थोड़ा सा भी चिन्तन हमें लोभ और क्रोध दो प्रकार के मनोविकारों की।

 मनुष्य के दुख का कारण कामनाएं बनाना और उसका पूरा न होना है।

काममया एवायं पुरुष इति सा यथाकामो भवति तत्क्रतुर भवति।

यात्क्रतुर भवति तत कर्म कुरुते यत कर्म कुरुते तद अभिसम पद्यते॥

 सर्व प्रथम हमारे मन में कमाना जागृत होती है, पश्चात बुद्धि मन के कामना की पूर्ति के लिए हमको कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती है। उसी प्रेरणा के अनुरूप हम कार्य करते हैं और जैसा हम कार्य करते हैं उसी के अनुरूप हमारा भाग्य का निर्माण होता है। 

जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई॥

  जैसे प्रत्येक लाभ पर लोभ बढ़ता है। जितना अधिक मिलता जाता है उतना लोभ बढ़ता जाता है। इसकी विशेषता यह है कि लोभ की टोकरी कभी नहीं भरती है। पहले एक प्लॉट ले लिया, फिर दो, फिर बीस। वह गिनते ही रहते हैं। आभूषण भी बढ़ते जाते हैं उसका लोभ कभी कम नहीं होता। लाभ से लोभ बढ़ता है। अति लाभ से अति लोभ बढ़ता है। जिसको जितना ज्यादा लाभ होता जाता है उसका लोभ उतना ही बढ़ता रहता है।

 कई बार तो लाभ बढ़ता है परन्तु मनुष्य की उदारता घटती जाती है। जब उसके पास कुछ नहीं था तो वह व्यक्ति कुछ ना कुछ दूसरों को देता रहता था। आज उसके पास करोड़ों रुपए हैं परन्तु सौ रुपए देने में भी उसे कष्ट होता है। यदि हम अपने बारे में भी विचार करें कि हमारे साथ भी तो कहीं ऐसा नहीं हुआ? यही लोभ की विशेषता है। ऐसी स्थिति में यदि हम किसी को कुछ दे भी दें तो हम यह देखते हैं कि वह हमारा कितना एहसान मान रहा है, कितनी बार धन्यवाद बोला।

सवाल यह उठता है कि लोभ और मोह में क्या अन्तर है?

पहला - वस्तु से होता है वह लोभ और व्यक्ति से होता है मोह।

दूसरा - अपने को चाहिए तो लोभ और अपनों को चाहिए तो मोह।

  मुझे पैसा या बढ़िया पदार्थ मिल जाए, मेरा घर बड़ा हो जाए तो यह लोभ है। मेरे बेटे का कारोबार बड़ा हो जाए, मेरी बेटी की शादी अच्छे घर में हो जाए, मेरे पोते का एडमिशन अच्छे स्कूल में हो जाए, यह कामना मोह है। यह बढ़ता ही जाता है।

 एक राजा था उसके पास सोने का बड़ा भण्डार था। वह बहुत तपस्या करता था। उसने देवताओं से वरदान ले लिया की जिसको छू लूंँ वह सोना हो जाए और अन्त में उसने अपनी बेटी को ही छू दिया और वह सोने की हो गई।

 यश का लोभ होता है। यह साधारण रूप में बुरा नहीं है। यह लोभ हम समाज के काम के लिए या दूसरों की मदद के लिए करते हैं, जिस प्रकार कोविड में लोग फोटो खिंचवाने के लिये खाना बाँटते थे। यह भी कोई बुरी बात नहीं है क्योंकि उन्होंने खाना तो बाँटा? परऩ्तु जब इस यश का लोभ बढ़ता है तो यह हानिकारक होता है कि हम जो कुछ करते हैं उसकी प्रवृत्ति कार्य की नियत से नहीं होती है, मुझे यश मिलेगा या नहीं, इस नियत से होती है। यदि नहीं मिला तो मैं यह कार्य नहीं करूँगा। यदि यह और भी बढ़ जाता है तो दूसरे के यश से ही खुद को ईर्ष्या हो जाती है कि उनको इतना यश क्यों मिला? फिर दूसरे को यश न मिले, उसके लिए प्रयास करना शुरू कर देते हैं। इससे दूसरों को नीचा दिखाने के प्रवृत्ति बढ़ जाती है।

 राज्य का लोभ, अपनी सीमाओं को बढ़ाने का लोभ है। जिस प्रकार चीन को दूसरे देशों की जमीन हड़पने की इच्छा होती है। भारत में लद्दाख की, फिर वियतनाम, फिर ताइवान। जहाँ उसे मौका मिलता है वहीं वह कितने भी किलोमीटर जमीन हड़प लेता है। यह राज्य को बढ़ाने का लोभ है।

  अपनी कमानों में जकड़ा हुआ मनुष्य उसकी पूर्ति के लिए किसी भी प्रकार का पाप कार्य कर लेता है। भगवान के पास भी मनुष्य अपनी कामना पूर्ति के लिए ही जाता है। कामना पूरी हुई तो श्रद्धा बढ़ गई नहीं हुई तो घट गई। जैसे किसी मंदिर में जाकर किसी कामना को लेकर मन्नत मानी, प्रारब्धवश वह पूरी हो गई, तो भगवान के प्रति हमारी श्रद्धा भक्ति बहुत बढ़ जाती है और यह भ्रम भी फैल जाता है कि अमुक मंदिर में जाने से इच्छा पूर्ण होती है और बिना कुछ समझे जाने लोग जुट जाते हैं। अब प्रारब्ध अनुसार यदि किसी की कामना पूर्ण नहीं हुई तो इसका बड़ा नुकसान उठाना पड़ सकता है, हमारी भगवान के प्रति भक्ति कम हो सकती है और कई बार तो लोग नास्तिक तक हो जाते हैं। 

  इसमे समझने वाली बात यह है कि भगवान कर्म के विपरीत देते नहीं हैं। अगर हम कहे कि हमारा तो संबंध स्थापित हो गया है भगवान से, तो हम भगवान से संसार न मांगते हुए भगवान वाला आनंद ही मांगे और सदा सदा को आनंदमय हो जाएं। 

  पांच वर्ष के बालक प्रह्लाद के लिए जब नृसिंह अवतार हुआ था, तब भगवान ने उनसे वर मांगने के लिए कहा, उत्तर में प्रह्लाद ने कहा।

यदि रासीश मे कामान् वरांस्त्वं वरदर्षम।

कामानां हृद्यसंरोहं भवतस्तु वृणे वरम्॥

 मैं कुछ मांगूंगा तो आपका दास नहीं कहलाऊंगा, व्यापारी बन जाऊंगा, तो हे प्रभु मुझे अनंत काल के लिए ऐसा बना दीजिए कि आपसे कभी कुछ न मांगू , मेरी मांगने की बुद्धि ही मिटा दीजिए। भगवान से संसारी कामनाओं को मांगने में हम घाटे में रह जायेंगे।

  अपने जीवन में सन्तोष लाएँ। यदि लोभ को नहीं रोका गया तो मनुष्य का पतन हो जाता है।

 भगवान कहते हैं कि रजोगुण को बढ़ने पर लोभ उत्पन्न होता है। पहले तो लोभ से वृत्ति बनती है, जिन बातों के लिए मन में लोभ होता है पहले हम उनको करने का प्रयास करेंगे। यदि एक बार वृत्ति बन गई तो उसी को हर बार करने से वह वृत्ति से प्रवृत्ति बन जाती है और इस प्रवृत्ति के बनने से हमारा आचरण बन जाता है। मैं कुछ भी करता हूँ अच्छा या बुरा। इसका विचार नहीं करता हूँ, फिर उस लोभ को पूरा करने के लिए जो भी बन पड़ता है वह करता हूँ और फिर वैसा ही आचरण करने लगता हूँ। 

  भगवान कहते हैं कि इससे जीवन में केवल अशान्ति हो जाती है। जिसका जीवन जितना लोभग्रस्त होगा उसका जीवन उतना ही अशान्त होता है। मनुष्य लोभ करता इसलिए है कि मुझे यह मिलेगा तो अच्छा होगा, परन्तु यह होता नहीं है जितना हमें मिलता जाता है उतनी ही उत्कण्ठा बढ़ती जाती है। इसलिए जीवन में अशान्ति से बचना है तो लोभ से बचना चाहिए।

अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च, प्रमादो मोह एव च।

तमस्येतानि जायन्ते, विवृद्धे कुरुनन्दन॥

  हे कुरुनन्दन! तमोगुण के बढ़ने पर अप्रकाश, अप्रवृत्ति तथा प्रमाद और मोह – ये वृत्तियाँ भी पैदा होती हैं।

बक्श देता है 'खुदा' उनको

जिनकी 'किस्मत' ख़राब होती है।

वो हरगिज नहीं 'बक्शे' जाते है

जिनकी 'नियत' खराब होती है।।

न मेरा 'एक' होगा, न तेरा 'लाख' होगा

न 'तारिफ' तेरी होगी, न 'मजाक' मेरा होगा।

गुरुर न कर "शाह-ए-शरीर" का,

मेरा भी 'खाक' होगा, तेरा भी 'खाक' होगा।।

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भागवत दर्शन: मानस रोग
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