रामचरितमानस एहि नामा। सुनत श्रवन पाइअ बिश्रामा॥ मन करि बिषय अनल बन जरई । होई सुखी जौं एहिं सर परई॥
रामचरितमानस एहि नामा। सुनत श्रवन पाइअ बिश्रामा॥ मन करि बिषय अनल बन जरई । होई सुखी जौं एहिं सर परई॥ |
इसका नाम रामचरितमानस है, जिसके सुनते ही कानों को शांति मिलती है। मनरूपी हाथी विषयरूपी दावानल में जल रहा है, वह यदि इस रामचरितमानस रूपी सरोवर में आ पड़े तो सुखी हो जाए।
गोस्वामी तुलसीदासजी द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस कोई साधारण ग्रन्थ, उपन्यास या किताब नहीं है वरन् श्रीरामचरितमानस का प्रत्येक दोहा, प्रत्येक सोरठा, प्रत्येक श्लोक, प्रत्येक छन्द और प्रत्येक शब्द साक्षात् वेद के समान है। श्रीरामचरितमानस परात्पर ब्रह्म भगवान श्रीराम का वांग्मयस्वरूप है। यह दिव्य ग्रन्थ समस्त वेद, शास्त्र, पुराण और उपनिषदों का सार है।
तुलसी दास जी ने जब राम चरित मानस की रचना की,तब उनसे किसी ने पूंछा कि बाबा! आप ने इसका नाम रामायण क्यों नहीं रखा?
क्योकि इसका नाम रामायण ही है.बस आगे पीछे नाम लगा देते है, वाल्मीकि रामायण,आध्यात्मिक रामायण.आपने राम चरित मानस ही क्यों नाम रखा?
बाबा ने कहा - क्योकि रामायण और राम चरित मानस में एक बहुत बड़ा अंतर है.रामायण का अर्थ है राम का मंदिर, राम का घर,जब हम मंदिर जाते है तो एक समय पर जाना होता है, मंदिर जाने के लिए नहाना पडता है,जब मंदिर जाते है तो खाली हाथ नहीं जाते कुछ फूल,फल साथ लेकर जाना होता है.मंदिर जाने कि शर्त होती है,मंदिर साफ सुथरा होकर जाया जाता है।
सकल बिघ्न ब्यापहिं नहिं तेही।
राम सुकृपाँ बिलोकहिं जेही॥
सोइ सादर सर मज्जनु करई।
महा घोर त्रयताप न जरई॥
ये सारे विघ्न उसको नहीं व्यापते (बाधा नहीं देते) जिसे राम सुंदर कृपा की दृष्टि से देखते हैं। वही आदरपूर्वक इस सरोवर में स्नान करता है और महान् भयानक त्रिताप से (आध्यात्मिक, आधिदैविक, आधिभौतिक तापों से) नहीं जलता।
और मानस अर्थात सरोवर, सरोवर में ऐसी कोई शर्त नहीं होती,समय की पाबंधी नहीं होती,जाती का भेद नहीं होता कि केवल हिंदू ही सरोवर में स्नान कर सकता है,कोई भी हो ,कैसा भी हो? और व्यक्ति जब मैला होता है, गन्दा होता है तभी सरोवर में स्नान करने जाता है.माँ की गोद में कभी भी कैसे भी बैठा जा सकता है।
गोस्वामी तुलसीदासजी को भगवान शंकर, मारुतिनंदन हनुमान, पराम्बा पार्वतीजी, परब्रह्म भगवान श्रीराम और शेषावतार लक्ष्मणजी ने समय- समय पर अपना दर्शन देकर श्रीरामचरितमानस उनसे लिखवाया और भगवान श्रीराम ने 'शब्दावतार' के रूप में श्रीरामचरितमानस में प्रवेश किया। इसीलिए यह मनुष्य को सच्ची चेतना देने वाला और पग-पग पर पथ-प्रदर्शन करने वाला लोकमंगल ग्रन्थ माना गया है।
रचि महेस निज मानस राखा।
पाइ सुसमउ सिवा सन भाषा॥
तातें रामचरितमानस बर।
धरेउ नाम हियँ हेरि हरषि हर ।।
महादेव ने इसको रचकर अपने मन में रखा था और सुअवसर पाकर पार्वती से कहा। इसी से शिव ने इसको अपने हृदय में देखकर और प्रसन्न होकर इसका सुंदर 'रामचरितमानस' नाम रखा।
तुलसीदास जी के बारे में कहते हैं कि -
आनन्दकानने ह्यस्मिंजंगमस्तुलसीतरुः।
कवितामंजरी भाति रामभ्रमरभूषिता।।
काशी के आनन्द-वन में तुलसीदास साक्षात तुलसी का पौधा है। उसकी काव्य-मंजरी बड़ी ही मनोहर है, जिस पर श्रीराम भँवरे के रूप में सदा मंडराते हैं।
गोस्वामी तुलसीदास जी जब रामचरितमानस का निर्माण करने लगे तो उनके मन में एक विचार आया कि इतना बड़ा ग्रंथ जिसके जहाज पर बिठा करके संसार के प्राणियों का उद्धार किया जा सकता है, उसे बनाने के लिए मुझे क्या करना चाहिए?
इसके लिए किस शक्ति का सहारा लिया जाना चाहिए?
उन्होंने यह कहा कि भवानी शंकर की वंदना करनी चाहिए और उनकी सहायता लेनी चाहिए।
उनकी शक्ति के बिना इतना बड़ा रामचरितमानस जिस पर बिठा करके अनेक मनुष्यों को भवसागर से पार किया जा सकता है, कैसे संभव होगा?
उन्होंने भवानी और शंकर की वंदना की। पश्चात् उनके मन में एक और विचार आया कि आखिर भगवान शंकर हैं क्या?
शक्ति कहाँ से आ जाती है?
क्यों आ जाती है?
उद्धार कैसे हो सकता है?
ऐसे अनेक प्रश्न तुलसीदास जी के मन में उत्पन्न हुए ?
उनका समाधानभी उसी श्लोक में हुआ जिसका कि मैंने आप लोगों के सम्मुख विवेचन किया।
"भवानी शंकरौ वंदे"
भवानी और शंकर की हम वंदना करते है।
अब प्रश्न यह उठता है कि ये कौन हैं ?
"श्रद्धा विश्वास रूपिणौ"
अर्थात श्रद्धा का नाम पार्वती और विश्वास का नाम शंकर। श्रद्धा और विश्वास- इन दोनों का नाम ही शंकर- पार्वती है। इनका प्रतीक विग्रह, मूर्ति हम मंदिरों में स्थापित करते हैं। इनके चरणों पर अपना मस्तक झुकाते हैं, जल चढ़ाते हैं, बेलपत्र चढ़ाते हैं, आरती करते है। यह सब क्रियाकृत्य हम करते हैं लेकिन मूलतः शंकर क्या हैं? श्रद्धा और विश्वास।
याभ्यां बिना न पश्यन्ति
सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम्॥
जिनकी पूजा किए बिना कोई सिद्धपुरुष भी भगवान को प्राप्त नहीं कर सकते। भवानी शंकर की इस महत्ता और माहात्म्य पर मैं विचार करता रहा, तब एक और पौराणिक कथा मेरे सामने आई।
पौराणिक कथा आती है कि एक संकट का समय था जब भगवान परशुराम को यह मालूम पड़ा कि सब जगह अन्याय, अत्याचार फैल गया, अनाचार फैल गया। इसके निवारण के लिए क्या करना चाहिए?
परशुराम जी उत्तरकाशी गए और वहाँ भगवान शिव का तप करने लगे। तप करने के पश्चात् भगवान शंकर ने उन्हें एक परशु दिया और कहा- अनीति का, अन्याय का और अत्याचार का इस संसार में से उच्छेदन किया जा सकता है और आपको करना चाहिए। भगवान शंकर की ऐसी महत्ता और ऐसी शक्ति का वर्णन पुराणों में पाया गया है, पर आज हम देखते हैं कि वह शक्ति कुंठित कैसे हो गई ?
हम शंकर को पूजा करते हैं, पर समस्याओं से घिरे हुए क्यों हैं ?
शंकर की शक्ति वरदान हो करके सामने क्यों नहीं आती ?
शंकर के भक्त होते हुए भी हम किस तरीके से मिलते और पददलित होते चले जा रहे हैं ?
भगवान हमारी कब सहायता कर सकते हैं?
ये विचार मैं देर तक करता रहा।
शिवद्रोही मम दास कहावा।
सो नर सपनेहु मोही ना पावा।।
भगवान श्री राम कहते हैं कि जो शिव से विमुख है और मेरे भक़्त है वो मुझे स्वप्न मे भी नही पा सकते।
जो गलतियाँ बीते समय में हमसे हो गई समय चला गया, अब कुछ नहीं किया जा सकता है पर आत्मावलोकन अवश्य किया जा सकता है। आने वाले समय में हम उनमें सुधार लाएं ऐसा प्रयास तो किया ही जा सकता है। गलती करना बुरी बात नहीं मगर उसे दोहराना अवश्य बुरी बात है।
महापुरुषों का मत है कि अंधा वो नहीं जिसकी आँखें नहीं अपितु अंधा वो है जिसे अपनी गलती दिखाई नहीं देती है। जीवन में हर पल नईं ऊचाईयों को छूने के लिए बहुत जरूरी हो जाता है कि कुछ पल स्वयं के साथ बिताये जायें, कुछ पल स्वनिरीक्षण में लगाये जायें। पीछे मुड़कर देखने से कोई लाभ तो नहीं मगर उन पत्थरों को अवश्य याद रखना चाहिए जिनसे ठोकर खाकर हम गिर गए हों।
ऐसा यहु संसार है, जैसा सेंवल फूल।
दिन दस के व्यौहार में, झूठै रंगि न भूल।।
कबीरदास कहते हैं कि हे मानव यह संसार सेमर के फूल के समान है, जो ऊपर से देखने में सुन्दर और मोहक प्रतीत होता है, किन्तु उसके भीतर कोई तत्त्व नहीं होता। अल्पकाल के जीवन और उसकी विरंगात्मक भुलावे में नहीं आना चाहिए।
आओ अपने प्रगति पथ पर निरन्तर आगे बढ़ते हुये अपनी गलतियों को ना दोहराते हुए जीवन को रामजी की तरह एक आदर्श जीवन जीने का संकल्प लेते हैं।
श्रीरामचन्द्रचरणौ मनसा स्मरामि
श्रीरामचन्द्रचरणौ वचसा गृणामि ।
श्रीरामचन्द्रचरणौ शिरसा नमामि
श्रीरामचन्द्रचरणौ शरणं प्रपद्ये ॥
मैं एकाग्र मन से श्रीरामचंद्रजी के चरणों का स्मरण और वाणी से गुणगान करता हूँ, वाणी द्धारा और पूरी श्रद्धा के साथ भगवान् रामचन्द्र के चरणों को प्रणाम करता हुआ मैं उनके चरणों की शरण लेता हूँ ।
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