पर उपकार बचन मन काया। संत सहज सुभाउ खगराया॥ पक्षीराज! मन, वचन, कर्म और शरीर से परोपकार करना, यह संतों का सहज स्वभाव है॥ जिसने अपना उपका...
पर उपकार बचन मन काया।
संत सहज सुभाउ खगराया॥
पक्षीराज! मन, वचन, कर्म और शरीर से परोपकार करना, यह संतों का सहज स्वभाव है॥
जिसने अपना उपकार नहीं किया ऐसा व्यक्ति पराया उपकार कर ही नहीं सकता सभी में परोपकार करने की पात्रता नहीं होती है! जिनको अपना कोई स्वार्थ नहीं है और जो पूर्ण काम है वे ही परोपकार कर सकते है !जो ना के बराबर है।
साधु अर्थात संत आज कोई भी गेरुआ वस्त्र धारण कर संत बन जाता है ऐसे संत नहीं।
सन्त का स्वभाव परोपकारी होता है, जैसे वृक्ष कभी अपना फल स्वंय नहीं खाता है और नदी जिस प्रकार से स्वंय के नीर का संचय नहीं करती है। लोक कल्याण के हेतु बहती रहती है। वैसे ही साधु और संत भी अपने ज्ञान का उपयोग परमार्थ के लिए ही करते हैं, स्वंय के कल्याण के लिए नहीं। साधु भी अपने सुखदुःख कष्टो की चिंता न करके अन्य के लिए अपने शरीर मन आत्मा से कल्याण का भाव रखता है।
वृक्ष कबहुँ नहिं फल भखै, नदी न संचै नीर।
परमारथ के कारने, साधुन धरा सरीर।।
प्रकृति सदा देने का भाव रखती है वह बदलें में कुछ भी नहीं चाहती है। कबीर दास जी का जीवन भी प्रकृति के आस पास ही नजर आता है।
तरुवर फल नहिं खात है, सरवर पियहि न पान।
कहि रहीम पर काज हित, संपति सँचहि सुजान॥
वृक्ष अपने फल स्वयं नहीं खाते हैं और सरोवर(तालाब)भी अपना पानी स्वयं नहीं पीती है। इसी तरह अच्छे और सज्जन व्यक्ति वो हैं जो दूसरों के कार्य के लिए संपत्ति को संचित करते हैं।
मैथिलीशरण गुप्त ने तो अपना स्वार्थ साधने वाले मनुष्य को पशु कहा है।
यही पशु–प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे।
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
मानस में तो साफ साफ कहा है -
स्वारथ मीत सकल जग माहीं।
सपनेहुँ प्रभु परमारथ नाहीं॥
सुर नर मुनि सब कै यह रीती।
स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती।।
पर परोपकारी कौन है ?
हेतु रहित जग जुग उपकारी।
तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी॥
वचन मन काया मन वाणी और कर्म का एक रंग होना संत का लक्षण है अगर मन वाणी और कर्म में भेद है तो यह कुटिलता है।
सरल बरन भाषा सरल, सरल अर्थमय मानि।
तुलसी सरले संतजन, ताहि परी पहिचानि॥
तन करि मन करि बचन करि, काहू दुखत नाहिं।
तुलसी ऐसे संत जन रामरूप जग माहिं ॥
संत सहज सुभाउ भाव यह कि संत पैदा होते है !संत बनाये नहीं जाते जो गर्भ ज्ञानी है ,पूर्ण काम है ! जिनका जन्म किसी पूर्व जन्म के संस्कार शेष रहने के कारण हुआ! ऐसे व्यक्ति ही वचन मन कर्म से परोपकार करने की योग्यता रखते है! और वे ही संत है जो पहले द्रोही रहे और बाद में सत्संग द्वारा जिनकी बुद्धि सुधर गई और परोपकार रत हुए वे सब के संत सामान है।
प्रभु राम ने स्वयं कहा -
जौं नर होइ चराचर द्रोही।
आवे सभय सरन तकि मोही॥
तजि मद मोह कपट छल नाना।
करउँ सद्य तेहि साधु समाना॥
कर्म तो सभी करते हैं पर जब वह सदुद्देश्यों से जुड़ जाता है तो योग बन जाता है। मनोयोगपूर्वक किया गया यही कर्म योगसाधना के समतुल्य है। जागरूकता, तत्परता एवं श्रेष्ठता को लक्ष्य रूप में वरण- इसी को कर्तव्य पालन कहते हैं, सफलता इसका मापदण्ड नहीं है।
अंतरिक्ष ने सूर्य से पूछा- _''देव ! आप सतत् ताप की ज्वाला में जलते रहते हैं, एक क्षण भी विश्राम है इससे आपको मिलता है ?
सूर्यदेव मुस्कराये और बोले-
तात! मुझे स्वयं जलते हुए भी दूसरों को प्रकाश, ताप और प्राण देते रहने में जो आनंद आता है उसकी तुलना किसी भी सुख से नहीं की जा सकती।
अंतरिक्ष को अपनी भूल ज्ञात हुई तथा मालूम हुआ कि जीवन की सच्ची सफलता स्वयं कष्ट उठकर भी दूसरों को प्रकाश-प्रेरणा प्रदान करते रहने में है।
भूर्ज तरू सम संत कृपाला।
पर हित निति सह बिपति बिसाला॥
संत सहहिं दु:ख पर हित लागी।
पर दु:ख हेतु असंत अभागी॥
भूर्ज तरू भोज पत्र का पेड़ यह हिमालय क्षेत्र में उगने वाला एक वृक्ष है। जो 4500 से14000 फ़ीट की ऊँचाई तक उगता है।यह बहुपयोगी वृक्ष है इसका छाल सफेद रंग की होती है जो प्राचीन काल से ग्रंथों की रचना के लिये उपयोग में आती थी। दरअसल,भोजपत्र भोज नाम के वृक्ष की छाल का नाम है, पत्ते का नहीं। इस वृक्ष की छाल ही सर्दियों में पतली-पतली परतों के रूप में निकलती हैं, जिन्हे मुख्य रूप से कागज की तरह इस्तेमाल किया जाता था। तांत्रिक लोग इसे पवित्र मानते है और इस पर प्रायः यंत्र मन्त्र लिखते है पहले लोग इसको वस्त्र की जगह पहनते थे और इससे मकान भी छाते थे! संत दूसरों की भलाई के लिए दुःख सहते हैं और अभागे असंत दूसरों को दुःख पहुँचाने के लिए दुःख सहते हैं । कृपालु संत भोज के वृक्ष के समान दूसरों के हित के लिए भारी विपत्ति सहते हैं। (अपनी खाल तक उधड़वा लेते हैं) (भूर्ज तरू=भोज के वृक्ष)
लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मशाः।
छिन्नद्वैधा यतात्मान: सर्वभूतहिते रता:॥
करुणा का गुण संतों का आंतरिक स्वभाव है। इससे प्रेरित होकर, वे दूसरों के कल्याण के लिए अपने शब्दों, मन और शरीर का उपयोग करते हैं।
मानव कल्याण एक सराहनीय प्रयास है। हालाँकि, कल्याणकारी योजनाएँ जो केवल शारीरिक देखभाल के लिए प्रतिबद्ध हैं, उनका परिणाम केवल अस्थायी कल्याण होता है। एक आदमी भूखा है; उसे भोजन दिया जाता है, और उसकी भूख शांत की जाती है। लेकिन चार घंटे बाद उसे फिर से भूख लगी है. आध्यात्मिक कल्याण सभी भौतिक कष्टों की जड़ तक जाता है, और आत्मा की ईश्वर-चेतना को पुनर्जीवित करने का प्रयास करता है। इसलिए, सर्वोच्च कल्याणकारी गतिविधि किसी व्यक्ति को उसकी चेतना को ईश्वर के साथ एकजुट करने में मदद करना है। यह एक प्रकार का कल्याणकारी कार्य है जिसमें शुद्ध मन वाली श्रेष्ठ आत्माएं संलग्न होती हैं। इस तरह की कल्याणकारी गतिविधि भगवान की कृपा को और आकर्षित करती है, जो उन्हें मार्ग पर और भी आगे बढ़ा देती है। अंत में, जब उन्होंने मन की पूर्ण शुद्धि प्राप्त कर ली है और भगवान के प्रति अपना समर्पण सिद्ध कर लिया है, तो वे आध्यात्मिक क्षेत्र और दिव्य निवास के लिए मुक्त हो जाते हैं।
संत दुःख क्यों सहते है?
संत हृदय नवनीत समाना।
कहा कबिन्ह परि कहै न जाना॥
निज परिताप द्रवइ नवनीता।
पर दुख द्रवहिं संत सुपुनीता।।
संत का हृदय माखन के समान होता है ऐसा कवियों ने कहा है परंतु कहना उन्होंने नहीं जाना (अर्थात ठीक उपमा देते ना बनी) माखन तो अपने परताप लगने से ही पिघलता है और परम पुनीत संत जन पराये दुःख से देखकर द्रवीभूत होते है! कहा कबिन्ह का भाव यह की कवियों को संत के ह्रदय की अगाधता का क्या पता? यथार्थ में माखन और संत हृदय में समानता नहीं है माखन जब स्वयं तपाया जाता है तब पिघलता है इस तरह अपने दुःख में दुखी होना तो दुष्टो में तो होता ही है! पर संतो में यह विलक्षणता है कि वे अपना दुःख ईश्वर का न्याय समझ कर सह लेते है! पर दूसरों के दुःख को नहीं सह सकते द्रवीभूत हो जाते है। जैसे -
नारद देखा बिकल जयंता।
लगि दया कोमल चित संता॥
शंकर जी ने भी संत की महिमा कही हे उमा! संत की यही बड़ाई (महिमा) है कि वे बुराई करने पर भी (बुराई करने वाले की) भलाई ही करते हैं। (विभीषणजी ने भी रावण से कहा) आप मेरे पिता के समान हैं, मुझे मारा सो तो अच्छा ही किया, परंतु हे नाथ! आपका भला श्री रामजी को भजने में ही है।
शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि कुछ भी मेरा नहीं है । इनको संसार का मान लें तो कर्मयोग हो जायगा, प्रकृति मात्र का समझ लें तो ज्ञानयोग हो जायगा और भगवान् का मान लें तो भक्ति योग हो जायगा । यदि इनको अपना मानेंगे तो जन्म-मरणयोग हो जायगा अर्थात् जन्म-मरण होगा, मिलेगा कुछ नहीं । जो अपना नहीं है, वह मिलेगा कैसे ? अपने पास रहेगा कैसे ? इसलिये गीता कहती है कि इन शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धिसे जो भी काम करो, सबके हित के लिये करो।
यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते ॥
‘यज्ञ के लिये अर्थात् निःस्वार्थ भाव से केवल दूसरों के हितके लिये कर्म करने वाले मनुष्य के सम्पूर्ण कर्म विलीन हो जाते हैं ।
परहित बस जिन्ह के मन माहीं ।
तिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीं ॥
दूसरों का हित करने से कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग‒तीनों सिद्ध हो जाते हैं । सगुण और निर्गुण‒दोनों की प्राप्ति दूसरों का हित करने से हो जाती है ।
जिनका शरीर मन-बुद्धि-इन्द्रियों सहित वश में है, जो सम्पूर्ण प्राणियों के हित में रत हैं, जिनके सम्पूर्ण संशय मिट गये हैं, जिनके सम्पूर्ण कल्मष (दोष) नष्ट हो गये हैं, वे विवेकी साधक निर्वाण ब्रह्मको (निर्गुणको) प्राप्त होते हैं ।
सबका हित करने से अपना हित मुफ्त में, स्वाभाविक ही हो जाता है । इसलिये हमें कोई नया काम नहीं करना है, प्रत्युत अपना भाव बदलना है कि हमारी सम्पत्ति सबके लिये है । हम तो सम्पत्ति की रक्षा करने वाले हैं । जैसे आवश्यकता पड़ने पर हम अन्न, जल, वस्त्र आदि अपने काम में लेते हैं, ऐसे ही आवश्यकता पड़ने पर दूसरों को भी अन्न, जल, वस्त्र, औषध दे दें । जैसे खुद आवश्यकता के अनुसार वस्तु लेते हैं, ऐसे ही दूसरोंको भी आवश्यकताके अनुसार दें ।
रामचंद्र जी का चरित्र सुंदर धागा है, जिसमें सद्गुण रूपी रत्न पिरोए हुए हैं। ऐसी सुंदर मणिमाला को
पहिरै सज्जन विमल उर शोभा अति अनुराग।
जिस माला की शोभा से अति अनुराग उत्पन्न होता है। रामचरित मानस में संतों के गुणों और असंतों के दोषों का वर्णन है जिनका उन्होंने उपयोग करने के लिए सम्पूर्ण मानव समाज को सचेत किया है।
दुर्जन प्रकृति के मनुष्य दूसरों के दोषों का दर्शन व संचय किया करते हैं और गुणों में दोष लगाते हैं। जो सज्जन प्रवृति के मनुष्य हैं वे गुण-दोष मिश्रित संसार के गुणों का संचय करते हैं और दोषों की उपेक्षा करते हैं।
संतशिरोमणि गोस्वामी जी का कथन है कि-
ताते कछु गुण दोस बखाने।
संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने।।
संत-असंत मनुष्य की सभी जातियों में, देशों में, संप्रदायों में, गरीब, अमीरों में पढ़े-कुपढ़े समाज में, राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक वर्णों और आश्रमों में गृहस्थ और स्वामियों में दोनों प्रकार के तत्व पाए जाते हैं। सज्जनों को पहचान कर उनका सहयोग करें और दुर्जनों से सावधान रहें।
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