आंगन

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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 राहुल फोन पर किसी से बात कर रहे थे। आपसी वार्तालाप के अंशों को सुनकर निधि समझ गयी कि बड़े दादा का फोन है और बात उसके मायके वाले घर की हो रही है। राहुल के रिसीवर रखते ही उसने बेचैनी से पूछा, “क्या कह रहे थे दादा ?”

“देवरिया वाला मकान बेचना चाहते हैं।”

“हाय! पापा, नाना-नानी वाला घर क्यों बिक रहा है।” बेटी नायरा के मायूसी में लिपटे सवाल पर निधि भी भावुक हुई, तो राहुल बोले, “अब इसमें बुरा ही क्या है। अम्मा-बाबूजी रहे नहीं। घर पिछले डेढ़ साल से बंद पड़ा है। कोई आता-जाता भी नहीं। अब वहां क्या रखा है।”

निधि ने कमज़ोर आवाज में पूछा, “और क्या बात हुई ?”

“केदार भैया, सुधा जीजी और वो स्वयं सपरिवार वहां पांच तारीख़ को पहुंच रहे हैं। दादा चाहते हैं हम भी सपरिवार पांच तारीख़ को देवरिया पहुंचें, पर मैंने कह दिया कि मैं अपनी ज़रूरी मीटिंग निपटाकर आठ की सुबह तक ही पहुंच पाऊंगा।”

निधि भरे मन से बोली, “मेरा तो जाने का मन नहीं है. इतने समय पश्‍चात मायके में भाई-बहन इकट्ठे हो भी रहे हैं, तो मकान बेचने के लिए।”

“बाबूजी के जाने के बाद से तुम मायके को याद करती रही हो। जो ये मौक़ा भी गंवा दोगी, तो इसकी कसक सदा बनी रहेगी।” राहुल के कहने पर उसने मूक सहमति यह सोचकर दे दी कि मायके की डेहरी बिक रही है, इस क्षोभ के चलते भले कह दे ‘नहीं जाऊंगी’, पर जिस घर में अम्मा-बाबूजी से जुड़ी मधुर स्मृतियां हैं, वहां अम्मा-बाबूजी को एक बार और महसूस करने जाना ही होगा, वरना अफ़सोस रह जाएगा।

आठ तारीख़ की सुबह स्टेशन पर छोटा भाई केदार और बड़े दादा का बेटा अंशुल स्टेशन पर लेने आए। घर के गेट पर जहां बाबूजी उसका इंतज़ार करते दिखते थे, वहां बड़े दादा खड़े मिले. बड़ी-छोटी दोनों भाभियां, सुधा जीजी-जीजाजी आंगन में बैठे गपियाते और उनके बच्चे टूटी मुंगरी से क्रिकेट खेलते दिखे। निधि को आया देख बच्चे पैर छूने भागे।

केदार ने जेब से एक गेंद निकालकर बच्चों की ओर उछालते हुए कहा, “ये सातवीं गेंद है। अब जो तुम्हारे चौकों-छक्कों ने गेंद गुमाई तो अपनी निधि बुआ से मांगना।”

जीजी बच्चों के पक्ष में झट बोलीं, “अब बच्चे हैं। करें क्या, कल से कह रही हूं टीवी अच्छा-भला लगा है। दो-चार दिन के लिए केबल कनेक्शन ले लो, तो ये शांति से बैठेंगे।”

केदार की पत्नी विशाखा, जीजी की बेटी सलोनी के साथ तश्तरी में पेड़े और शरबत लेकर आई और फिर शुरू हुई इन दो-तीन दिनों में घर की ज़रूरत से ज़्यादा बिगड़ी हालत को दुरुस्त और पांव रखने लायक बनाने की दास्तां… सबने अपने-अपने दिए सहयोग का विवरण दिया।

बड़ी भाभी तीन फुट हाथ उठाती बोलीं, “यहां इत्ती ऊंची घास थी. बाबा रे बाबा पांव रखते जी कांपा। सब कटवाया है। धूल तीन-चार पर्त तक जमी थी। हाय-हाय कैसे साफ़ करवाया, हम ही जानते हैं।”

“बर्तनों में जंग लग गए थे। वो तो अच्छा हुआ पुरानी कामवाली बाई गोमती मिल गयी। बेचारी ने बर्तन घिसे। चीकट रसोई साफ़ की। तब जाकर खाना बनाने का मन हुआ।” विशाखा ने भी जेठानी की हां में हां मिलाई।

“ये घर तो बिक रहा है न मामा।” नायरा ने पूछा, तो बड़े दादा सर हिलाकर बोले, “बिकना तो है, पर ख़रीदार को मकान की वो दशा दिखा देते, तो वह चालीस प्रतिशत दाम वैसे ही गिरा देता। तीन-चार लोगों से बात हुई है। परसों तक फाइनल करना है।”

“ये बात तो है। साफ़-सुथरे मकान की कीमत बढ़ ही जाती है। जब बेचना ही है, तो घाटे का सौदा क्यों करें।” जीजाजी के कहने पर निधि का मन टीस से भर उठा। पिछले डेढ़-दो सालों से बंद घर अम्मा-बाबूजी के न रहने से अब मकान बन चुका है। क्या उस जगह की कीमत लगाई जा सकती है, जहां उसका-सबका बचपन गुजरा। जिस आंगन में सबके शादी-ब्याह हुए, जिस घर से सबने सुखद भविष्य की ओर उड़ान भरी।

निधि की आंखों में आंसू झिलमिलाए तो दादा बोले, “देख निधि, घर बिकने का हम सबको भी दुःख है, पर कभी-कभी प्रैक्टिकल होकर निर्णय लेने पड़ते हैं। मायके की ये डेहरी बिक रही है, ऐसा क्यों सोचती है। हम तो हैं। तुम-सुधा हमारे पास आना। जब तक हम हैं, मायका रहेगा।”

“दोनों बुआ का मायका तो अरेंज हो गया, पर ताऊजी आपका और पापा का मायका कहां होगा।” केदार के सात साल के बेटे विहान के इस प्रश्‍न पर हंसी की फुलझड़ी छूट गयी।

“तू बहुत बोलने लगा है रे छुटकू…” बड़े दादा उसको गुदगुदाते हुए बोले, “आज समय पर सो जाना. सुबह जल्दी उठना है।” निधि की प्रश्‍नवाचक नज़रें देख बड़ी भाभी बोली, “अरे तुम्हारे दादा ने पहले तो हमसे जमकर काम करवाया, फिर आज तड़के मुझे जगाकर कहने लगे, कल गुरूवार है और पूर्णमासी भी, क्यों न कथा सुन लें”।

“कथा!”… निधि विस्मय से कह रही थी। “गृहप्रवेश के समय पूजा-कथा का विधान सुना था। घर बेचते समय कथा कौन कराता है।”

दादा बोले, “जब भी यहां आता था, बाबूजी कहते थे कि कथा सुनने की इच्छा है। कुछ हमारी लापरवाही समझो कि हम सुनकर अनसुना कर दिए। अब हो जाए कथा, तो हमारे दिल का बोझ हट जाएगा।”

कुछ देर यहां-वहां की गप्पें सुनकर निधि ने आंगन से भीतर प्रवेश किया, तो मन गीला-गीला सा हो गया।

खिड़की की बाट पर अभी भी अम्मा-बाबूजी की दवाइयां-चश्मे रखे दिखे। ड्रेसिंग टेबल खोली, तो अम्मा की मेकअप की बांस की बुनी पिटरिया दिखी। बिना दरवाज़ों की खुली अलमारी के खानों में पानदान दिखा।

पीतल के पानदान को देख होंठों पर स्मित मुस्कान के साथ नायरा के बचपन की बिसरी बातें याद आईं। लगा अम्मा की आवाज़ यहीं कहीं से आई। “क्यों रे निधि, मेरा पानदान कहीं देखा क्या…?”

नायरा की शैतानी भरी धीमी-धीमी हंसी और फिर अम्मा की झुंझलाहट कानों में बिखर गई, “ए नायरा, तूने ही छिपाया है न पानदान ?”

“हां नानी, मैंने छिपाया है और अब आपको पानदान नहीं मिलेगा। देखो कितने खराब हो गए हैं आपके दांत।”

“याद है, अम्मा का पानदान नायरा कैसे छिपा दिया करती थी।” जीजी का स्वर कानों में पड़ा, तो उसने चौंककर पानदान से दृष्टि हटाई। उसके होंठों पर उदास-सी मुस्कान देख जीजी बोली, “उदास न हो, ये दिन कभी न कभी आना ही था.”

“और क्या, कितने घर यहां बिकने की कगार पर हैं। जानती है पड़ोस की बिमला चाचीजी भी नहीं रहीं और उधर जो कांता आंटी रहती थीं न, वो भी… और…”

विदिशा धाराप्रवाह छह-सात परिवारों के बूढ़े-बुजुर्गों के न होने की, उन घरों के बिकने की सूचना देने के साथ बताने लगी कि नहीं रहे बूढ़े-बुजुर्गो के लड़के-बच्चे मोहल्ले छोड़कर एपार्टमेंट और बड़े शहरों में चले गए। ‘इस मोहल्ले में रह ही क्या गया है’ इस ब्रह्मवाक्य के साथ वह रसोई की ओर चली गई। जीजी भी उनके पीछे-पीछे चली गई।

निधि घूम-घूमकर घर देखने लगी। अम्मा-बाबूजी की लोहे की आलमारी खोलकर उनके तहे कपड़े देखकर वह उंगलियों को कपड़ों में फिराने लगी। बाबूजी के बंद गले के कोट से वह कभी लिपटती, तो कभी अम्मा की धोतियों को उठाकर कभी गाल तो कभी सीने से सटाती।

“लाओ अम्मा तुम्हारी आलमारी सुधार दूं।” सचमुच उसके मुंह से निकल गया और वाकई वह पहले अलमारी, फिर बक्सा खोल के बैठ गई। पुराने ज़माने की साड़ियां वह कौतुक से देखती, उन्हें खोलती, फिर तह कर रख देती।

“तुझे कुछ चाहिए तो ले जा।” बरामदे में बैठे दादा की सहसा आवाज़ आई, तो वह आंसुओं को रोकते हुए मन ही मन बुदबुदाई, “क्या-क्या रखूं दादा?”

रात को खाना खाने के बाद मूंगफली टूंगते, हंसी-मज़ाक और कहकहों के बीच पुराने किस्से सुने-सुनाए जाने लगे। सभी बच्चे भी कौतूहल से बड़ों की बातें सुन रहे थे। उसी बीच केदार भैया एक संदूक ले आए और बोले, “आज ऊपर वाली कोठरिया की सफाई से देखो क्या निकाले हम। ज़रा देखो, हमारी अम्मा क्या-क्या कबाड़ इसमें धरती थीं।”

संदूक के खुलते ही उसमें से कपड़े के बने गुड्डा-गुड़िया निकले… तो जीजी विस्मय से चिल्लाई। “हाय राम! अम्मा ये अभी तक धरी थीं।” दादा मुस्कराए। निधि भी गुड्डे-गुड़िया उलट-पलटकर देखने लगी। बच्चों की उत्सुकता देख जीजी बोली, “अरे इनका हम ब्याह रचाते थे। हम और निधि लड़की वाले बनते थे और बड़े दादा और केदार ठाठ से बाराती बनकर दावत उड़ाने आते थे। “दावत, मतलब असली वाली?” किसी ने पूछा।

“और क्या… निधि बोल पड़ी, अम्मा छोटी-छोटी पूडियां-हलवा, आलू की सब्जी बनाती. पहले बराती खाते, फिर घराती।”

सब हंस पड़े। संदूक खंगाला जाने लगा।  बचपन के ऊनी कपड़े, खिलौने… मेले से खरीदी बांसुरी… छोटे भैया का माउथ आर्गेन… पुराने बल्ले… डायरी, स्कूल के बैच… और जाने क्या क्या…

“देखो तो दादा का पहला बंद गले का कोट… नौ साल की उम्र में बना कोट सत्रह साल तक पहने थे… फिर ये कोट चार साल हम पहने…” केदार कोट दिखाते बोले, तो जीजी ने पतली मोहरी की पैंट उठा ली, “ए छोटे की पैंट देखो ज़रा… बाबूजी इसे सिगरेट पैंट कहते थे…” दादा एक फ्रॉक उठाकर निधि से बोले, “तू कभी इत्ती छोटी थी क्या ?”

“अरे ये क्रोशिया के टेबलक्लॉथ मैंने ही बनाए थे।” जीजी अपने बनाए पीले पड़ गए मेज़पोश को देख कुछ भावुक हुई. बच्चे संदूक से कुछ-कुछ सामान उठाते और उसका इतिहास सुनकर हंसते जाते।

बड़ी भाभी चिंतित मुद्रा में कहने लगी, “अम्मा-बाबूजी जो इतना पुराना सामान इकट्ठा किए हैं, उसका सोचो क्या करेंगे।”

“करना क्या है, कबाड़ में जाएगा।” विदिशा भाभी के कहने पर सलोनी जीजी से बोली, “मम्मी, कुछ चीज़ें रख लेना। जैसे ये गुड्डे-गुड़िया… और…”

“हां हां… अम्मा कबाड़ इकट्ठा कीं, अब तुम कर लेना. इतनी सुंदर-सुंदर गुड़िया हैं… वहां फ़्लैट में कबाड़ की जगह नहीं…” जीजी की बात पर केदार सहमति जताते हुए कहने लगे, “सही बात है, मैंने तो भई साफ़ कह दिया। तीन कमरों के फ़्लैट में एक चीज़ लाओ, तो एक बाहर करो।”

निधि जानती थी कि अम्मा को चीज़ें फेंकने में तकलीफ होती थी। उन्हें फेंकने से बचाने के लिए वो सामान को उस कोठरी का रास्ता दिखा देती थीं, जिसे साफ़ करने की कोई हिम्मत न दिखाता।

चीज़ें बेजान थीं, पर उनसे जुड़ी यादें जीवंत थीं। देर रात तक आंखें मूंदे वह अम्मा-बाऊजी के वजूद को महसूस करती रही।

सुबह चहल-पहल होते देख उसने आंखें खोलीं, तो देखा जीजी-दोनों भाभियां नहा-धोकर तैयार थीं। बच्चों को भी जगाया जा रहा था। निधि उठकर बैठ गयी तो देखा दादा और केदार फल-फूल-मिठाई के थैले लेकर आ रहे थे।

वह जल्दी से उठ गयी. पूजा के लिए सुबह की चहल-पहल मन को भली लगी। साढ़े नौ के आसपास पंडित जी आ गए थे। बैठे-बैठे वह निर्देश देते रहे और दादा पैकेट से सामान निकालकर देते रहे। रसोई से पंजीरी की सुगंध उठने लगी. आसपास के दो-चार लोग आ गए।

मंत्रोच्चार-हवन से उठते धुएं-कपूर और गूगल की सुगंध मन को दिव्यता से भरने लगी। घर बिकने की नीरसता-उदासी मन से यकायक हटने लगी। यूं कहो कि लगा ही नहीं कि ये घर बिकने भी वाला है। समय से घर में बंद उदासी-निराशा आरती शंख-घड़ियाल की गूंज से दूर हो गई।

अड़ोस-पड़ोस के गिने-चुने पुराने लोगों को देख मन अभूतपूर्व प्रसन्नता से भर उठा। पूजा-प्रसादी के पश्‍चात आपसी हालचाल लेने के बीच ‘अब बच्चों के लिए यहां क्या रह गया है। वो तो हम बूढ़े जमे हैं तब तक, जब तक हाथ-पैर चल रहे हैं… मोहल्ला सिकुड़ रहा है धीरे-धीरे गायब हो जाएगा’ सिन्हा अंकल की निराशा झलकी, तो मिश्रा अंकल की टीस भी बाहर आई, “कई बिल्डर इस मोहल्ले को ख़त्म करने की फिराक में हैं। बाजू वाले तीन घर बिक गए हैं, पर कोई रहने नहीं आया। सुनते हैं बिल्डर यहां कोई शॉपिंग कॉम्प्लेक्स या व्यावसायिक मार्केट खोलेंगे।”

मोहल्ले की सिकुड़न को धार देकर सब चले गए, तो उदासी फिर दबे पांव चली आई।

निधि छत पर गयी, तो देखा वहां दादा पहले से ही मौजूद थे। निधि को देखकर बोले, “घर बिक जाए, उससे पहले सोचा क्यों न मन भरकर आसपास के नज़ारे देख लूं।” निधि दंग थी सोचकर कि क्या दादा भी उसकी तरह घर को लेकर भावुक हैं।

“ये देखो, दोनों यहां बैठे हैं। अरे भूख नहीं लगी क्या?” जीजी ऊपर आई, तो वो भी बतियाने लगी।

“सब लोग कहां हैं ?” यह देखने केदार आए, तो वो भी बैठ गए और छत की छोटी-सी चहारदीवारी की ओर इशारा करके बोले, “याद है, इस दीवार के इस पार अम्मा और उस पार खड़ी मनोरमा चाची कित्ती-कित्ती देर बतियाती थीं।”सब हंस पड़े।

 पड़ोस की छत और उनकी छत के बीच एक दीवार थी। उसी दीवार से ही अपने-अपने घरों में बनने वाले पकवानों का, संदेशों का आदान-प्रदान होता था। और बच्चे तो इसी दीवार से कूदकर दूसरी ओर चले जाते थे। वो घर बिक चुका था और ये बिकने वाला है। भावुकता से सबके मन सराबोर थे, आसपास के लोगों की बातें, होली-दीवाली में होने वाले सामूहिक उल्लास-हुडदंग का ज़िक्र होता रहा।

आज पूजा के कारण घर बेचने संबंधी कार्यो को विराम दिया गया, इसलिए सब फुर्सत में थे, सो देर तक किस्सागोई चलती रही।

दूसरे दिन सुबह से ही घर के सारे फर्नीचर-बर्तन-टीवी, फ्रिज-इनवर्टर एक तरफ निकालकर सबने मन पर मनभर पत्थर बांध लिया। खरीददार आने शुरू हुए. पर समान की क्या कहें, खरीददारों को तो घर की दीवारों-छतों से भी सरोकार न था। वो बस स्कवॉयर फीट ज़मीन का मोल लगाते।

अब आख़िरी उम्मीद उस बिल्डर पर टिकी थी, जिसने मोहल्ले के कई मकान खरीदे थे। वह आया और सरसरी नज़र से घर को देखकर बोला, “मकान बहुत पुराना है, छत-फर्श-दरवाज़ों का तो कोई मोल नहीं। ये सब तोड़े ही जाएंगे. रही बात सामान की तो पच्चीस हजार अतिरिक्त दे दूंगा।”

“सिर्फ पच्चीस हजार।” बड़ी भाभी के विस्मय पर वह हंसा, “इससे ज्यादा कोई नहीं देगा। कबाड़ अपने रिस्क पर ले रहा हूं. इस मोहल्ले के छ मकान खरीदे हैं। सात-आठ बूढ़े-बुज़ुर्ग मकानों में हैं। दो-तीन सालों में इनके निपटने के बाद ये मकान हमारे पास ही आने हैं।”

“क्या करिएगा इतने मकान खरीदकर?” विदिशा ने पूछा, तो वह शेखी बघारते हुए बोला, “अरे मैडम, बड़े-बड़े प्लान हैं. दस सालों में पहचान नहीं पाएंगी कि यहां कोई मोहल्ला भी था।”

“वाह! तो यूं कहिए मोहल्ला की पहचान मिटाने में हमारी भागीदारी चाहिए।” दादा की बात सुनकर उसने ठहाका लगाया।

वह चला गया और दादा बाबूजी की आरामकुर्सी में पसर गए। एक-दो घंटे के बाद दादा ने सबको बैठक में इकठ्ठा होने को कहा। सबके इकट्ठे होने के बाद गला खंखारते बोले, “ऐसा आंगन हममें से किसी के फ़्लैट में नहीं है। क्यों न इस आंगन का सुख भोगने के लिए हम साल में कम से कम एक बार यहां इकठ्ठा हों। सोचता हूं घर बेचने की जगह यहां किराएदार रखें, जिससे घर की देखभाल हो और दीया-बाती भी जले, क्यों कैसा रहेगा ?”

“अरे वाह, बड़ा मजा आएगा।” बच्चे तुरंत खुशी से उछल पड़े।

“मम्मी-मौसी के साथ बड़े मामा-छोटे मामा का मायका भी बच जाएगा।” नायरा नन्हें विहान से बोली, तो जिनके चेहरे पर असमंजस के भाव थे, वे भी मुस्करा दिए। शीघ्र ही बड़े दादा के इस विचार के प्रति सहमति बन गयी।

घर से जुड़ाव तो सभी महसूस कर रहे थे। महसूस कर रहे थे कि घर के कबाड़ में दरोदीवारों के आलों, छतों-फर्श में बचपन की बेशकीमती यादों की संपदा गड़ी थी। उन्हें चाहकर भी खोदकर ले जाना मुमकिन नहीं, कोरी भावुकता के चलते ही सही, यादों की छांव में पल दो पल बिताने का, अपने बुजुर्गो की डेहरी-आंगन को बचाने का फैसला घाटे का तो नहीं था। उनको आपस में हंसी-खुशी बोलते-बतियाते देख क्या पता अम्मा-बाबूजी का अदृश्य आशीर्वाद इस आंगन में बरस जाए।

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