सुखार्थिनः कुतोविद्या नास्ति विद्यार्थिनः सुखम्! सुखार्थी वा त्यजेद् विद्यां विद्यार्थी वा त्यजेत् सुखम् !! भावार्थ : सुख चाहने...
सुखार्थिनः कुतोविद्या
नास्ति विद्यार्थिनः सुखम्!
सुखार्थी वा त्यजेद् विद्यां
विद्यार्थी वा त्यजेत् सुखम् !!
भावार्थ : सुख चाहने वाले को विद्या नहीं मिल सकती है वही विद्यार्थी को सुख नहीं मिल सकता, इसलिए सुख चाहने वालो को विद्या का और विद्या चाहने वालो को सुख का त्याग कर देना चाहिए।
स्वभावो नोपदेशेन
शक्यते कर्तुमन्यथा!
सुतप्तमपि पानीयं
पुनर्गच्छति शीतताम् !!
भावार्थ : किसी व्यक्ति को आप चाहे कितनी ही सलाह दे दो किन्तु उसका मूल स्वभाव नहीं बदलता ठीक उसी तरह जैसे ठन्डे पानी को उबालने पर तो वह गर्म हो जाता है लेकिन बाद में वह पुनः ठंडा हो जाता है।
पुस्तकस्था तु या विद्या,
परहस्तगतं च धनम्!
कार्यकाले समुत्तपन्ने
न सा विद्या न तद्धनम् !!
भावार्थ : किताब में रखी विद्या व दूसरे के हाथो में गया हुआ धन कभी भी जरुरत के समय काम नहीं आते, इसलिए पढ़ाई करें और दूसरे के हाथ में रखे धन का स्मरण कर अकर्मण्य न हों।
विद्यां ददाति विनयं
विनयाद् याति पात्रताम्!
पात्रत्वात् धनमाप्नोति
धनात् धर्मं ततः सुखम् !!
भावार्थ : विद्या हमें विनम्रता प्रदान करती है, विनम्रता से योग्यता आती है व योग्यता से हमें धर्म का धन प्राप्त होता है और इस धन से हम धर्म के कार्य करते है और समाज व स्वयं सुखी रहते है, इसलिए पढ़कर लूटने का विचार त्याग देना चाहिए ।
गुणा: गुणग्येषु गुणा भवन्ति,
ते निर्गुर्णं प्राप्य भवन्ति दोषा:
आस्वाद्यतोया: प्रवहन्ति नद्य:
समुद्रमासाद्य भवन्तयपेया:।।
भावार्थ: गुण और अवगुण में भेद करने वाले वास्तव में वे ही गुणों के वास्तविक मोल को बता पाते हैं और जिन व्यक्तियों में ये सामर्थ्य ही नहीं है, कि वे गुण अवगुण को पहचान पाएं उनके लिए सब कुछ सामान्य होता है । इसलिए हमें उन व्यक्तियों से सानिध्य में रहना चाहिए जो आपके गुण और दोषों को पहचान कर आपका सटीक मार्गदर्शन कर सकें ।
ठीक उसी प्रकार नदी का जल नदी में गिरता है तो मीठा ही होता है, लेकिन जब वही जल समुद्र में जाता है तो खारा होकर गुणहीन हो जाता है , इसलिए हमें सदा गुणी व्यक्तियों के सानिध्य में रहना चाहिए।।
साहित्यसंगीतकलाविहीनः,
साक्षात्पशुः पुच्छविषाणहीनः।
तृणं न खादन्नपि जीवमान-
-स्तद्भागधेयं परमं पशूनाम्।।
भावार्थ: जो मनुष्य साहित्य, संगीत और कला से विहीन है वह साक्षात पूंछ और सींगों से रहित पशु के समान है। ये पशुओं के लिए बड़े सौभाग्य की बात है, कि वह बिना घास खाए ही जीवित रहता है।
लुब्धस्य नश्यति यशःपिशुनस्य मैत्री,
नष्टक्रियस्य कुलमर्थपरस्य धर्मः।
विद्याफलं व्यसनिनः कृपणस्य सौख्यं,
राज्यं प्रमतसचिवस्य नराधिपस्य।।
भावार्थ: लालची व्यक्ति का यश, चुगलखोर की मित्रता, कर्म से हीन व्यक्ति का कुल,धन को अधिक महत्त्व देने वाले का धर्म, बुरी आदतों वाले का विद्या से मिलने वाला लाभ, कंजूस का सुख और प्रमाद करने वाले मन्त्री के राजा का राज्य नष्ट हो जाता है, इसलिए हमें स्वयं एवं राष्ट्र की मर्यादा को ध्यान में रखते हुए अपने सभी कर्म करने चाहिए।।
पीत्वा रसं तु कटुकं मधुरं समानं
माधुर्यमेव जन्येन्मधुमक्षिकासौ।
संतस्तथैव समसज्जनदुर्जनानां
श्रुत्वा वचः मधुरसुक्तरसं सृजन्ति।
भावार्थ: जिस प्रकार मधुमक्खी मीठे और कड़वे दोनों प्रकार के रस को पीकर मिठास ही उत्पन्न करती है, ठीक उसी प्रकार सन्त लोग भी सज्जन और दुर्जन दोनों प्रकार के लोगों की बातों को एक समान सुनकर सुंदर वचन का ही सृजन करते हैं अर्थात् सुंदर वचन बोलते हैं।
विहाय पौरुषं यो हि
दैवमेवावलम्बते।
प्रासादसिंहवत् तस्य,
मूर्ध्नि तिष्ठति वायसाः।।
भावार्थ: जो व्यक्ति कर्मों में निष्ठा को छोड़कर भाग्य का सहारा लेते हैं वे महल के दरवाजे पर बने शेर की तरह होते हैं, जिनके सिर पर कौवे बैठते हैं इसलिए हमें कभी भी अपने भाग्य के भरोसे नहीं रहना चाहिए क्योंकि हमारा कल्याण केवल हमारे द्वारा किए गए सात्विक कर्म पुरुषार्थ के द्वारा ही हो सकता है।।
पुष्पपत्रफलच्छाया,
मूलवल्कलदारुभिः।
धन्या महीरुहाः येषां
विमुखं यान्ति नार्थिनः।।
भावार्थ: फूल, पत्ते, फल, छाया, जड़, छाल और लकड़ियों से युक्त वृक्ष धन्य होते हैं, जिनसे माँगने वाले कभी भी निराश नहीं होते वृक्ष उन्हें सहर्ष अपना सर्वस्व दे देते हैं,इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को वृक्षों की तरह ही सदैव दान, सहयोग और समर्पण की भावना रखनी चाहिए।।