देवयानी, शर्मिष्ठा और राजा ययाति कथा

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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   महाभारत के आदिपर्व अंतर्गत सम्भव पर्व अध्याय 81 में इस रोचक कथा सन्निवेशित है। अत्रि वंश के राजा नहुष के छः पुत्र थे-- यति, ययाति, संयाति, आयाति, वियति तथा कृति। यति परमज्ञानी थे तथा राज्य, लक्ष्मी आदि से विरक्त रहते थे। इसलिए राजा नहुष ने अपने द्वितीय पुत्र ययाति का राज्याभिषके कर दिया था। (यंहा विद्वानों के मतानुसार उल्लेखनीय है की-- ययाति नाम के एक राजा इक्ष्वाकुवंश में थे, जिसके पिता का नाम भी नहुष था।)।।

   एकदा दैत्यराज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा और गुरु शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी अपनी सखियों के साथ उद्यान में घूम रही थी। दोनों युवतियां एक दूसरे से सुंदरता के मामले में कम नहीं थे। एकदा वे सब की सब उस उद्यान के एक जलाशय में, अपने वस्त्र उतार कर स्नान करने लगीं। उसी समय भगवान शंकर भगवती पार्वती के साथ उधर से निकले। तो भगवान शंकर को आते देख वे सभी कन्याएं लज्जावश से बाहर निकली और दौड़कर अपने- अपने वस्त्र पहनने लगीं। किन्तु शीघ्रता में शर्मिष्ठा ने अनजान से अपनी वस्त्र के बदले देवयानी के वस्त्र को ही पहन लिया। तो इस पर देवयानी ने अति क्रोधित होकर शर्मिष्ठा से बोली-- ''रे शर्मिष्ठा! एक असुर पुत्री होकर तूने ब्राह्मण कन्या का वस्त्र धारण करने का साहस कैसे किया? तूने मेरे वस्त्र धारण करके मेरा अपमान किया है।।''

   देवयानी के मुख से ऐसी अपशब्दों को सुनकर शर्मिष्ठा अपने आप अपमान से तिलमिला गई और क्रोधवशः देवयानी के अंगवस्त्र को छीन कर, उसे निर्वस्त्र अवस्था में एक कुएं के अंदर धकेल कर वंहा से प्रस्थान किया।।

   शर्मिष्ठा के चले जाने के पश्चात् राजा ययाति आखेट करते हुए वहां पर आ पहुंचे और अपनी प्यास बुझाने के लिए जब कुएं के निकट गए, तभी उन्होंने उस कुएं में वस्त्रहीन देवयानी को देखा। तो इंसानियत के नाते तुरन्त देवयानी को अपना अंग वस्त्र में ढंककर उनकी लज्जा निवारण किया और उनकी हाथ को पकड़कर, कुएं से उद्धार किया।।

   कुएं से निकलने के बाद देवयानी ने राजा ययाति को परिचय देकर कहा-- "है मेरे प्राण रक्षक क्षत्रिय श्रेष्ठ ! मैं चिरकाल आभारी रहूंगी की आप ना केवल मेरे लज्जा निवारण किया, मेरे हस्त धारण कर मृत्यु मुख से भी मुझे उद्धार किया। परन्तु मैं एक अविवाहिता ब्राह्मण- कन्या हूँ और मेरे पिता है-- गुरुदेव शुक्राचार्य। धर्म के अनुसार एक अविवाहिता युवती के हाथ को धारण करने वाला ही उसकी 'स्वामी' होता है। इसलिए श्रीमन, आप मुझे विवाह कर धर्मरक्षा कीजिये।

    राजा ययाति अब गभीर सोच में पड़ गए और कुछ क्षण बाद कहा-- "भद्रे, धर्म दृष्टि से तो आप सही कहा, जिसको मैंने भी इंकार नहीं कर सकता; किंतु सामाजिक नियम के अनुसार आप पहले अपनी पिता जी से इस विवाह के लिए स्वीकृति तो लेनी है !... अब आप घरको लौट जाइये और पिता जी को कहकर, उनके अनुसार ही जो करना उचित है-- कीजिये। मैं भी उस शुभ मुहूर्त के लिए प्रतीक्षा करूँगा। अब मैं भी राजघर को वापस चला जाता हूँ।।" 

   शुक्राचार्य ने कन्या से सकल वृतांत सुनकर रोती हुई लाडली बेटी देवयानी को सान्त्वना दिया। फिर असुर राजा वृषपर्वा के पास जाकर, शर्मिष्ठा से देवयानी की अपमान प्रसंग को बयान कर उसे मांग की-- "शर्मिष्ठा जो घोर पाप किया है, प्रायश्चित के स्वरूप उनको एक दासी बनकर देवयानी के साथ उनकी पतिगृह में जाना पड़ेगा। ये शर्त्त तुमको मंजूर नहीं तो, मैं अभी असुर साम्राज्य को स्थायी रूप में छोड़कर अन्यत्र चला जाऊंगा।"

   राजा वृषपर्वा के लिए गुरु आदेश अमान्य करना सम्भव नहीं था। मार्मिक रूप से दुःखित होकर भी शर्त्त पालन करने में राजी हुए। इसके बाद नियम के अनुसार राजा ययाति के साथ देवयानी की विवाह सम्पर्ण हुआ और एक दासी बनकर, लज्जिता शर्मिष्ठा को भी देवयानी के साथ जाना पड़ा।

   ऐसे ब्राह्मण कन्या देवयानी को ब्राह्मणेतर कुल में विवाह के कारण, वृहस्पति पुत्र कच से मिले पूर्वश्राप के साथ, शर्मिष्ठा के लिए देवयानी का शाप भी फलित हुआ था।

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