तुंगभद्रा नदी के किनारे एक गाँव था। वहाँ आत्मदेव नामक ब्राह्मण अपनी पत्नी धुन्धुली के साथ रहता था। आत्मदेव सज्जन व्यक्ति थे, परंतु धुन्धुल...
तुंगभद्रा नदी के किनारे एक गाँव था। वहाँ आत्मदेव नामक ब्राह्मण अपनी पत्नी धुन्धुली के साथ रहता था। आत्मदेव सज्जन व्यक्ति थे, परंतु धुन्धुली स्वभाव की झगड़ने वाली, और दूसरों के दोष निकालने वाली स्त्री थी। आत्मदेव निःसंतान थे। इसलिए बहुत दुखी रहते थे। संतान प्राप्ति के लिये आत्मदेव ने बहुत प्रयास किये पर कोई सफलता नही मिली। अतः उसने आत्महत्या करने का निश्चय किया।
आत्मदेव वन की ओर निकल गये। रास्ते में उन्हे एक महात्मा जी मिले। आत्मदेव उन महात्मा के सामने रोने लगे। महात्मा ने उसके दुख का कारण पूछा। आत्मदेव ने कहा की मेरे पास खाने पीने के लिए तो बहुत कुछ है परंतु मेरे पास खाने वाला कोई नहीं है अतः मैं दुखी हूँ। इसलिए मरने की इच्छा से आत्महत्या करने यहाँ आया हूँ। संतान के लिए मैं इतना दुखी हूँ कि सब सूना- सूना लगता है। जिस गाय को पालता हूँ वह भी बांझ हो जाती है, जो पेड़ लगाता हूँ वह भी फलता फूलता नहीं हैं। मैं बहुत अभागा हूँ ऐसा कहकर आत्मदेव फूटफूट कर रोने लगा।
महात्मा जी ने कहा- तुम्हारे कोई संतान नहीं है यह तो ईश्वर की कृपा है। जिसके कोई संतान नही होती वह तो सभी ऋणो से मुक्त है अतः हे ब्राह्मण! पुत्र लालसा का मोह त्याग दो क्योंकि पुत्र की कामना से धन की, संसार की भी इच्छायें जागेंगी और तुम परमात्मा से दूर हो जाओगे। प्रतिकूलता में भी जो परमात्मा की कृपा का अनुभव करता है वही सच्चा वैष्णव भक्त है, उसी की सदगति है।
आत्मदेव ने कहा- आपके उपदेशों से मेरी मुक्ति नहीं होगी। मुक्ति के लिए तो पुत्र ही चाहिए।
महात्मा जी मुस्कुराये और बोले– शास्त्रों में लिखा है की पुत्र से मुक्ति नहीं है। जो मनुष्य परमात्मा के लिए जीता है और तन, मन, धन से परमात्मा के पूर्ण समर्पित है, वही मुक्त है।
आत्मदेव ब्राह्मण दुखी होकर बोले- मेरे मरने के बाद मेरा श्राद्ध और पिंडदान नहीं होगा तो मैं अनेक योनियों में भटकता रहूँगा। अतः कृपा करके आप मुझे संतान प्राप्ति का उपाय बताइए।
महात्मा जी बोले- यह शरीर ही पिंड है उसे परमात्मा को अर्पण करना ही पिंडदान है। श्राद्ध करने से पित्तर प्रसन्न होते है, पर मुक्ति संभव नहीं है। मुक्ति के लिए तो एक ही सत्कर्म है- स्वयं अपने द्वारा ही अपनी आत्मा का संसार-समुंद्र से उद्धार करे। ईश्वर के लिए जो जीता है उसे अवश्य मुक्ति मिलती है।
परंतु आत्मदेव को महात्मा के वचन न सुहाए और उसने कहा- महात्मा जी! मुझे तो आप पुत्र दे दीजिए, नहीं तो मैं आपके सामने ही प्राण त्यागता हूँ। जिसका दोष आपको भी लगेगा।
महात्मा जी द्वारा आत्मदेव को पुत्र-प्राप्ति का वरदान
आत्मदेव के हठ एवं दुराग्रह को देखकर महात्मा जी ने उसे एक फल देते हुए कहा- इसे तुम अपनी पत्नी को खिला देना, इससे उसके एक पुत्र होगा। तुम्हारी स्त्री को एक साल तक सात्विक जीवन जीना होगा। यदि वह ऐसा करेगी तो बालक शुद्ध स्वभाव वाला होगा। आत्मदेव खुशी-खुशी फल लेकर लौटा और अपनी पत्नी को फल दिया। धुंधुली ने फल नहीं खाया। अनेक कुतर्क सोचने लगी- अरे! गर्भावस्था में तो भारी कष्ट उठाना पड़ेगा, झंझट ही झंझट है। मैं बालक का लालन-पालन कैसे करूँगी, और इस फल के रूप में शुकदेव जी जैसा बालक आ गया और 12 वर्ष तक मैं गर्भवती रही, तो मैं तो मर ही जाऊँगी।
धुंधुली ने अपनी छोटी बहिन से सारी बात कही तो उसने युक्ति बताई- मैं गर्भवती हूँ, मुझे बालक होने वाला हैं, तो ऐसा करती हूँ कि मैं तुझे अपना बालक दे दूँगी, तू आज से ही गर्भवती होने का नाटक कर और ये फल गाय को खिला दे। महात्मा जी का भी पता चल जायेगा कि कितनी शक्ति है उनमें।
समय बीतने पर धुंधुली अपनी बहिन का पुत्र ले आई और पति को बोला कि मुझे बेटा हुआ है। बड़ा भारी उत्सव मनाया गया। नामकरण-संस्कार हुआ स्वयं का नाम आत्मदेव था तो उसने बेटे का नाम ब्रह्मदेव रखने का सोचा। पर धुंधुली फिर झगड़ गई- बेटा मेरा है तो नाम आप कैसे रखोगे? आत्मदेव बोले- ‘भई तू ही रख ले’। उसने कहा-मेरा नाम धुंधुली है तो मेरे बेटे का नाम धुंधुकारी।’
धुंधुली ने गाय को जो फल खिलाया था, उसके 2 महीने पश्चात् गाय के गर्भ से मनुष्य का बालक पैदा हुआ। जिसके कान बड़े-बड़े थे। इसलिए आत्मदेव ने उसका नाम गोकर्ण रखा।
अब दोनो बड़े होने लगे। धुंधुकारी दुष्ट प्रवृति का था और गोकर्ण बड़ा ही सात्विक प्रवृति का था। धुंधुकारी सारे दुष्कर्म करता था। शराब पीता, जुआ खेलता, घर की सारी सम्पत्ति ले जाता। धीरे-धीरे उसने सारी सम्पत्ति नष्ट कर दी इसलिये तो पुरानी कहावत है-
पूत कपूत तो क्यों धन संचय।
पूत सपूत तो क्यों धन संचय।।
अगर पुत्र दुष्ट है तो आपके खून पसीने की कमाई सब बर्बाद कर देगा ओर अगर पुत्र सपूत है तो खुद मेहनत करके धन अर्जित कर लेगा। इधर एक दिन धुंधुकारी ने आत्मदेव की भी पिटाई कर दी। पुत्र के दुराचरण को देखकर आत्मदेव को बहुत दुख़ हुआ। उसने सोचा इससे अच्छा तो पुत्रहीन ही रहता। पिता के दुख को देखकर गोकर्ण पिता के पास आया और उन्हे वैराग्य का उपदेश दिया।
गोकर्ण ने कहा- पिताजी! ये संसार दुख रूप है तथा मोह से बांधने वाला है। संसार मे सिर्फ़ भगवद् दृष्टि रखकर ही हम सुखी हो सकते है। अतः पुत्र-मोह त्यागकर भगवद्भक्ति करिये, तभी मनुष्य जनम सफल है।
जो सुख को चाहे सदा, तो शरण राम की ले।
भक्ति में परदोषदर्शन विघ्न है, अतः हे पिताजी! अब धुंधुकारी की गतिविधियों की तरफ ध्यान ना देकर वन में जाकर प्रभु की आराधना करें।
गोकर्ण की बात समझ, पुत्र मोह त्यागकर आत्मदेव गंगा के किनारे आ गये। भागवत के दशम स्कंध का रोज पाठ करते थे और उसी जीवन में उन्हे श्री कृष्ण की प्राप्ति हो गई।
धुंधुकारी को प्रेत योनि की प्राप्ति और उससे उद्धार
आत्मदेव के चले जाने के बाद एक दिन धुंधुली भी पुत्र के उपद्रवों से दुखी होकर कुएँ मे जा गिरी और उसकी मृत्यु हो गई। इधर गोकर्ण जी तीर्थ यात्रा के लिए निकल गये। खुली छूट मिलने के कारण अब धुंधुकारी पाँच वैश्याओं को घर ले आया। वह वैश्याओं की माँगो को पूरा करने के लिए डाका डालता, शराब पीता, जुआ खेलता था। इनकी माँगों को पूरा करते करते एक दिन धुंधुकारी ने राजा के महल से भी चोरी कर ली। वैश्याओं ने सोचा यदि यह जीवित रहा तो एक ना एक दिन हम सब पकड़े जाएँगे। अतः इसे मार ही डाले तो अच्छा रहेगा। ऐसा सोच कर रात को उन्होने सोते हुए धुंधुकारी को रस्सी से कसकर बाँध दिया और जलते हुए अंगारे उसके मुख में भरकर उसे तड़पा-तड़पा कर मार डाला। फिर उसके शरीर को वही धरती मे गाड़ दिया। धुंधुकारी अपने कुकर्मो के कारण भयंकर प्रेत हुआ। जो पाप करता है उसे प्रेत बनना पड़ता हैं।
गोकर्ण द्वारा भाई का गया मे श्राद्ध
गोकर्ण ने गया मे जाकर भाई का श्राद्ध किया, पर उसका उद्धार नहीं हुआ। अब धुंधुकारी अनेक रूप बनाकर गोकर्ण को डराने लगा। गोकर्ण इतने गायत्री-मंत्र का जप करते थे कि वो उनके पास नहीं आ सकता था। प्रेत योनि तामस योनि हैं। जो सात्विक मंत्रो का जाप करता हैं, प्रेत उसके पास नहीं आ सकते हैं।
गोकर्ण ने पूछा- तू कौन है?
धुंधुकारी ने कहा- मैं तुम्हारा भाई धुंधुकारी हूँ। हे भाई! तुम दयालु हो मुझे इस प्रेत योनि से छुटकारा दिलाओ।
गोकर्ण बोले- अरे! मैने तो तेरा गया में पिंडदान कर दिया फिर भी तेरा उद्धार नहीं हुआ?
धुंधुकारी बोला- मैने जितने दुष्कर्म किये हैं, गया के पिंड से मेरा उद्धार होने वाला नहीं हैं और कोई उपाय सोचो।
गोकर्ण द्वारा सूर्य नरायण से प्रार्थना
गोकर्ण ने सभी विद्वानों को बुलाकर पूछा पर कोई उपाय नहीं निकला। अब गोकर्ण ने सूर्य देव को नमन किया और कहा- ‘आप सबके कर्मों के साक्षी हैं । हम प्राय कहते हैं – और कोई नहीं देख रहा है, पर भगवान तो देख ही रहे हैं। क्योंकि सूर्य और चंद्रमा भगवान के दो नेत्र हैं। आप किसी से भी कोई चोरी बचा सकते हैं, पर सूर्य और चंद्र से नहीं बचा सकते। ये ही भगवान के यहाँ गवाही देते हैं आपके कर्मों की। तो सूर्य देव से गोकर्ण ने पूछा- “आप इसके, कर्मों के साक्षी हैं, आप ही बताइये इसका उद्धार कैसे होगा?
सूर्य देव ने कहा – “इसको भगवत्-सप्ताह सुनाओ तभी इसकी मुक्ति संभव है और दूसरा कोई उपाय नहीं है।
धुंधुकारी की मुक्ति गोकर्ण ने भागवत सप्ताह का आयोजन किया। प्रेत तो हवा के रूप में होता है। धुंधुकारी सोचने लगा कहाँ बैठूं? वहाँ एक सात गाँठ का बाँस रखा था, उसी में छिपकर वो बैठ गया।
बहुत से लोग भागवत में सात गाँठ का बाँस लगाते हैं। यदि संदेह है की परिवार का कोई सदस्य प्रेत बन गया है तो अवश्य लगाना चाहिए।
पहले दिन की कथा में पहली ग्रंथि का भेदन हो गया। दूसरे दिन में दूसरी गाँठ का। इस तरह सात दिनों में सातों गाँठ का भेदन करते हुए, धुंधुकारी दिव्यरूप धारण करके भगवान के पार्षद के रूप में प्रकट हो गया, धुंधुकारी को लेने भगवान का विमान आया।
इस कथा के अंतिम चरण में महत्वपूर्ण बात यह है कि भागवत कथा तो बहुत से लोगों ने सुनी परंतु सिर्फ़ धुंधुकारी को ही लेने भगवान का विमान क्यों आया? तो इसका उत्तर है- सबने कथा सांसारिक सुखों को प्राप्त करने के लिए सुनी और धुंधुकारी ने पूरी श्रद्धा, प्रेम व विश्वास से भगवद् धाम जाने के लिये सुनी इसीलिये उसे लेने विमान आया।
सांसारिक आनन्द से ऊपर है“भगवद् आनन्द”। संतो की बात पर विश्वास करके हमें भी पूरी श्रद्धा, प्रेम से कथा सुननी चाहिए जिससे हमारा भी भगवान से प्रेम हो जाये और नित्य आनन्द की प्राप्ति हो।
संकलित – श्रीमद्भागवत-महापुराण।
लेखक – महर्षि वेदव्यास जी।
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