अंजनीगर्भसम्भूतो हनुमान् पवनात्मज:। यदा जातो महादेवो हनुमान् सत्यविक्रम:।। (वायुपुराण-पूर्वार्ध- ६० / ७३) श्रीमहादेव जी पवनसुत अंजनीनंदन, सत...
अंजनीगर्भसम्भूतो हनुमान् पवनात्मज:।
यदा जातो महादेवो हनुमान् सत्यविक्रम:।।
(वायुपुराण-पूर्वार्ध- ६० / ७३)
श्रीमहादेव जी पवनसुत अंजनीनंदन, सत्य-विक्रमी श्री हनुमान के रूप में अवतीर्ण हुए।
एक बार भगवान् शंकर भगवती सती के साथ कैलास-पर्वत पर विराजमान थे। प्रसंगवश भगवान् शंकर ने सती से कहा- ‘प्रिये ! जिनके नामों को रट रटकर मैं गद्गद होता रहता हूँ, वे ही मेरे प्रभु अवतार धारण करके संसार में आ रहे हैं।
सभी देवता उनके साथ अवतार ग्रहण करके उनकी सेवा का सुयोग प्राप्त करना चाहते हैं, तब मैं ही उससे क्यों वंचित रहूँ ? मैं भी वहीं चलूँ और उनकी सेवा करके अपनी युग-युग की लालसा पूरी करूँ।’
भगवान शंकर की यह बात सुनकर सती ने सोचकर कहा- ‘प्रभो ! भगवान् का अवतार इस बार रावण को मारने के लिए हो रहा है। रावण आपका अनन्य भक्त है। यहाँ तक कि उसने अपने सिरों को काटकर आपको समर्पित किया है। ऐसी स्थिति में आप उसको मारने के काम में कैसे सहयोग दे सकते हैं ?..यह सुनकर भगवान् शंकर हँसने लगे।
उन्होंने कहा- “देवि ! जैसे रावण ने मेरी भक्ति की है, वैसे ही उसने मेरे एक अंश की अवलेहना भी तो की है। तुम जानते ही हो कि मैं ग्यारह स्वरूपों में रहता हूँ। जब उसने अपने दस सर अर्पित कर मेरी पूजा की थी, तब उसने मेरे एक अंश को बिना पूजा किये ही छोड़ दिया था। अब मैं उसी अंश से उसके विरुद्ध युद्ध करके अपने प्रभु की सेवा कर सकता हूँ। मैंने वायु देवता के द्वारा अंजना के गर्भ से अवतार लेने का निश्चय किया है।” यह सुनकर भगवती सती प्रसन्न हो गयीं।
इस प्रकार भगवान् शंकर ही श्री हनुमान के रूप में अवतरित हुए, इस तथ्य की पुष्टि पुरानों की आख्यायिकाओं से होती है।
गोस्वामी तुलसीदास जी भी दोहावली - १४२ में लिखा है-
“जेहि सरीर रति राम सों सोइ आदरहीं सुजान।
रुद्रदेह तजि नेहबस बानर भे हनुमान।।”
सज्जन उसी शरीर का आदर करते हैं जिसको श्रीराम से प्रेम हो। इसी स्नेहवश रुद्रदेह त्यागकर, हनुमान जी ने वानर का शरीर धारण किया।
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