सकल कामना हीन जे राम भगति रस लीन। नाम सुप्रेम पियूष ह्रद तिन्हहुँ किए मन मीन॥

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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सकल कामना हीन जे राम भगति रस लीन।

नाम सुप्रेम पियूष ह्रद तिन्हहुँ किए मन मीन॥

  वे भगवान की भक्तिरूपी रस में रात-दिन तल्लीन रहते हैं, उनके किसी तरह की किन्च्निन्मात्र भी कोई कामना नहीं है. उनके कामना क्यों नहीं है ? नामरूपी एक बड़ा भारी अमृत का सरोवर है. उन्होंने अपने मन को उस सरोवर की मछली बना लिया है और हर समय भगवान के प्रेम में ही मतवाले रहते हैं।

 भगवान के प्रेमी भक्त चाहे परमात्मा के तत्त्व को न जानें, पर फिर भी वे परमात्मा की तरफ स्वाभाविक ही आकृष्ट हो जाते हैं. उनके मन में और कोई इच्छा नहीं रहती है. न तत्त्व को जानने की इच्छा है, न अपने दुःख दूर करने की इच्छा है और न कोई धनादि पदार्थों की इच्छा. किसी तरह की कोई लिप्सा नहीं. केवल भगवान के प्रेम में रात-दिन मस्त रहते हैं. इसके अलावा उनके कोई विचार ही नहीं उठता. उन्हें कुछ करना बाकी नहीं, कुछ जानना बाकी नहीं और कुछ पाना बाकी नहीं. स्वाभाविक ही उनका भगवान में प्रेम रहता है.

 प्रेमी लोग अपना अनुभव भी नहीं चाहते हैं. वे भगवान से प्यार करते हैं, केवल भगवान मीठे लगते हैं. इसलिए रात-दिन उसी में मस्त रहते हैं. वे मुक्ति की भी परवाह नहीं करते हैं. मुक्ति की परवाह वे करें, जिनके बंधन है. उनके बंधन दूसरा है ही नहीं. बंधन एक भगवान का ही है।

 विनोद में संत कहते हैं-

अब तो भोग मोक्ष की इच्छा व्याकुल कभी न करती है।

मुखड़ा ही नित नव बंधन है मुक्ति चरण से झरती है॥

उनको न तो संसार की इच्छा ही व्याकुल करती है और न मुक्ति की इच्छा व्याकुल करती है. भगवान का स्वरूप ही उनके लिए बंधन है. वह नित्य नया बंधन प्रिय लगता है।

 दिने दिने नवं नवं नमामि नन्दसम्भवम्

मुक्ति में आनंद शान्त एकरस रहता है। प्रेम में  प्रतिक्षणं वर्धमानम्  प्रतिक्षण आनंद बढ़ता ही रहता है।

मामेकमेव शरणमात्मानं सर्वदेहिनाम्।

याहि सर्वात्मभावेन मया स्या ह्यकुतोभयः।।

 सभी प्रकार की लौकिक, सामाजिक और धार्मिक परंपराओं का त्याग करो और सभी आत्माओं की परम आत्मा की शरण प्राप्त ग्रहण करो। केवल तभी तुम इस संसार रूपी महा सागर को पार कर सकोगे और सर्वथा निडर हो जाओगे।

भगवान श्री कृष्ण जी कहते हैं कि -

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दूरत्यया।

मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते॥

मेरी दिव्य शक्ति माया प्रकृति के तीन गुणों से निर्मित हैं और इसको पार करना अत्यंत कठिन है लेकिन वे जो मेरे शरणागत हो जाते हैं वे इसे सरलता से पार कर लेते हैं।

आनुकूलस्य सड्.कल्प प्रतिकूलस्य वर्जनम्

रक्षिष्यतीति विश्वासो गोप्तृत्वे वरणं तथा।

आत्मनिक्षेप कार्पण्ये षड्विधा शरणागति॥

  शरणागति सुगम होती है, जब अपने पर आफत आती है और अपने को कोई भी उपाय नहीं सूझता, तब हम भगवान्‌ के शरण होते हैं । उस समय हम जितना भगवान्‌ के आधीन होते हैं, उतना ही काम बहुत जल्दी बनता है । इसमें विधि की आवश्यकता नहीं है । बालक माँ को पुकारता है तो क्या कोई विधि पूछता है, या मुहूर्त पूछता है कि इस समय में रोना शुरू करूँ, यह सिद्ध होगा कि नहीं होगा अथवा ऐसा समय बाँधता है कि आधा घण्टा रोऊँ या दस मिनट रोऊँ; वह तो माँ नहीं मिले, तब तक रोता रहता है । इस माँ के मिलने में सन्देह है । यह माँ मर गयी हो या कहीं दूर चली गयी हो तो कैसे आवेगी ?  

  पर ठाकुरजी तो सर्वतः श्रुतिमल्लोके सब जगह सुनते हैं । इसलिये ‘हे नाथ ! हे नाथ ! मैं आपकी शरण हूँ’‒ऐसे भगवान्‌ के शरण हो जायँ, उनके आश्रित हो जायँ । इसमें अगर कोई बाधक है तो वह है अपनी बुद्धि का, अपने वर्ण का, अपने आश्रम का, अपनी योग्यता-विद्या आदि का अभिमान । भीत रमें उनका सहारा रहता है कि मैं ऐसा काम कर सकता हूँ । जब तक यह बल, बुद्धि, योग्यता आदि को अपनी मानता रहता है, तबतक सच्ची शरण हो नहीं सकता । इसलिये इनके अभिमान से रहित होकर चाहे कोई शरण हो जाय और जब कभी हो जाय, उसी वक्त उसका बेड़ा पार है ।

 भगवान्‌ के प्रेमी भक्त चाहे परमात्मा के तत्त्वको न जानें, पर फिर भी वे परमात्मा की तरफ स्वाभाविक ही आकृष्ट हो जाते हैं । उनके मन में और कोई इच्छा नहीं रहती है । न तत्त्वको जानने की इच्छा है, न अपने दुःख दूर करने की इच्छा है और न कोई धनादि पदार्थों की इच्छा है । किसी तरह की कोई लिप्सा नहीं । केवल भगवान्‌ के प्रेम में रात-दिन मस्त रहते हैं । इसके अलावा उनके कोई विचार ही नहीं उठता । उन्हें कुछ करना बाकी नहीं, कुछ जानना बाकी नहीं और कुछ पाना बाकी नहीं । स्वाभाविक ही उनका भगवान्‌ में प्रेम रहता है ।

सो दासी रघुबीर कै समुझें मिथ्या सोपि।

छूट न राम कृपा बिनु नाथ कहउँ पद रोपि॥

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