क्या विकारयुक्त प्रेम से भी भगवत्प्राप्ति सम्भव है ?

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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 वेद पर प्रामाण्य बुद्धि करवाने के लिए ब्राह्मण की सेवा है। क्योंकि इनकी परंपरा ने वेद को धारण किया है, वेद के संस्कार को धारण किया है। इसीलिए अंतरंग साधन के अन्तर्गत ब्राह्मण-सेवा आयेगी। और बहिरंग साधन के अंतर्गत साधु की सेवा आती है क्योंकि त्याग-वैराग्य पर श्रद्धा कराने के लिए लिए साधु-सेवा है। अतः साधु किसी भी जाति का हो, लेकिन त्यागी-वैरागी हो तो उसका आदर करना चाहिए; लेकिन वह बहिरंग साधन का आदर हुआ। और वेद जो है उसको धारण करने के कारण, उपनिषद् को धारण करने के कारण ब्राह्मण की सेवा है, माने अंतरंग जो प्रमाण है श्रवण आदि, उसके प्रति आदर भाव करना है। यह बड़ी अद्भुत गति है। इसीलिए ब्राह्मण, साधु एक साथ- आदर के पात्र हैं। अब गंगा स्नान में यह मालूम हो कि यह गंगा है या न मालूम हो- नहाने से हृदय पवित्र होगा। जिस दिन बाद में भी मालूम होगा कि मैंने जिसके वैतरणी समझकर स्नान किया था वह तो गंगा भी उसी दिन हृदय पवित्र हो जाएगा। वैतरणी भी एक नदी है। उड़ीसा में वैतरिणी पार करके तब जगन्नाथपुरी जाते हैं। 

 और महाराज इधर भी एक वैतरणी है कौन-सी? यही कर्म के दुराग्रह की प्रमाण और निषेध की अनिवार्यता की, इत्यादि। बात क्या हुई कि जब भगवान् आये हैं, भगवान् तुम्हारे बीच में खड़े हैं और वे इसीलिए आये हैं कि अब उनके साथ कर्म मत जोड़ो, अब उनके साथ नेति-नेति मत जोड़ो, उनको यह मत कहो कि सब वे ही हैं, पहचानों उनको वह अपनी पहचान कराने के लिए मोरमुकुट धारण करके, बाँसुरी हाथ में लेकर, पीताम्बर ओढ़कर नन्द-नन्दन, श्याम सुन्दर, मुरली मनोहर के रूप में आये हैं। जो लोग कहते हैं कि यह भाव है, कल्पना है, वे तो शास्त्र में जिस प्रयोजन से जिसका वर्णन है उस प्रयोजन का ही लोप कर देते हैं, शास्त्र में इस प्रयोजन से भगवान् के अवतार का वर्णन है कि यज्ञ भी, आचारहीन भी, ज्ञानहीन भी, भक्तिहीन भी उसका सहारा लेकर पार हो जाएँ। मगर उसके कल्पना-कल्पना करने वाले लोग उसका भाव कहाँ बनने देते हैं? 

कामं  क्रोधं  भयं  स्नेहमैक्यं सौहृदमेव च ।

  नित्यं हरौ विदधतो यान्ति तन्मयतां हि ते॥ 

 न  चैवं  विस्मयः कार्यो भवता भगवत्यजे ।

 योगेश्वरेश्वरे  कृष्णे   यत   एतद्  विमुच्यते॥

 अरे बाबा! जब आ गया वह, तो उसके साथ जुड़ो, यह मत देखो कि कैसे जुड़ते हैं? किसी बहाने से जुड़ जाओ। बोले- ए! गोपी कहाँ जा रही है? बोली- तुमसे मतलब? हम तो जमुना जल भरने जा रहे हैं। इधर कैसे रास्ता भूल गयी? राह भूल गयी इसीलिए निकल आयी। है न, नारायण! यह बताने की जरूरत कैसे भी हो। पूछा- अब क्यों लौट आयी? हमारी माला खो गयी, मोती की माला कहीं तुमने चुरायी तो नहीं? लो, आयी मिलने, और चोर बना दिया। फिर आ तो गयी न। 

 कामं क्रोधं, अरे महाराज कोई कामवश आया, पर आया कृष्ण के पास। वह महाराज, गाली देती हुई जटिला-कुटिला पहुँची। अरे, जो नन्द के छोरे। तू धर्म बिगाड़ने के लिए आया है हमारे गाँव में? अब महाराज पहुँची, तो देखकर कृष्ण बोले- आओ सासुजी! वैसे तो सब ठीक है न! यह आज इतना काजल आँख में के लगा लिये। और इतनी चमकती चम-चम क्यों आ रही हो? बोली- क्या तू समझता है कि मैं बुढ़िया हो गयी। अरे, नहीं, सासुजी। अभी तो तुम्हारी जवानी भर रही है? नारायण! वह भौहों तक काजल लगाकर वर्णन किया महात्मा लोगों ने, बड़े-बड़े महात्माओं ने जिनके जीवन में कोई संग्रह नहीं, परिग्रह नहीं, जिनके मन में कोई सांसारिक विषयसक्ति नहीं, उन्होंने वर्णन किया है- तुम्बी-लम्बि कुचासि, दर्दुरवधूवन्नासाग्नि के। कृष्ण ने कहा कि सासुजी तुम्हारी नाक कैसी? कि मेंढक जैसी। तुम्हारा वक्षःस्थल कैसा? कि तुम्बा जैसा ऐसे विरक्तों ने वर्णन किया। यह काजल कैसे तुम्हारे सासुजी! आज नाचती हुई क्यों चल रही हो। कृष्ण समझ गये कि ये अपनी बहू के लिए नहीं आयी है, अपनी बेटी के लिए नहीं आयी है, ये तो हमको देखने के लिए आयी है। बहाना बना रही है। कामं क्रोधं भयं स्नेहं- कोई डर से जाते हैं कि देखो, कृष्ण इस रास्ते न आना! कोई वात्सल्य करते हैं। ऐसा वर्णन आया है कि कृष्ण ने गोपी का आँचल पकड़ा तो गोपी ने कहा- "मुञ्चाश्चलं चञ्चल पश्य लोकं" अरे चञ्चल छोड़ दे आँचल! देख-देख, लोग कैसे देख रहे हैं। 

"बालोऽसि नालोकयसे कलंकम् ।" 

अभी तू बालक है, तुम्हें तो मालूम नहीं कि कलंक लग जाएगा। कृष्ण हट गये और छोड़ दिया आँचल। पर जब छोड़ दिया तब ? 

"भावं न जानासि विलासिनीनाम्" 

 मूर्ख हैं यह तो, छोड़ने का मतलब छोड़ना नहीं था। अभी क्या मालूम तुमको? "गोपाल गोपालनपण्डितोऽसि" 

अरे ग्वाले। अभी तुझे गाय चराना आता है, अभी तुझे श्रृंगार रस नहीं आता है। स्नेह रस दिया यशोदा मैया ने! पूछा, कितना माखन लेगा बेटा? बताने का ढंग ही न्यारा है। तो चाहे कैसे भी हो, काम हो कुब्जा की तरह, क्रोध हो शिशुपाल की तरह, भय हो कंस की तरह, सोते-उठते-जागते-चलते लड़खड़ाता था कंस, चौकन्ना रहता था, अपनी परछाईं देखकर कंस डरता था कि कहीं कृष्ण न आ गया हो। यदुवंशी लोग कहते थे कि कृष्ण हमारा है, पाण्डव लोग कहते थे कि हमारा संबंधी है। नारद कहते थे कि हमारा ईश्वर है। लेकिन फल क्या होता था? जिसके मन में जो भाव, कृष्ण के प्रति आया, तन्मयता आ गयी- यान्ति तन्मयतां हिते। अपने आपको भूल गये। तन्मय हो गये। इसलिए- 

न चैवं विस्मयः कार्यो भवता भगवत्यजे ।

  योगेश्वरेश्वरे  कृष्णे  यत  एतद्  विमुच्यते ॥ 

  इसलिए श्रीकृष्ण से प्रेम करके कोई अज्ञानी भी मुक्त हो गया, उनको प्यार समझकर मुक्त हो गया- जार समझकर मुक्त हो गया। श्रीधरस्वामी ने एक टिप्पणी जड़ी है इस प्रसंग में वे कहते हैं- जीवेषु आवृतं ब्रह्मत्वम्। ये जो जीव हैं, इनमें ब्रह्मत्व आवृत है, आवरण भंग नहीं हुआ है, परंतु कृष्णे तु अनावृतं ब्रह्मत्वं- श्रीकृष्ण में तो आवरण का प्रादुर्भाव भी नहीं हैं, उनमें पहले आवरण हुआ हो और भंग हुआ हो, ऐसा नहीं है, वे तो अनावृत ब्रह्म हैं। फिर जीवन्मुक्त और कृष्ण मुक्त में क्या फर्क? जीवन्मुक्त भी ब्रह्म है, परंतु जीवन्मुक्त में पहले आवरण था, ज्ञान से भंग हुआ तब उसने अपने को ब्रह्म जाना और कृष्ण में कभी आवरण हुआ ही नहीं- कृष्णे अनावृतं ब्रह्मत्वं। इसलिए वस्तु का ज्ञान न होवे और साधन प्रणाली न हो, निस्साधन हो तो जैसे जो लोग समर्थ होते हैं वे तो दिल्ली जाकर राष्ट्रपति का दर्शन करते हैं और जो लोग वहाँ नहीं जा सकते, उनको दर्शन देने के लिए राष्ट्रपति स्यवं बंबई आते हैं, उसी प्रकार ज्ञानी, भक्त तो ईश्वर के साधन से संपन्न है, तो ईश्वर के पास जाकर ईश्वर से मिलते हैं और जिनके पास साधन-संपत्ति नही हैं, उनसे मिलने के लिए स्वयं ईश्वर आता है। कहीं विस्मय नहीं करना, ये परम सुन्दर, परम मधुर, परम सुशील, परम उदार कृष्ण आये हैं गोपियों के लिए। अब वह यह देखेंगे कि क्या वे खाने के बाद हाथ धोकर आयी हैं कि नहीं ?

विकारयुक्त प्रेम से भी भगवत्प्राप्ति सम्भव है।

 - स्वामी अखंडानंद सरस्वती

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