रवीन्द्रनाथ टैगोर और नोबेल पुरस्कार

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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ravindra nath tagore in forign
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 रवींद्रनाथ ने एक स्मरण लिखा है। जब वे पहली—पहली बार पश्चिम से प्रसिद्ध हो कर लौटे, नोबल प्राइज ले कर लौटे, तो जगह—जगह उनके स्वागत हुए। लोगों ने बड़ा सम्मान किया।

 जब वे अपने घर आये तो उनके पड़ोस में एक आदमी था, वह उनको मिलने को आया। उस आदमी से वे पहले से ही कुछ बेचैन थे, कभी मिलने आया भी न था। लेकिन उस आदमी की आंख ही बेचैन करती थी। उस आदमी की आंख में कुछ तलवार जैसी धार थी कि सीधे हृदय में उतर जाये। वह आया और गौर से उनकी आंख में आंख डाल कर देखने लगा। वे तो तिलमिला गये। और उसने उनके कंधे पकड़ लिये और जोर से हिलाकर कहा, तुझे सच में ही ईश्वर का अनुभव हुआ है? क्योंकि गीतांजलि, जिस पर उन्हें नोबल पुरस्कार मिला, प्रभु के गीत हैं, उपनिषद जैसे वचन हैं। उस आदमी ने उनको तिलमिला दिया।

 कहा, सच में ही तुझे ईश्वर का दर्शन हुआ है? क्रोध भी उन्हें आया। वह अपमानजनक भी लगा। लेकिन उस आदमी की आंखों की धार कुछ ऐसी थी कि झूठ भी न बोल सके और वह आदमी हंसने लगा और उसकी हंसी और भी गहरे तक घाव कर गई। और वह आदमी कहने लगा, तुझे मुझमें ईश्वर दिखाई पड़ता है कि नहीं 2: यह और मुश्किल बात थी। उसमें तो कतई नहीं दिखाई पड़ता था, और सब में दिखाई पड़ भी जाता। जो फूलमालायें ले कर आये थे, जिन्होंने स्वागत किया था, सम्मान में गीत गाये थे, नाटक खेले थे, नृत्य किये थे—उनमें शायद दिख भी जाता। वे बड़े प्रीतिकर दर्पण थे। यह आदमी! वह आदमी खिलखिलाता, उन्हें छोड्कर लौट भी गया।

 रवींद्रनाथ ने लिखा है, उस रात मैं सो न सका। मुझे मेरे ही गाये गये गीत झूठे मालूम पड़ने लगे। रात सपने में भी उसकी आंख मुझे छेदती रही। वह मुझे घेरे रहा। दूसरे दिन सुबह जल्दी ही उठ आया। आकाश में बादल घिरे थे, रात वर्षा भी हुई थी। जगह—जगह सड़क के किनारे डबरे भर गये थे। मैं समुद्र की तरफ गया—मन बहलाने को। लौटता था, तब सूरज उगने लगा। विराट सागर पर उगते सूरज को देखा। फिर राह पर जब घर वापिस आने लगा तो राह के किनारे गंदे डबरों में, जिनमें भैंसें लोट रही थीं, लोगों ने जिनके आस—पास मलमूत्र किया था, वहां भी सूरज के प्रतिबिंब को देखा। अचानक आंख खुल गई। मैं ठिठक कर खड़ा हो गया कि क्या इन गंदे डबरों में जो प्रतिबिंब बन रहा है सूरज का, वह गंदा हो गया? विराट सागर में जो बन रहा है, क्या विराट हो गया? क्षुद्र डबरे में जो बन रहा है, क्या क्षुद्र हो गया? प्रतिबिंब तो एक के हैं।

 रवींद्रनाथ ने लिखा है, जैसे सोये से कोई जग जाये, जैसे अंधेरे में बिजली कौंध जाये, ऐसा मैं नाचता हुआ उस आदमी के घर पहुंचा। उसे गले लगा लिया। उसमें भी मुझे प्रभु दिखाई पड़ा। प्रतिबिंब तो उसका ही है। चाहे तेज तलवार की धार क्यों न हो, वह धार तो उसी की है। चाहे फूल की कोमलता क्यों न हो, कोमलता तो उसी की है।

 वह आदमी फिर मेरी तरफ गौर से देखा, लेकिन आज मुझे उसमें वैसी पैनी धार न दिखाई पड़ी। आज मैं बदल गया था। और वह आदमी कहने लगा, तो निश्चित तुझे अनुभव हुआ है। अभी—अभी हुआ है, कल तक न हुआ था। अभी—अभी तूने कुछ जाना है, तू जागा है। मैं तेरा स्वागत करता हूं। नोबल पुरस्कार के कारण नहीं, न तेरे गीतों की प्रसिद्धि के कारण—अब तू शांता बन कर लौटा है; तुझे कुछ स्वाद मिला, तूने कुछ चखा है।

अष्टावक्र कहते हैं ‘क्या कंगना, बाजूबंद, नूपुर सोने से भिन्न भासते हैं?’

 सोने के कितने आभूषण बन जाते हैं, ऐसे ही परमात्मा के कितने रूप बनते! रावण भी उसका ही रूप। अगर रामकथा पढ़ी और रावण में उसका रूप न दिखा तो रामकथा व्यर्थ गयी। अगर राम में ही दिखा और रावण में न दिखा तो तुमने व्यर्थ ही सिर मारा। तो द्वार न खुले। रामकथा लोग पढ़ते हैं, रामलीला देखते हैं और रावण को जलाये जाते हैं। समझे नहीं। बात ही पकड़ में नहीं आई, चूक ही गए। अगर राम में ही राम दिखाई पड़े तो तुम्हारे पास आंखें नहीं हैं। जिस दिन रावण में भी दिखाई पड़ जायें, उसी दिन तुम्हारी आंखें खुलीं। शुभ में शुभ दिखाई पड़े’, यह कोई बड़ा गुण है। अशुभ में भी शुभ दिखाई पड़ जाये तब ?.।

 सब आभूषण उस एक के ही हैं। कहीं राम हो कर, कहीं रावण हो कर; कहीं कृष्ण, कहीं कंस कहीं जीसस, कहीं जुदास; कहीं प्रीतिकर, कहीं अप्रीतिकर; कहीं फूल, कहीं कांटा—लेकिन कांटा भी उसका ही रूप है। और जब कांटा चुभे तब भी उसे स्मरण करना। तो तुम धीरे— धीरे पाओगे, एकरस होने लगे। जो एक को देखने लगता है वह एकरस होने लगता है। जो एकरस होने लगता है, उसे फिर एक दिखाई पड़ने लगता है।

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