चीन में एक बड़ी पुरानी कथा है। एक सम्राट का बेटा मरता था। वो इकलौता बेटा था। आखिरी घड़ी करीब थी; चिकित्सकों ने कहा, बच न सकेगा अब। तो तीन दिन...
चीन में एक बड़ी पुरानी कथा है। एक सम्राट का बेटा मरता था। वो इकलौता बेटा था। आखिरी घड़ी करीब थी; चिकित्सकों ने कहा, बच न सकेगा अब। तो तीन दिन से सम्राट सोया ही नहीं, उसके पास बैठा है। आखिरी सांस घिसटती है। कभी भी टूट सकती है। बड़ा प्यारा बेटा है। इकलौता है। इसके ऊपर सारी आशाएं थीं, सारे सपने थे। यही भविष्य था। बूढ़ा सम्राट रोता है। लेकिन कुछ करने का उपाय नहीं। सब किया जा चुका है। कोई दवा काम नहीं आती, कोई चिकित्सक जीत नहीं पाता। बीमारी असाध्य है। मृत्यु होगी ही।
चौथी रात सम्राट बैठा है। तीन रात सोया नहीं–झपकी आ गयी। सपना देखा एक बड़ा…कि बड़े स्वर्ण-महल हैं…सारी पृथ्वी पर चक्रवर्ती राज्य है उसका…एकछत्र राज्य है…बारह सुंदर, स्वस्थ, युवा उसके बेटे हैं…उनके शरीर का सौष्ठव, उनके बुद्धि की प्रतिभा की कोई तुलना नहीं है…हीर-जवाहरात उसके महल की सीढ़ियों पर जड़े हैं…अपार संपदा है…वह बड़े सुख में…गहन सुख में…कोई दुख नहीं है…जब वे ऐसा सपना देख रहा है, तभी पत्नी छाती पीट के रोयी। लड़का मर चुका है। नींद टूट गयी। सामने पड़ी लाश देखी। अभी-अभी सपने में जाते, विदा होते महल–स्वर्ण के, चमकते हुए; वे बारह पुत्र–उनकी सुंदर सौष्ठव देह, उनकी प्रतिभा; आनंद की वो आखिरी झलक जो अभी सपने ने पैदा की थी, वो अभी मौजूद थी। और इधर बेटा मर गया। इधर चीख-पुकार मची। सम्राट किर्कत्तव्यविमूढ़ हो गया। कुछ सोच न पाया। एक क्षण को ठगा सा रह गया। पत्नी समझी कि कहीं पागल तो नहीं हो गया–आंख से आंसू न गिरा, ओंठ से चीख न निकली, दुख का एक शब्द न उठा, एक आह न प्रकट हुई। पत्नी घबड़ायी। उसने पति को हिलाया कि तुम्हें क्या हो गया? पता था कि बेटे का दुख भारी होगा। कहीं विक्षिप्त तो नहीं हो गया! कहीं पागल तो नहीं हो गया! ऐसा सुन्न क्यों हो गए हो? बोलो कुछ। पति हंसने लगा। उसने कहा, मैं बड़ी दुविधा में पड़ गया हूं। किसके लिए रोऊं? अभी बारह सुंदर युवक मेरे बेटे थे, स्वर्ण के महल थे, सब सुख था, वह अचानक टूट गया। उन बारह के लिए रोऊं जो मर गए, या इस एक के लिए रोऊं जो मर गया? क्योंकि जब मैं उन बारह के साथ था, इस एक को भूल ही गया था। पता ही न था कि मेरा कोई बेटा है। अब इस एक के पास हूं, उन बारह को भूल गया हूं। सच कौन है?
सहजो सुपने एक पल, बीतैं बरस पचास–स्वप्न में एक क्षण में पचास वर्ष जीवन के बीत जाते हैं। तुम्हारे जीवन के पचास वर्ष भी सुपने के एक पल से ज्यादा नहीं हैं। कितने लोग इस जीवन में रहे हैं। कितने अनंत लोग इस पृथ्वी पर हुए हैं। उन्होंने भी ऐसे ही सपने देखे थे, जैसा तुम देखते हो। उन्होंने भी ऐसी ही महत्वाकांक्षाएं पाली थीं, जैसी तुम पालते हो। उन्होंने भी पद और प्रतिष्ठा के लिए ऐसी ही दौड़ साधी थी। वे भी लड़े थे, मरे थे। उन्होंने भी सुख-दुख पाए थे, मित्र-शत्रु बनाये थे, अपने-पराये माने थे। फिर सब विदा हो गए। वैज्ञानिक कहते हैं, जिस जगह पर तुम बैठे हो, जिस जगह पर एक आदमी खड़ा है, उस पर कम से कम दस लोगों की लाशें दबी हैं। उस जमीन में कोई दस लोग मर के मिट्टी हो चुके हैं। तुम भी उन्हीं दस लोगों की धूल में आज नहीं कल समाविष्ट हो जाओगे। धूल रह जाती है अखरी में, सब सपने उड़ जाते हैं। मिट्टी-मिट्टी में गिर जाती है। दो मिट्टियों के बीच ये जो थोड़ी देर के लिए सपने का संसार है, संदेह करना हो इस पर करो। और आश्चर्य है कि लोग इस पर तो संदेह नहीं करते, शाश्वत पर संदेह करते हैं।
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