विश्वनाथ मम नाथ पुरारी। त्रिभुवन महिमा बिदित तुम्हारी।। चर अरु अचर नाग नर देवा। सकल करहिं पद पंकज सेवा।।

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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विश्वनाथ मम नाथ पुरारी।

त्रिभुवन महिमा बिदित तुम्हारी।।

चर अरु अचर नाग नर देवा।

सकल करहिं पद पंकज सेवा।।

 भगवान् शिव जगत् के गुरू हैं, सर्व प्रथम शिवजी ने ही कहा था कि कल्पना ज्ञान से ज्यादा महत्वपूर्ण है, हम जैसी कल्पना और विचार करते हैं, वैसे ही हो जाते हैं, शिवजी ने इस आधार पर ध्यान की कई विधियों का विकास किया, भगवान् शिवजी दुनिया के सभी धर्मों का मूल हैं, शिवजी के दर्शन दुनिया के हर धर्म और उनके ग्रंथों में अलग-अलग रूपों में विद्यमान है।

 हजारों वर्ष पूर्व वराह काल की शुरुआत में जब देवी-देवताओं ने धरती पर कदम रखे थे, तब उस काल में धरती हिमयुग की चपेट में थी, उस दौरान भगवान् शंकर ने धरती के केंद्र कैलाश को अपना निवास स्थान बनाया, भगवान् विष्णु ने समुद्र को और ब्रह्मा ने नदी के किनारे को अपना स्थान बनाया था।

 पुराण कहते हैं कि जहां पर शिवजी विराजमान हैं उस पर्वत के ठीक नीचे पाताल लोक है, जो भगवान् विष्णुजी का स्थान है, शिवजी के आसन के ऊपर वायुमंडल के पार क्रमश: स्वर्ग लोक और फिर ब्रह्माजी का स्थान है, जबकि धरती पर कुछ भी नहीं था, इन तीनों देवताओं से सब कुछ हो गया।

 वैज्ञानिकों का मानना है कि तिब्बत धरती की सबसे प्राचीन भूमि है, और पुरातनकाल में इसके चारों ओर समुद्र हुआ करता था, फिर जब समुद्र हटा तो अन्य धरती का प्रकटन हुआ और इस तरह धीरे-धीरे जीवन भी फैलता गया, सर्वप्रथम भगवान् शिव ने ही धरती पर जीवन के प्रचार-प्रसार का प्रयास किया इसलिये उन्हें आदि देव भी कहा जाता है।

 आदि का अर्थ प्रारंभ, शिव को आदिनाथ भी कहा जाता है, आदिनाथ होने के कारण उनका एक नाम आदिश भी है, इस आदिश शब्द से ही आदेश शब्द बना है, नाथ साधु सम्प्रदाय के साधु जब एक-दूसरे से मिलते हैं तो कहते हैं- आदेश! भगवान् शिवजी के अलावा ब्रह्मा और विष्णु ने संपूर्ण धरती पर जीवन की उत्पत्ति और पालन का कार्य किया।

 सभी ने मिलकर धरती को रहने लायक बनाया और यहां देवता, दैत्य, दानव, गंधर्व, यक्ष और मनुष्य की आबादी को बढ़ाया, ऐसी मान्यता है कि महाभारत काल तक देवता धरती पर रहते थे, महाभारत के बाद सभी अपने-अपने धाम चले गयें, कलयुग के प्रारंभ होने के बाद देवता बस विग्रह रूप में ही रह गये, अत: उनके विग्रहों की पूजा की जाती है।

 वैदिक काल के रुद्र और उनके अन्य स्वरूप तथा जीवन दर्शन को पुराणों में विस्तार मिला, वेद जिन्हें रुद्र कहते हैं, पुराण उन्हें शंकर और महेश कहते हैं, वराह काल के पूर्व के कालों में भी शिव थे। उन कालों की शिव की गाथा अलग है, देवताओं की दैत्यों से प्रतिस्पर्धा चलती रहती थी, ऐसे में जब भी देवताओं पर घोर संकट आता था तो वे सभी देवाधिदेव महादेव के पास जाते थे।

 दैत्यों, राक्षसों सहित देवताओं ने भी शिव को कई बार चुनौती दी, लेकिन वे सभी परास्त होकर शिवजी के समक्ष झुक गयें, इसीलिये शिवजी हैं देवों के देव महादेव, भगवान् शिवजी दैत्यों, दानवों और भूतों के भी प्रिय भगवान हैं, धर्म ग्रन्थों के अनुसार सतयुग में विशालकाय मानव हुआ करते थे, बाद में त्रेतायुग में इनकी प्रजाति नष्ट हो गई।

 पुराणों के अनुसार पृथ्वी पर दैत्य, दानव, राक्षस और असुरों की जाति का अस्तित्व था, जो इतनी ही विशालकाय हुआ करते थे, ब्रह्माजी ने मनुष्यों में शांति स्थापित करने के लिए विशेष आकार के मनुष्यों की रचना की थी, विशेष आकार के मनुष्यों की रचना एक ही बार हुई थी, ये लोग काफी शक्तिशाली होते थे और पेड़ तक को अपनी भुजाओं से उखाड़ सकते थे।

 लेकिन इन लोगों ने अपनी शक्ति का दुरुपयोग करना शुरू कर दिया और आपस में लड़ने के बाद देवताओं को ही चुनौती देने लगे, अंत में भगवान् शंकरजी ने सभी को मार डाला और उसके बाद ऐसे लोगों की रचना फिर नहीं की गई।

 भगवान शिवजी ने जिस धनुष को बनाया था उसकी टंकार से ही बादल फट जाते थे और पर्वत हिलने लगते थे। ऐसा लगता था मानो भूकंप आ गया हो, यह धनुष बहुत ही शक्तिशाली था, इसी के एक तीर से त्रिपुरासुर की तीनों नगरियों को ध्वस्त कर दिया गया था, इस धनुष का नाम पिनाक था, देवी-देवताओं के काल की समाप्ति के बाद इस धनुष को देवरात को सौंप दिया गया था, उल्लेखनीय है कि राजा दक्ष के यज्ञ में यज्ञ का भाग शिव को नहीं देने के कारण भगवान् शंकरजी बहुत क्रोधित हो गये थे, और उन्होंने सभी देवताओं को अपने पिनाक धनुष से नष्ट करने की ठानी, एक टंकार से धरती का वातावरण भयानक हो गया, बड़ी मुश्किल से उनका क्रोध शांत किया गया, तब उन्होंने यह धनुष देवताओं को दे दिया, देवताओं ने राजा जनक के पूर्वज देवरात को दे दिया, राजा जनक के पूर्वजों में निमि के ज्येष्ठ पुत्र देवरात थे, शिव-धनुष उन्हीं की धरोहरस्वरूप राजा जनक के पास सुरक्षित था।

 इस धनुष को भगवान् शंकरजी ने स्वयं अपने हाथों से बनाया था, उनके इस विशालकाय धनुष को कोई भी उठाने की क्षमता नहीं रखता था, लेकिन प्रभु रामजी ने इसे उठाकर इसकी प्रत्यंचा चढ़ाई और इसे एक झटके में तोड़ दिया, चक्र को छोटा, लेकिन सबसे अचूक अस्त्र माना जाता था, सभी देवी-देवताओं के पास अपने-अपने अलग-अलग चक्र होते थे। उन सभी के अलग-अलग नाम थे, शंकरजी के चक्र का नाम भवरेंदु, विष्णुजी के चक्र का नाम कांता चक्र और देवी का चक्र मृत्यु मंजरी के नाम से जाना जाता था, सुदर्शन चक्र का नाम भगवान कृष्ण के नाम के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है, यह बहुत कम ही लोग जानते हैं कि सुदर्शन चक्र का निर्माण भगवान् शंकरजी ने किया था।

 प्राचीन और प्रामाणिक शास्त्रों के अनुसार इसका निर्माण भगवान् शंकरजी ने ही किया था। निर्माण के बाद भगवान् शिवजी ने इसे श्रीविष्णु को सौंप दिया था, जरूरत पड़ने पर श्रीविष्णु ने इसे देवी पार्वतीजी को प्रदान कर दिया, पार्वतीजी ने इसे परशुरामजी को दे दिया, और भगवान कृष्ण को यह सुदर्शन चक्र परशुरामजी से मिला, इस तरह भगवान शिव के पास कई अस्त्र-शस्त्र थे लेकिन उन्होंने अपने सभी अस्त्र-शस्त्र देवताओं को सौंप दियें।

 उनके पास सिर्फ एक त्रिशूल ही होता था, यह बहुत ही अचूक और घातक अस्त्र था, त्रिशूल तीन प्रकार के कष्टों दैनिक, दैविक, भौतिक के विनाश का सूचक है, इसमें तीन तरह की शक्तियां हैं- सत, रज और तम, वैज्ञानिक भाषा में इसे प्रोटॉन, न्यूट्रॉन और इलेक्ट्रॉन कहते हैं, इसके अलावा पाशुपतास्त्र भी शिवजी का अस्त्र है।

 भगवान् शिवजी को नागवंशियों से घनिष्ठ लगाव था, नाग कुल के सभी लोग शिवजी के क्षेत्र हिमालय में ही रहते थे, कश्मीर का अनंतनाग इन नागवंशियों का गढ़ था, नागकुल के सभी लोग शैव धर्म का पालन करते थे, नागों के प्रारंभ में पाँच कुल हुआ करते थे- शेषनाग यानी अनंत, वासुकी, तक्षक, पिंगला और कर्कोटक, ये शोध के विषय हैं कि ये लोग सर्प थे या मानव या आधे सर्प और आधे मानव?

 हालांकि इन सभी को देवताओं की श्रेणी में रखा गया है तो निश्चित ही ये मनुष्य नहीं होंगे, नाग वंशावलियों में शेषनाग को नागों का प्रथम राजा माना जाता है, शेषनाग को ही अनंत नाम से भी जाना जाता है, ये भगवान श्रीविष्णु के सेवक थे, इसी तरह आगे चलकर शेष के बाद वासुकी हुये, जो शिवजी के सेवक बने, फिर तक्षक और पिंगला ने राज्य संभाला, वासुकी का कैलाश पर्वत के पास ही राज्य था।

 मान्यता है कि तक्षक ने ही तक्षकशिला यानी तक्षशिला नामक नगरी बसाकर अपने नाम से तक्षक कुल चलाया था, उक्त पांचों नाग वंश की गाथायें पुराणों में पाई जाती हैं, उनके बाद ही कर्कोटक, ऐरावत, धृतराष्ट्र, अनत, अहि, मनिभद्र, अलापत्र, कम्बल, अंशतर, धनंजय, कालिया, सौंफू, दौद्धिया, काली, तखतू, धूमल, फाहल, काना इत्यादि नाम से नागों के वंश हुयें, जिनके पृथ्वी के भिन्न-भिन्न इलाकों में इनका राज्य था।

 शिवजी ने अपनी अर्धांगिनी पार्वतीजी को मोक्ष हेतु अमरनाथ की गुफा में जो ज्ञान दिया, उस ज्ञान की आज अनेकानेक शाखायें हो चली हैं, वह ज्ञानयोग और तंत्र के मूल सूत्रों में शामिल है, ‘विज्ञान भैरव तंत्र’ एक ऐसा ग्रंथ है जिसमें भगवान शिव द्वारा पार्वती को बताये गये एक सौ बारह ध्यान सूत्रों का संकलन है, योगशास्त्र के प्रवर्तक भगवान् शिवजी के विज्ञान भैरव तंत्र और शिव संहिता में उनकी संपूर्ण शिक्षा और दीक्षा समाई हुई है।

 तंत्र के अनेक ग्रंथों में उनकी शिक्षा का विस्तार हुआ है, भगवान् शिव के योग को तंत्र या वामयोग कहते हैं, इसी की एक शाखा हठयोग की है, भगवान् शिवजी कहते हैं- "वामो मार्ग: परमगहनो योगितामप्यगम्य:" अर्थात वाम मार्ग अत्यंत गहन है और योगियों के लिये भी अगम्य है, इस प्रकार शिवजी की भक्ति और पूजा से सांसारिक सभी व्याधियां समाप्त हो जाती है।

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