उमा संत कइ इहइ बड़ाई। मंद करत जो करइ भलाई॥ तुम्ह पितु सरिस भलेहिं मोहि मारा। रामु भजें हित नाथ तुम्हारा॥

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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  शिवजी कहते हैं- हे उमा, संत की यही बड़ाई (महिमा) है कि वे बुराई करने पर भी (बुराई करने वाले की) भलाई ही करते हैं। विभीषणजी ने कहा- लंका नरेश रावण से कहा कि आप मेरे पिता के समान हैं, मुझे मारा सो तो अच्छा ही किया, परंतु हे नाथ! आपका भला श्री रामजी को भजने में ही है॥

अपने साथ बुरा बर्ताव करने वालों का भी संत भला ही करते हैं । इसलिये नीति में भी आया है‒

निष्पीडितोऽपि मधुरं वमति इक्षुदण्डः

 गन्ना (ऊख ) को कोल्हू में पेरा जाय तो भी वह मीठा-ही-मीठा रस सबको देता है । ऐसा नहीं कि इतना तंग करता है तो कड़वा बन जाऊँ , वह मीठा ही निकलता है; क्योंकि उसमें भरा हुआ रस मीठा ही है । ऐसे ही सन्त-महात्माओं को दुःख दें तो भी वे भलाई ही करते हैं; क्योंकि उनमें भलाई-ही-भलाई भरी हुई है, यह विलक्षण बात है कि भगवान्‌ स्वाभाविक ही सबका हित करने वाले है । भगवान्‌ का भजन करने से, मन लगाने से, ध्यान करने से, भगवान्‌ का नाम लेने से भजन करने वालों‌ में भी भगवान्‌ के गुण आ जाते हैं अर्थात्‌ वे विशेष प्रभावशाली हो जाते हैं । नाम-जप से उनमें भी विलक्षणता आ जाती है ।

भगवान श्री कृष्ण जी गीता में कहते हैं कि -

बहूनां  जन्मनामन्ते  ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।

 वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः॥

  बहुत जन्मों के अन्त में (किसी एक जन्म विशेष में) ज्ञान को प्राप्त होकर कि 'यह सब वासुदेव है' ज्ञानी भक्त मुझे प्राप्त होता है; ऐसा महात्मा अति दुर्लभ है।।

यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः।

 हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो   यः  स  च  मे  प्रियः॥

भक्त सर्वत्र और सबमें अपने परमप्रिय प्रभुको ही देखता है। अतः उसकी दृष्टि में मन, वाणी और शरीरसे होनेवाली सम्पूर्ण क्रियाएँ एकमात्र भगवान्की प्रसन्नता के लिये ही होती है। भक्त प्राणिमात्र में भगवान् की ही देखता है।

 उसकी मात्र क्रियाएँ स्वभावतः प्राणियों के परमहित के लिये ही होती हैं। उसके द्वारा कभी भूल से भी किसी के अहित की चेष्टा नहीं होती। जिनको उससे उद्वेग होता है, वह उनके अपने राग-द्वेषयुक्त आसुर स्वभाव के कारण ही होता है। अपने ही दोषयुक्त स्वभाव के कारण उनको भक्त की हितपूर्ण चेष्टाएँ भी उद्वेगजनक प्रतीत होती हैं। इसमें भक्त का क्या दोष ? भर्तृहरिजी कहते हैं।

मृगमीनसज्जनानां तृणजलसंतोषविहितवृत्तीनाम्।

 लुब्धकधीवरपिशुना     निष्कारणवैरिणो   जगति॥

हिरण, मछली और सज्जन क्रमशः तृण, जल और संतोष पर अपना जीवन-निर्वाह करते हैं (किसीको कुछ नहीं कहते) परन्तु व्याध, मछुए और दुष्टलोग अकारण ही इनसे वैर करते हैं।

  वास्तव में भक्तों द्वारा दूसरे मनुष्यों के उद्विग्न होने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता, प्रत्युत भक्तों के चरित्र में ऐसे प्रसङ्ग देखने में आते हैं कि उनसे द्वेष रखने वाले लोग भी उनके चिन्तन और सङ्ग-दर्शन-स्पर्ष-वार्तालाप के प्रभाव से अपना आसुर स्वभाव छोड़कर भक्त हो गये।

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