उद्दालक, श्वेतकेतु और प्रवाहण जैबल (१४/६/२/१)

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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 केवल कर्म से पितृलोक और ज्ञान संयुक्त कर्म से देव-लोक की प्राप्ति होती है। इस प्रकार कर्मफलभोग के दो मार्ग हैं। यही सम्पूर्णसंसार की गति का उपसंहार है। यहां पर पितृयान और देवयान का विवेचन कर देवयान की साधन स्वरूपा पचाग्नि विधा का निरूपण है। आरुणेय श्वेतकेतु पांचालों की परिषद् में पहुंचा। यह जैबल प्रवाहण के समीप गया जो कि परिचर्या कर रहा था। उसे देखकर प्रवाहण ने कहा, कुमार वह बोला भौः । प्रवाहण ने पूछा, क्या तेरे पिता ने तुझे शिक्षा दी हैं तब श्वेतकेतु बोला, हा । तब प्रवाहण ने छ प्रश्न किये।

 प्रजायें किस प्रकार से मरने पर विभिन्न मार्गों से जाती हैं। पुनः पुन बहुतों के पर जाने मर भी वह लोक क्यों नहीं मरता? कितनी बार आहुतियों के करने पर आप पुरूष शब्द वाच्य होकर उठता है और बोलने लगता है? क्या तू देवयान का अथवा पितृयान का कर्मरूप साधन जानता हू?- श्वेतकेतु ने हर बार नकारात्मक उत्तर ही दिया ।

 उसके अनन्तर राजा ने श्वेतकेतु से ठहरने के लिए प्रार्थना किया। किन्तु कुमार ठहरने की चिन्ता न करके चल दिया। वह अपने पिता के पास आया और कहा, आपने यही कहा था न कि आपने मुझे सब विषयों की शिक्षा देदी है। पिता ने कहा, सुमेध ! क्या हुआ? श्वेत० मुझसे एक राजन्य बन्धु ने पांच प्रश्न किये उनमें से मैं एक का भी उत्तर न दे सका। उद्दालक, वे प्रश्न कौन थे? श्वेतकेतु ने कहा सुनाया। उद्दालक, पुत्र तू ऐसा समझा कि मैं जो कुछ जानता था सो सब कुछ मैंने तुमसे कह सुनाया था। अब हम दोनों वहीं चलें और ब्रह्मचर्य पूर्वक उसके यहां निवास करे। श्वेत० ने कहा, आप ही जायं। तब वह उद्दालक प्रवाहण की परिषद् में गया। उसके लिए राजन ने आसन लगवाकर अहर्य दिया फिर कहा, मैं पूज्य गौतम को वर देता हूं। उद्दालक ने कहा, आपने जो वर देने की प्रतिज्ञा की है उसके अनुसार आपने कुमार से जो प्रश्न किया है, वह मुझसे कहें। प्रवाहण- तुम शास्त्रौत उसे पाने की इच्छा न करो। उद्दालक- मैं आपके पास शिष्य भाव से उपासना में हूँ। प्र०- गौतम । आपने पितामहों की भांति तुम मेरा अपराध न समझना। इससे पूर्व यह विद्या किसी ब्राह्मण के पास नहीं थी। उसमें तुझ ब्राह्मण के प्रति कहता हूं। इस प्रकार सविनय बोलने वाले तुमको

 निषेध करने में कौन समर्थ हो सकता है। गौतम द्युलोक अक्षि है आदित्य उसका समिध किरणें घूम दिन ज्वाला, दिशायें, अंगार और अबान्तर दिशाये चिनगारियां हैं। उस अग्नि मे देवगण श्रद्धा से हवन करते हैं, जिससे सोम राजा होता है। मेघ अग्नि है संवत्सर उसका समिध, अम्र, धूम, विद्युत ज्वाला, अशनि, अंगार और मेघगर्जन चिनगारियां हैं। उस अग्नि मे देवगण सोमराजा को हवन करते हैं। उससे वृष्टि होती है। यह लोक अग्नि है। पृथिवी उसका समिधा, अग्नि धूम, रात्रि ज्वाला, चन्द्रमा अंगार और नक्षत्र चिनगारिया होती हैं। इस अग्नि मे देवगण वीर्य का हवन करते हुए पुरूष की उत्पत्ति करते हैं। वह जीवित रहता है। जब तक कर्म शेष रहते हैं, वह जीवित रहता है और जब वह मरता है तो उसे अग्नि के पास ले जाते हैं। उसका अग्नि ही अग्नि होता है, समिध, समिधा होती है, ज्वाला ज्वाला होती है, अंगार अंगारे होते हैं । चिनगारिया चिनानारिया होती हैं। जो गृहस्थ पंचाग्नि को जानते हैं तथा जो बन में श्रद्धायुक्त होकर सत्य की उपासना करते हैं। वे ज्योति के अभिमानी देवताओं को प्राप्त होते हैं। ज्योति के अभिमानी देवो से दिन के अभिमानी देवता को उससे देवलोक को, देवलोक से आदित्य लोक को और आदित्य से विद्युत संबंधी देवताओं को प्राप्त होते हैं। उन वैद्युत देवों के पास एक मानस पुरुष आकर इन्हें ब्रह्मलोको मे ले जाता है। वे उन लोकों में अनन्त संवत्सर पर्यन्त रहते हैं। उनकी पुनरावृत्ति नहीं होती।

  जो यज्ञ, दान, तप करके लोको को जीतते हैं वे धूम को प्राप्त होते हैं। धूम से रात्रि देवता को और इसी प्रकार क्रमशः अपदायिमात्र पक्ष, दक्षिणयन, पितृलोक, चन्द्रमा के अभिमानी देवता को प्राप्त होते हैं। जब उनके कर्मक्षीण हो जाते हैं। देवगण उनका भक्षण करते हैं। जब उनके कर्मक्षीण हो जाते हैं तो वे आकाश को प्राप्त होते हैं। आकाश से वायु को, वायु से वृष्टि को, वृष्टि से पृथिवी को प्राप्त हो जाते हैं। पृथिवी को प्राप्त होकर वे अन्न बन जाते हैं। फिर वे पुरूष रूपाग्नि में हवन कये जाते हैं। उससे वे लोक के प्रति उत्थान करने वाले होकर स्त्री रूपाग्नि में उत्पन्न होते हैं। वे इसी प्रकार पुनः पुन परिवर्तित होते रहते हैं, और जो इन दोनो मार्गों को नहीं जानते, वे कीट, पतंग, डास, और मच्छर आदि होते हैं।

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