अग्निहोत्र : जनक श्वेतकेतु सोमशुष्य तथा याज्ञवल्क्य संवाद

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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अग्निहोत्र : जनक श्वेतकेतु सोमशुष्य तथा याज्ञवल्क्य संवाद
अग्निहोत्र : जनक श्वेतकेतु सोमशुष्य तथा याज्ञवल्क्य संवाद


 अग्निहोत्र याग के विषय में विभिन्न धारणायें थीं, कोई इसे सूर्या और अग्नि के परस्पर हवन का प्रतीक मानता तो कोई शारीरिक भोजनादि क्रियाओं का प्रतीक और कोई उसे प्रजनन क्रिया का प्रतीक मानता था प्रस्तुत प्रतीक द्वारा इन सभी परस्पर विरोधी धारणाओं में निहित एक बार जनक देशान्तर से आते हुए श्वेतकेतु सोमशुष्म एवं याज्ञवल्क्य से मिले। जनक ने इन ब्राह्मणों से पूछा- तुम सब अग्निहोत्र कैसे हवन करते हो ।

  आरुणेय श्वेतकेतु ने कहा, हे सम्राट सतत दीप्यमान प्रकाश से युक्त अग्नि एवं आदित्य- इन दोनों में क्रमशः एक दूसरे का हवन करता हू। आदित्य धर्म है। सांयकाल उसे अग्नि में हवन करता हू । अग्नि भी धर्म है । प्रात आदित्य में उसका हवन करता हूं। ऐसा करने से हवन कर्ता श्री और यश से सयुक्त होकर दोनों देवो के सायुज्य और सालोक्य प्राप्त कर लेता है।

 सात्ययज्ञि सोमशुष्म ने कहा, सम्राट में तेज का तेज मे हवन करता हूं। आदित्य तेज है। सांयकाल उसका अग्नि में हवन करता हू। इस प्रकार हवन करने वाला तेजस्वी यशस्वी एवं अन्नाद हो जाता हैं वह दोनों देवों के सायुज्य एवं सालोक्य को प्राप्त कर लेता है। याज्ञवल्क्य ने कहा, जब मैं गार्हपत्य से आहवनीयाग्नि का उद्धरण करता हूं तो सम्पूर्ण अग्निहोत्र को ऊपर ले लेता हूं। जाते हुए आदित्य का सभी देव अनुसरण करते हैं। वे मेरे द्वारा उद्धृत व अग्नि कोदेखकर लौट आते हैं। बाद में मैं पात्रों को शुद्धक उन्हें रखकर अग्निहोत्री गाय को दुहकर देखते ही देखते प्रतीक्षा में स्थित देवो को तृप कर देता हूं।

 जनक ने कहा, याज्ञवल्क्य तुम सत्य के अधिक समीप हो। तुमने अग्निहोत्र वं स्वरूप पर विचार किया है तुम्हें सौ गायें दूंगा। किन्तु अग्निहोत्र की उत्क्रान्ति, गति प्रतिष्ठा, तृप्ति, पुनरावृत्ति, प्रत्युत्यायी लोक आदि के विषय में तुम भी नहीं जानते हो इतना कहकर वे रथ पर बैठकर चले गये।

 इन तीनों ने कहा, इस क्षत्रिय ने हम सबसे बढ़कर बात की है। अच्छा हो, यदि इसे ब्रह्ममोघ के लिए बुलायें। तब याज्ञवल्क्य ने कहा, हम ब्राह्मण हैं, यह क्षत्रिय है। इसे यदि जीत भी लेते हैं तो सच सच हम जीते माने जायेगे जीतना और न जीतना बराबर ही है किन्तु यदि यह हमें जीत लेगा तो सभी लोग हम लोगों की निन्दा करेंगे कि क्षत्रिय ने ब्राह्मणों को ब्रह्मोद्य में हरा दिया। अतएव ऐसा करना ठीक नहीं है। सभी ब्राह्मणों ने याज्ञवल्क्य की बात को समझ लिया। याज्ञवल्क्य रथ पर चाढ़कर जनक के घर पर पहुँचे याज्ञवल्क्य। क्या तुम अग्निहोत्र जानने आये हो। याज्ञवल्क्य ने कहा, हा सम्राट ऐसा ही है। अन्त में जनक ने बताया ।

 प्रातः सांयकालीन आहुतिया हवन करने पर ऊपर की ओरजाती हैं। अन्तरिक्ष मे प्रवेश कर जाती हैं। वे अन्तरिक्ष को ही आहवनीय कर देती हैं वायु की समिधा सूर्य रश्मियों को निर्मल आहुति बना देती है। अन्तरिक्ष को तृप्त कर देती है। वे वहा से ऊपर उठती हैं। द्युलोक में प्रविष्ट होती हैं। द्युलोक को आहवनीय कर देती है। आदित्य को समिघ और चन्द्रमा को निर्मल आहुति बनाती हैं। वे द्युलोक को तृप्त करती हैं। वहां से पुनः लौटती हैं। पृथिवी में प्रवेश करती हैं। इस खर को आहवनीय, अग्नि को समिध और औषधियों को निर्मल आहुति बना ली है। इस पृथिवी को तृप्त करती है। वे वहां से भी उठकर पुरूष में प्रवेश करती है। मुख को आहवनीय जिह्वा को समिधा और अन्न को निर्मल आहुति बनाती है। जो इस रहस्य को जानता हुआ भोजन करने वाला है, उसका अग्निहोत्र सम्यक् रूप से हुत है। वे आहुतियां वहां से भी उठकर स्त्री में प्रविष्ट होती हैं। उसकी गोद की आहवनीय श्रोणि को समाधि और रेतस् को निर्मल आहुति बनाती है, स्त्री को तृप्त करती है जो इस रहस्य को जानता हुआ मिथुन क्रिया सम्पन्न करता है, उसका पुत्र लोकातिशायी होता है।

  हे याज्ञवल्क्य यही अग्निहोत्र है। इसके अतिरिक्त अन्य कोई बात बताने को शेष नहीं रही। इस पर प्रसन्न होकर याज्ञवल्क्य ने जनक को वर दिया। जनक ने कहा, याज्ञवल्क्य तुम्हारे प्रति मेरा प्रश्न स्वेच्छापूर्ण हो। तब से जनक ब्रह्मिष्ठ हो गये।

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