कक्षीवान - स्वनय की कथा
राजकीय शोभायात्रा अकस्मात रुक गई। राजा स्वनय के विमल नेत्रों ने देखा मार्ग के पार्श्व मे शयनशील ऋषिकुमार। ऋषि तरुण था। गाढी निद्रा में था । मार्ग की श्रान्ति मिटाता अनायास सो गया था। पद धूल से भरे थे प्रतीत होता था, कहीं दूर से एकाकी वन में आ गया था। राजा ने उसकी आकर्षक यौवनसुलभ शोभा देखा । प्रसन्न हो गया। उसे एकटक देखने लगा। पार्षद पीछे रूके। निद्रित ऋषि को कोलाहल का आभास हुआ। ऋषिकुमार ने राजा को देखा। वन में भीड़ देखी। कौतूहल बढा । राजा नें स्नेह से पूछाः
ऋषिकुमार आपका आगमन कहाँ से हो रहा है?"
ऋषिकुमार ने कहा, "राजन मैंने विद्याध्ययन समाप्त किया है। गुरू आश्रम से घर लौट रहा हूँ।"
"मुझे लोग स्वनय भावयव्य कहते हैं। मैं सिन्धुतटीय भूखण्ड का राजा हूँ।" राजा ने मृदुस्वर में कहा । "मेरा नाम" ऋषिकुमार ने किंचित् रूकते हुए कहा, "मुझे राजा उशिज पुत्र कक्षीवान् कहते हैं। मेरे पिता का नाम दीर्घमस् है। मैं प्रज वंशीय हूँ। कुछ महानुभाव मुझे काक्षीवत औशिज भी कहते हैं।
ऋषि! आप मन्त्र- द्रष्टा हैं। आप सुयोग्य हैं। आप अपने गृह की ओर लौट रहे हैं। क्या गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करने का विचार हैं?" ऋषिकुमार की दृष्टि राजा की सुन्दर कन्याओं पर पडी। वे ऋषिकुमार के युवक पुष्ट शरीर को देखकर प्रसन्न हो रही थीं। राजा की भार्या कुमार को जामाता को दृष्टि से देखने की कल्पना कर रही थी। राजा ने अपनी भार्या की तरफ देखा । भार्या मुस्कराई। दोनो ने नेत्रो द्वारा परामर्श कर लिया।
राजा ने पूछा:
"ऋषिवर आपके वंश का विशेष परिचय जान सकते हैं?"
"नृपवर मैं अंगिरस के वंश का हूँ। मैं उच्थ्य पुत्र ऋषि दीर्घतस् का पुत्र है।
राजा ने कहा "ऋषिकुमार हमारे और आपके गोत्र तथा वर्ण में विरोध नहीं । हम एक-दूसरे से सम्बन्ध कर सकते हैं।" राजा स्वनय ने अपनी दस कन्याओ का एक साथ पाणी - ग्रहण संस्कार कक्षीवान् के साथ कर दिया। कक्षीवान् गृहस्थ बन गया। उसके जीवन का एक अध्याय समाप्त हुआ । राजा ने आभूषणो से भूषित कन्याओं को कक्षीवान् को दिया । कन्याओ के वाहनार्थ दस रथ दिये। प्रत्येक रथ में स्वस्थ सुदृढ़ शरीर विभिन्न वर्णों के अश्व, धन, बर्तन, बकरियां तथा भेड़ें भेंट कीं । साथ ही साथ राजा ने कक्षीवान् को एक शत निष्क तथा एक शत वृषभ दिये । राजा ने कक्षीवान् को एक हजार साठ गायें और दीं। कक्षीवान् धन और अपनी पत्नियों के साथ दस रथों पर आरूढ हुआ। अपने पिता के आवास की ओ चलने के लिए उद्यत हुआ। राजा की बन्दना कीं। अपनी बुद्धि द्वारा स्तोत्र भेंट किया। पशुधन तथा पत्नियो के साथ प्रस्थान किया। कक्षीवान् ने अपने पूजनीय पिता को गाय दी। तत्पश्चात् श्रद्धापूर्वक सूक्त स्तवन किया: "दानी व्यक्ति सूर्य की उदय होती किरणों के साथ दान देता है। विद्वान लोग उस दान को ग्रहण करते हैं। उस धन से सन्तान, आयु, बल सहित रक्षा होती है। उसे असंख्य अश्व, गाय, स्वर्ण राशि मिलती हैं। इन्द्र की दानियों पर कृपा होती है। वे उन्हें सामर्थ्य देते हैं। प्रातःकाल उन्हें धन से पूर्ण कर देते हैं।" शोभन कर्म युक्त यज्ञ के अवलोकनार्थ निमित्त में रथारूढ आ गया हूं। दानी का स्वर्ग में सत्कार होता है। देवताओं के वर्ग में पहुचते है । जलस्रूप घृत, नदियां उनके निमित्त प्रवाहित होती है। उनकी दक्षिणा सर्वदा वार्धक्य प्राप्त करती है। दानियों के पास ऐश्वर्य है। दानी के निमित्त आकाश मे सूर्य स्थित हैं। दानी दान स्वरूप अमृत प्राप्त करता है। उन्हें दीर्घायु प्राप्त होती है। दानी के समीप दुःख नहीं आता। उसे पाप आवृत नहीं करते। जगत के शोक केवल अदानी व्यक्ति को व्याप्त करते हैं।
समय बीतता गया। कक्षीवान् ने राजा स्वनय की इच्छानुसार एक शत यज्ञानुष्ठान किये। उशिज पुत्र कक्षीवान् ने अपनी विद्या तथा कार्यों से ख्याति प्राप्त कर ली। उसकी प्रसिद्धि दूसरो के लिए अनुकरणीय हो गयी। अश्विनद्वय उसकी सर्वदा रक्षा करने के लिए उद्यत रहते थे। उन्होंने उसके लिए वर्षा की। कक्षीवान् की बुद्धि उत्तरोत्तर प्रशस्त होती गयी। कक्षीवान् ने विद्वान ऋषि तथा द्रष्टाओं में यश प्राप्त किया। उसने देवताओं को सोम दिया। उसके बदले में देवताओं ने उसे पशुधन प्रदान किया। हर्षदायक सोमपान से उसकी बुद्धि दिन-प्रतिदिन कुशाग्र होती गयी। दीर्घकालीन शत वर्षीय जीवन प्राप्त किया। उसके वयस्क हो जाने पर भी इन्द्र ने प्रसन्न होकर उसे 'वृचवा नामक पत्नी दी।'
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