एक बार देवराज इन्द्र ने देव-शिल्पी विश्वकर्माजी को आदेश दिया कि एक ऐसे भवन का निर्माण करो जिसमें कोई दोष न रहे तथा जो मेरी पत्नी शची को हर प्रकार से पसन्द हो । आदेश के पश्चात् विश्वकर्मा ने बड़े ही मनोयोग-पूर्वक सम्पूर्ण कलाओं से समलंकृत महल का निर्माण किया । किन्तु वह शची को पसन्द नहीं आया । इस तरह विश्वकर्मा बार-बार प्रयास करके भी शची के मनपसन्द महल नहीं बना सके तो वे उदासीन हो गये ।
उनका वर्षों का प्रयास व्यर्थ होता देख उन्होंने महर्षि लोमश की आराधना की और महर्षि प्रकट हो गये । महर्षि ने विश्वकर्मा से पूछकर जान लिया कि वे किसलिए विश्वकर्मा द्वारा स्मरण किये गये हैं । महर्षि ने विश्वकर्मा को आश्वस्त किया और वे इन्द्र के भवन की ओर चल पड़े । उनके सिर पर वही सिरकी का बना हुआ भवन था ; जिसे बन्जारे जाति के लोग अपने साथ रखते हैं और जहां चाहते हैं उसे खड़ा करके उसके नीचे भोजन आदि बनाने का काम करने लग जाते हैं ।
इन्द्र ने महर्षि को देखा और साष्टांग प्रणाम किया । पूजन के बाद इन्द्र ने महर्षि से आश्चर्यपूर्वक पूछा -
"आप अपने सिर पर यह क्या ढो रहे हो ?"
महर्षि ने कहा -
"इन्द्र ! जीवन बहुत छोटा है । इस छोटे से जीवन में भवन इत्यादि बनाने में समय अपव्यय कौन करे ? जहां जाता हूँ , इसे रखकर इसके नीचे बैठकर श्रीभगवान् का स्मरण करने लगता हूँ ।"
इन्द्र के मन में यह बात अवश्य आयी कि भवनादि के निर्माण में समय बिताना समय का अपव्यय है । पुनः इन्द्र की दृष्टि महर्षि लोमश के हृदय पर गयी । इन्द्र ने देखा कि महर्षि लोमश के हृदय में हजारों छिद्र हैं ।
उन्होंने उन छिद्रों के विषय में महर्षि से पूछा तो महर्षि ने बताया -
"हाँ , जब एक इन्द्र मर जाता है तो मेरे हृदय का एक बाल टूटकर गिर जाता है । जानते हो ? -
"बहूनीन्द्रसहस्त्राणि देवानां हि युगे-युगे ।
कालेन समतीतानि कालो हि दुरतिक्रम: ।।"
(सांख्यकारिका गौड़पादभाष्य से उद्धृत)
अर्थात् देवताओं के प्रत्येक युग में एक इन्द्र मर जाते हैं । इस तरह अनेक हजार इन्द्र काल के गाल में जा चुके हैं । काल का कोई अतिक्रमण नहीं कर सकता । मेरे जीवन में हजारों इन्द्र मर चुके हैं ।
यह सुनते ही इन्द्र ने सोचा कि इतने दीर्घजीवी महर्षि अपने जीवन को छोटा बतलाते हैं तो मेरी क्या हस्ती है ? इन्द्र ने विश्वकर्मा को बुलाया और कहा -
"जीवन बहुत छोटा है । बन्द करो यह भवन बनाने का काम ।"
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