लोपामुद्रा अगस्त्य की कथा
अगस्त्य का साथ यौवन त्याग चुका था। अगस्त्य का साथ बुद्धि ने प्रार्थक उचित नहीं समझा। पर्वत है अग पर्वत का स्तम्भन करने वाले का नाम है अगस्त्य, किन्तु कामवेग में पर्वत उड़ जाता है।
तपोवृद्ध, वयोवृद्ध अगस्त्य को देखा लोपामुद्रा की चंचल की आँखों ने काम की आँखो ने। उसने देखा अगस्त्य में काम रति लोलुप लोपामुद्रा चली काम से मिलने । बसंत ने दुंदुभी बजायी । अगस्त्य ने देखा एक नारी ।
रूप आकर्षण है। रूप का यही प्रयोजन है। प्रकृति सहायक हुई। अनुरूप वातारण पैदा किया। प्रकृति ने नर नारी बनाये। काम रति बनाये। आकर्षण बनाया । मिलन बनाया । मिलन सुख बनाया और उस सुख का परिणाम बना प्राणी ।
"सुश्रोणि " अगस्त्य के स्वर में काम ने प्रवेश किया, "काम प्रकृति का गुण है ।"
"तन्वी" अगस्त्य ने कामदृष्टि से लोपामुद्रा के उत्फुल्ल मुख कमल की ओर देखते हुए कहा, हमारा परिश्रम व्यर्थ नहीं हुआ है, देवता हमारे रक्षक हैं। हम स्पर्धाशीलों को वश में करते हैं। शत शत साधनों का उपयोग करते हैं।"
लोपामुद्रा प्रसन्न हो गयी। अगस्त्य ने उसके प्रसन्न मुख को देखते हुए सस्मित कहा -
प्रिये हम नर नारी रूप से, स्त्री पुरूष रूप से, पति-पत्नी रूप से गृहस्थ धर्म का पालन करेंगे।"
"गुरूवर" शिष्य ने नतमस्तक हो अगस्त्य और लोपामुद्रा के सम्मुख आकर प्रणाम किया।
"शिष्य !" कहो क्या बात है? अगस्त्य ने मुस्कराते हुए पूछा। उनके तप से ओजस्वी मुखमण्डल की अबूडन मानवीय सरल प्रतिमा में परिणत हो चुकी थी । शिष्य का मुख लज्जा से नत् था। वह चाहकर न बोल सका।
ऋषि ने उत्साहित करते हुए कहा, " कहो वत्स्!" "पीताब्धि " शिष्य ने पति पत्नी को 'शिरसा नमामि करते हुए कहा, " मैने पाप किया है।"
"पाप" आश्चर्य से ऋषि ने कहा।
"हाँ"
"कैसा?"
"मैनें आपका संभोग संलाप सुन लिया है। मैने पाप किया है। मैं ब्रह्मचारी हूँ।
मुझे नहीं सुनना चाहिए था । "
ऋषि मे क्रोध का संचार नहीं हुआ। वे स्थिर दृष्टि से शिष्य को देखने लगे । लोपामुद्रा ने वात्सल्य प्रकट करते हुए कहाः
" 'वत्स तुमने कोई पाप नहीं किया है। तुम्हारा विचार दूषित नही था । "
"ठीक है प्रिये। यह निष्पाप है।"
शिष्य की आँखों में अविरल अश्रुधारा बह चली। उन अश्रुविन्दुओं में ऋषि ने देखी प्रायश्चित की पवित्र रेखा ।
"पुत्र!" अगस्त्य ने कहा, "तुम निष्पाप हो।"
सूक्त द्रष्टा लोपामुद्रा ने प्रेम से शिष्य को उठाकर हृदय से लगा लिया । उसकी मूर्धा का चुंबन करते हुए बोली, " प्रिय तुम प्रशंसनीय हो ।"
सूक्त द्रष्टा अगस्त्य उठकर खडे हो गये। उन्होनें शिष्य को अंक मे लेकर उसके मूर्धा का चुंबन लेते हुए कहा -
"शिष्य! तुम पवित्र हो"
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