अग्निहोत्र : जनक और याज्ञवल्क्य संवाद

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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अग्निहोत्र : जनक और याज्ञवल्क्य संवाद
अग्निहोत्र : जनक और याज्ञवल्क्य संवाद


  वाणी अग्निहोत्री धेनु है । मन अग्निहोत्री धेनु का वत्स है। ये दोनों परस्पर सम्बद्ध होते हुए भी भिन्न प्रतीत होते हैं। श्रद्धा आहवनीय रूप तेज है। सत्य श्रद्धा में आहुत पय है। इस प्रकार अग्निहोत्र मन के सहारे ही वाणी रूप धेनु से प्राप्त सत्यरूप पयोद्रव्य का श्रद्धारूप आहवनीय तेज में हवन का प्रतीक है। साभी साधनों से रहित होने पर भी इस रहस्य को जानने वाले यजमान का भी अग्निहोत्र बराबर चलता रहता है। उसी प्रकार जिसका चित्त निरन्तर जागृत रहता है, जो सम्पूर्ण प्राणमान जगत में एकत्व की अनुभूति करता है, वह कहीं भी रहे उसका भी अग्निहोत्र अविच्छिन्न रहता है। वह निश्चय ही प्राणद्रव्य का प्राणरूप तेज में हवन करता है। इस प्रकार प्राण ही अग्निहोत्र है ।

वैदेह जनक ने याज्ञवल्क्य से पूछा- याज्ञवल्क्य क्या तुम अग्निहोत्र जानते हो? 

हां सम्राट,  याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया। 

तब जनक ने प्रश्न किया- अग्निहोत्र क्या है ? 

उत्तर मिला - अग्निहोत्र पय है। 

जनक ने पुन प्रश्न किया- जब पय न मिले तो किससे हवन करोगे । 

याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया, ब्रीहि और यव से। 

जनक ने तीसरा प्रश्न किया, जब ब्रीहि और यव भी न मिल सके तो किससे हवन करोगे । 

अन्य औषधियों से याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया। 

जब अन्य औषधियां भी अप्राप्य हो तब किससे हवन करें? 

उत्तर मिला— अरण्य औषधियों से । 

और जब यह भी न मिले तो क्या करें? 

वनस्पतियों से ही हवन करे, याज्ञवल्क्य ने कहा।

 जनक ने फिर से कहा, यदि वनस्पतियाँ भी न मिल सके तो किससे हवन करें? 

और अन्त में याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया, राजन्! वनस्पति के भी अभाव में जल और जल भी न मिल सकने पर अन्य प्राप्य किसी द्रव्य से हवन करें। अतएव श्रद्धा रूप तेज में पय रूपी तेज का हवन ही श्रेयस्कर है।

याज्ञवल्क्य के इस उत्तर से प्रसन्न होकर जनक ने कहा, याज्ञवल्क्य । सचमुच तुम अग्निहोत्र को जानते हो। मैं तुम्हें सौ गायें दूंगा ।

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