दृप्तवाल्मीकि और अजातशत्रु संवाद (१४/३/१/१)

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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दृप्तवाल्मीकि और अजातशत्रु संवाद
दृप्तवाल्मीकि और अजातशत्रु संवाद

आदित्य, चन्द्र, विद्युत, आकाश, वायु, अग्नि, अप्, आदर्श, शब्द तथा छायामय- व्यस्त पुरूष एव आत्यन्विशिष्ट गुणवान् आत्मस्थ समस्त ब्रह्म की उपासना अविद्यामूलक है, क्योंकि कर्तव्य और भोक्तृत्व आदि आत्मा के स्वाभाविक धर्म नही हैं। ये यागादि इन्द्रियों के धर्म हैं। इसी कारण ये कर्तृत्त्व भोकृत्त्व आदि भाव केवल जागृत अवस्था में और जागृत वासना के कारण स्वप्न में भी दिखाई पड़ते हैं।

 गार्ग्यगोत्रोत्पन दृप्त वाल्मीकि विश्रुत वेदाध्यायी था। उसने का शिराज, अजातशत्रु से कहा, तुम्हें ब्रह्म का उपदेश करू । उस अजातशत्रु ने कहा, इस बात पर मैं आपको सहस्र गाये देता हूं।

  गार्ग्य ने कहा, "यह जो आदित्य मे पुरूष है, उसी की मैं ब्रह्म रूप मे उपासना करता हूँ। अजातशत्रु ने कहा, नही-नही इसके विषय में बात मत करो। यह सब का अतिक्रमण करके स्थित है। समस्त भूतो का मस्तिष्क है। राजा है, इस रूप में इसकी उपासना करता हूं। जो पुरूष इसकी इस प्रकार उपासना करता है, वह सबका अतिक्रमण करके स्थित, समस्त भूतो का मस्तिष्क हैं और वह राजा होता है।"

  गार्ग्य ने कहा, यह जो चन्द्रमा में पुरूष है उसी को मैं ब्रह्म रूप में उपासना करता हूं। अजातशत्रु बोला, नही नहीं, इस विषय मे बात न करे। यह महान् पाण्डुरवासी सोम राजा है। इस रूप मे माँ इसकी उपासना करता हू। जो इसकी इस प्रकार उपासना करता है उसके लिए नित्यप्रति सोम सुत और स्तुत रहता है। उसका अन्न क्षीण नहीं होता है।

  गार्ग्य बोला, यह जो विद्युत में पुरूष है इसी की मैं ब्रह्म रूप में उपासना करता हूं। अजातशत्रु ने कहा, नहीं नहीं, इस विषय में बात न करो। इसकी तो मैं तेजस्वीआदित्य, चन्द्र, विद्युत, आकाश, वायु, अग्नि, अप्, आदर्श, शब्द तथा छायामय- व्यस्त पुरूष एव आत्यन्विशिष्ट गुणवान् आत्मस्थ समस्त ब्रह्म की उपासना अविद्यामूलक है, क्योंकि कर्तव्य और भोक्तृत्व आदि आत्मा के स्वाभाविक धर्म नही हैं। ये यागादि इन्द्रियों के धर्म हैं। इसी कारण ये कर्तृत्त्व भोकृत्त्व आदि भाव केवल जागृत अवस्था में और जागृत वासना के कारण स्वप्न में भी दिखाई पड़ते हैं।

  गार्ग्यगोत्रोत्पन दृप्त वाल्मीकि विश्रुत वेदाध्यायी था। उसने का शिराज, अजातशत्रु से कहा, तुम्हें ब्रह्म का उपदेश करू । उस अजातशत्रु ने कहा, इस बात पर मैं आपको सहस्र गाये देता हूं।

  गार्ग्य ने कहा, "यह जो आदित्य मे पुरूष है, उसी की मैं ब्रह्म रूप मे उपासना करता हूँ। अजातशत्रु ने कहा, नही-नही इसके विषय में बात मत करो। यह सब का अतिक्रमण करके स्थित है। समस्त भूतो का मस्तिष्क है। राजा है, इस रूप में इसकी उपासना करता हूं। जो पुरूष इसकी इस प्रकार उपासना करता है, वह सबका अतिक्रमण करके स्थित, समस्त भूतो का मस्तिष्क हैं और वह राजा होता है।"

  गार्ग्य ने कहा, यह जो चन्द्रमा में पुरूष है उसी को मैं ब्रह्म रूप में उपासना करता हूं। अजातशत्रु बोला, नही नहीं, इस विषय मे बात न करे। यह महान् पाण्डुरवासी सोम राजा है। इस रूप मे माँ इसकी उपासना करता हू। जो इसकी इस प्रकार उपासना करता है उसके लिए नित्यप्रति सोम सुत और स्तुत रहता है। उसका अन्न क्षीण नहीं होता है।

  गार्ग्य बोला, यह जो विद्युत में पुरूष है इसी की मैं ब्रह्म रूप में उपासना करता हूं। अजातशत्रु ने कहा, नहीं नहीं, इस विषय में बात न करो। इसकी तो मैं तेजस्वी रूप में उपासना करता हूं। जो इसकी इस प्रकार उपासना करता है, वह तेजस्वी होता, उसकी प्रजा तेजस्विनी होती हैं

  गार्ग्य ने कहा, यह जो आकाश मे पुरूष है उसी की मैं ब्रह्म रूप में उपासना करता हूं। अजातशत्रु ने कहा, नहीं नहीं, इसके विषय में बात न करो। मैं इसकी पूर्ण और अपरिवर्तित रूप से उपासना करता हू। जो कोई इसकी इस रूप मे उपासना करता है, वह प्रजाएव पशुओं से भरपूर हो जाता है। इस लोक से उसकी प्रजा का विच्छेद नही होता ।

  गार्ग्य बोला यह जो वायु मे पुरूष है, इसकी मैं ब्रह्म रूप से उपासना करता हूं। अजातशत्रु ने कहा, नहीं नहीं इसके विषय में बात न करो। इसकी तो मैं इन्द्र, बैकुण्ठ और अपराजिता सेना इस रूप में उपासना करता हू जो कोई इसकी इस रूप में उपासना करता है वह विजयी, अपराभूत और शत्रुजयी होता है।

  गार्ग्य ने कहा, यह जो अग्नि में पुरूष है इसी की मैं ब्रह्म रूप में उपासना करता हूं। अजातशत्रु ने कहा, नहीं नहीं इसके विषय मे बात न करो। इसकी तो मैं विषासहि रूप मे प्रार्थना व उपासना करता हूँ। जो कोई इसकी इस रूप मे उपासना करता है, वह निश्चय ही विषासहि हो जाता है। उसकी प्रजायें भी विषासहि हो जाती हैं।

  गार्ग्य ने कहा, यह जो जल में पुरूष है इसी की मैं ब्रह्म रूप में उपासना करता हूं। अजातशत्रु ने कहा, नहीं नहीं इसके विषय मे बात न करो। इसकी तो मैं प्रतिरूप रूप से उपासना करता हूं जो कोई इसकी इस रूप में उपासना करता है वह निश्चय ही उसे प्रतिरूप में प्राप्त करता है, वह उसके पास प्रतिरूप में ही आता है, अप्रतिरूप में नहीं। उससे प्रतिरूप पुत्र उत्पन्न होता है।

  गार्ग्य ने कहा, यह जो दर्पण मे पुरूष है इसकी मैं ब्रह्म रूप में उपासना करता हू। अजातशत्रु ने कहा, नहीं नहीं इसके विषय मे बात न करो। इसकी तो मैं रोचिष्णु रूप में उपसना करता हू। जो कोई इसकी इस प्रकार उपसना करता है वह निश्चय ही रोचिष्णु होता है, उसकी प्रजा भी रोचिष्णु होती है। उसका जिससे सम्पर्क होता है, उन सबसे बढकर राचिष्णु होता है।

  गार्ग्य ने कहा, जाने वाले के पीछे जो यह शब्द उत्पन्न होता है, इसी की मैं ब्रह्म रूप में उपासना करता हू। अजातशत्रु ने कहा, नहीं नही इसके विषय में बात न करो। इसकी तो मैसे उपासना करता हू जो इसकी इस प्रकार उपासना करता है वह इस लोक में पूर्णायु प्राप्त करता है। उसे प्राण समय से पहले नही छोड़ता ।

  गार्ग्य ने कहा, यह जो छायामय पुरूष है इसी की मैं ब्रह्म रूप में उपासना करता हूं। अजातशत्रु ने कहा, नहीं नही इसके विषय मे बात न करो। इसकी तो मैं मृत्यु रूप से उपासना करता हू। जो इसकी इस रूप मे उपासना करता है, वह इस लोक में सारी आयु प्राप्त करता है और इसके पास समय से पहले मृत्यु नही आती है।

  गार्ग्य नें कहा, यह जो आत्मा में पुरूष है इसी की मैं ब्रह्म रूप में उपासना करता हूं। अजातशत्रु ने कहा, नहीं नहीं इसके विषय मे बात न करो। इसकी तो मैं आत्मन्वी रूप में उपासना करता हूँ। जो इसकी इस रूप में उपसना करता है, वह निश्चय ही आत्मान्धी होता है। उसकी प्रजा भी आत्मान्वी होती है। तब वह गार्ग्य चुप रह गया।

  अजातशत्रु ने कहा, बस क्या इतना ही है, इससे तो ब्रह्म विदित नहीं होता।

  गार्ग्य ने कहा, हां इतना ही है, मैं तुम्हारे समीप आऊं अजातशत्रु ने कहा, ब्राह्मण क्षत्रिय के पास इस उद्देश्य से जाय कि यह मुझे ब्रह्म का उपदेश करेगा। यह तो उल्टी सी बात हैं तो भी मैं तुम्हें इसका ज्ञान कराऊंगा ही। तब वह उसका हाथ पकडकर उठ खड़ा हुआ और वे दोनों सुप्त पुरूष के पास गये।

  अजाशत्रु ने सुप्त पुरुष को हे ब्रह्म । हे पाण्डुरवास हे सोभराजन्। इन नामो से पुकारा । परन्तु वह न उठा। जब उसे हाथ से दबाकर जगाया, तब वह उठ बैठा ।

  अजातशत्रु ने समझाया, यह जो विज्ञानमय पुरूष है यह जब सोया हुआ था, तब कहा था। और यह कहा से आया? किन्तु गार्ग्य कुछ समझ न सका। अजातशत्रु ने स्पष्ट किया, यह जो विज्ञानमय पुरूष है, जब यह सोया हुआ था, उस समय वह विज्ञान के द्वारा इन प्राणो के विज्ञान को ग्रहण कर यह जो हृदय के भीतर आकाश है उसमे शयन करताहैं जिस समय यह उन विज्ञानो को ग्रहण करता है। उस समय इस पुरूष का नाम स्वपिति होता है। उस समय प्राण गृहीत रहता है, वाक् गृहीत रहती है, चक्षु गृहीत रहता है, श्रोत्र गृहीत रहता है, और मन भी गृहीत रहता है।

  जिस समय यह आत्मा स्वप्न वृति का आचरण करता है। उस समय इसके वे लोक उदित होते हैं वहा भी यह महाराज या महाब्राह्मण होता है अथवा ऊंची नीची जातियो को प्राप्त करता है। जिस प्रकार कोई महाराज अपने प्रजाजनों को लेकर अपने देश में यथेच्छ विचरता है, उसी प्रकार यह प्राणो को ग्रहण कर अपने शरीर मे यथेच्छ विचरता है।

  इसके पश्चात जब वह सुषुप्त होता है, जिस समय कि वह किसी के विषय में कुछ नहीं जानता, उस समय जो हिता नाम की बहत्तर हजार नाडियां हृदय से सम्पूर्ण शरीर में होकर व्याप्त हैं, उनके द्वारा बुद्धि के साथ जाकर वह शरीर भर में व्याप्त होकर शयन करता है। वह जिस प्रकार कोई बालक अथवा महाराज किंवा महाब्राह्मण आनन्द की दुखनाशिनी अवस्था को प्राप्त होकर शयन करे, उसी प्रकार शयन करता है ।

  जिस प्रकार ऊर्णनामि तन्तुओ पर ऊपर की ओर जाता है, तथा जैसे अग्नि से अनेको छोटी-छोटी चिनगारिया उडती है, उसी प्रकार इस आत्मा से समस्त प्राण, समस्त लोक, समस्त देवगण, और समस्त भूत विविध रूप से उत्पन्न होते हे सत्य का सत्य यह आत्मा की उपनिषद् है। प्राण ही सत्य हैं उन्हीं का यह सत्य है ।

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