त्रित की कथा

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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  त्रित गायों के गोष्ठ की ओर जा रहा था। सालावृकी के निर्दय पुत्रों ने त्रित पर आक्रमण किया । त्रित अपनी रक्षा का प्रयास करने लगा। उसने गुहार किया। स्थान निर्जन था । उसकी वाणी गूंजकर रह गयी। उसकी रक्षा-निमित्त किसी दिशा से कोई सहायता प्राप्त नहीं हुई।

  सालावृक के पुत्रों ने गायों को निर्दयतापूर्वक पीटना आरम्भ किया। कोलाहल में शान्त सरल स्वभाव त्रित की समझ मे कुछ नहीं आया। क्या करे? गायो पर पडते प्रहारों को देखकर व्याकुल हो गया। उन पर पडता एक-एक प्रहार जसे उसके शरीर पर पड रहा था। वह शाला वृकों से करबद्ध विनती करने लगा । किन्तु कूर आततायी ने त्रित की करूण पुकार पर ध्यान नहीं दिया। त्रित गायो के पास दौड़कर आता। उनके शरीर पर प्रहारो द्वारा पडे नील साटनों पर हाथ से रोता सहलाता। गायेंत्रित की ओर करूण नेत्रों से देखतीं पुनः उन पर प्रहार होता । वे भागतीं। लौटकर त्रित को घेरकर खडी हो जाती।

"गायें इसे नही छोड़ेगी।" आतताइयों ने कुछ स्वर में कहा।

"इसे गायों से अलग करो।" कर्कश वाणी गूँजा ।

"अलग कर दो।" उततेजित स्वर गूँजा । 

 क्रूर, लोभी, आततायी, साला वृकी के दुष्ट पुत्रो ने त्रित को बलपूर्वक पकड लिया ।

आततायी इधर-उधर देखने लगे। त्रित को छिपाने का स्थान खोजने लगे। कोई उपयुक्त स्थान नहीं मिला। मानव का आवास कहीं समीप नहीं था। उन्हें तृणाच्छादित एक पुराना कूप दिखायी दिया। पाप के उत्साह और क्रूरता की प्रेरणा से वे प्रसन्न हो गये। त्रित को उठाकर उन्होंने कूप में डाल दिया। गायो को पूर्णतया अपहृत कर लिया गया। आततायी चले गये कूप जलहीन था। सूखा था । घास-फूस से ढँका था। ईंटो से बँधा था । उसके जल का प्रयोग नहीं होता था । बहुत दिनों से बन्द हो गया था। उसकी मरम्मत किसी ने करवाने का प्रयास नहीं किया ।

 घास-फूस के कारण उसकी हड्डियां टूटी नहीं । किन्तु गिरते समय उसे कुएँ की क्रूर ईंटों का धक्का लगा। उसका शरीर विदीर्ण हो गया रक्त स्राव हुआ। वेदना से अर्ध - चैतन्य को गया ।

 त्रित का आकाश कूप का ऊपरी स्तर ही था। विशाल और छोरहीन आकाश के स्थान पर, अत्यन्त संकुचित, सीमित आकाश कूप तल से दृष्टिगोचर होता था । कूप के अन्दर सब कुछ परिमित था, संकुचित था। पैर फेलाने भर की जगह थी। चारों ओर गोलाकार ईंटों की दिवारें थीं त्रित कूप की परिमित भूमि, बॅधी वायु, अन्धकार तथा सडी दुर्गन्ध से व्याकुल होने लगा। उसे प्रतीत हो रहा था, जैसे शरीर उसका साथ छोडना चाहता था। त्रित के सम्मुख मृत्यु की मनहूस मूर्ति धीरे-धीरे आयी। खडी हो गयी। अनेक प्रकार के विचार उसे घेरने लगे।

 जिस त्रित का सामर्थ्य मरुतो ने युद्ध में नष्ट नहीं होने दिया था। वे मरूत उसे आज हवा पहुँचाने में असमर्थ थे। बाहर उसकी हड्डियाँ फेंक दी जायेगी। झझावात आयेगा । पवन उसके साथ खेलेगी। जिस त्रित ने त्रिशिरा का वध किया था, आज वही त्रित उपेक्षित था। निर्बल था, जीर्ण-शीर्ण कूप मे बिना प्रयास मर रहा था। जिस त्रित ने सोम देकर सूर्य को तेजस्वी बनाया था, उस त्रित पर आज सूर्य अपनी रश्मियाँ पहुँचाने में असमर्थ था और यदि बाहर उसकी हड्डियाँ फेक दी गयीं तो अपनी प्रचण्ड प्रखर किरणों से उन्हे तपाने से बाज नहीं आयेगा। "वरूण हमारे मित्र थे। आज वरूण एक बूँद जल से मेरे शुष्क कण्ठ को सिंचित करने की कृपा नहीं कर रहे हैं।

 "मैंने सोम की शक्ति से वृत्र का मान मर्दन किया था। आज अपने सर पर झूलती, लम्बी सूखी घास उखाडकर, सूर्य प्रकाश अपने तक लाने में असमर्थ हूँ। असुर नेता बल के दुर्ग को मैनें विदीर्ण किया था और आज पुरानी, लोना लगी, निष्प्रभ ईंटों को तोडकर, इस कूप के अस्तित्व का लोप कर अपने जीवन के लिए, बाहर निकलने की शक्ति नहीं रखता हूँ"

 "इन्द्र नें मेरे लिए गाये उपलब्ध की उन गायों के कारण मैं कूप में पड़ा हूँ। इन्द्र आज मुझे एक बूँद दूध देने के लिए तैयार नहीं हैं। मैं इन्द्र के समान कर्मी हूँ तथापि कर्मगति पर आँसू बहाता शरीर के कर्म की अन्तिम घडी की बाट जोह रहा हूँ।"

  त्रित व्याकुल हो गया। ऊपर देखा। घास-फूस, पादपों से छन कर आते क्षीण प्रकाश में उसने लक्ष्य किया । त्रित को मूर्छा आने लगी। उसके जीवन का अध्याय बन्द होने जा रहा था। त्रित विचलित हो गया। व्यग्र हो उठा। सर पर सूखे घास-फूस सरसरा उठे। उसके उठने की आहट से कूप के वृक्षों पर बैठी छोटी-छोटी चिड़ियाँ फुर्र - फुर्र करती बाहर उड़ गयी। अपने में लीन हुआ। उसे जीवन वृत्त स्मरण होने लगा। माता के गर्भ में था । किन्तु माता के गर्भ में किसने उसका पोषण किया? किसने इसी प्रकार एक अत्यन्त सकुचित कुक्षि मे उनकी रक्षा की? विचार आते ही, उसकी चेतना जैसे पुन: लौटी। उसने स्तवन किया, "देवगण आपके नियमों का आधार क्या है? वरूण की व्यवस्था कहाँ है? दुष्टों के पार अर्यमा हमें किस प्रकार कर सकोगे ? रोदसी हमारे दुख को समझो। "मैं जल पुत्र त्रित को जानता हूँ । सप्तरश्मिधारी सूर्य से मेरा पैतृक सम्बन्ध है। मैं उन रश्मियों की स्तुति करता हूँ। रोदसी। मेरे दुःखो को समझो।

  "इन्द्र सब वीर पुरूषों से युक्त, इस स्तोत्र द्वारा युद्ध में विजय प्राप्त करे। मित्र, वरूण, अदिति, सिन्धु, पृथ्वी, द्यौ मेरे इस स्तोत्र का समर्थन करें।" समस्त देवताओं का त्रित ने आह्वान किया। उसके आह्वान पर उसकी करूण अवस्था पर, बृहस्पति की करूण जागृत हुई। बृहस्पति त्रित के समीप आये ।

  "त्रित " बृहस्पति की दयनीय अवस्था देखकर दुःखी हो गये। उन्होंने मृदु स्वन में कहा, "तुम्हारी शोचनीय स्थिति पर किस पाषाण हृदय मे करूणा उत्पन्न नहीं होगी?"

 "बृहस्पति” त्रित ने बृहस्पति को 'शिरसा नमामि' कहते हुए आभार प्रकट किया, "इन कूप की निर्जीव ईंटो ने मुझे आहत किया है। मेरी यह दुर्दशा — ?"

 “मन्त्रविद्” बृहस्पति ने सप्रेम कहा, "तुम्हारा कल्याण होगा। निराश मत हो ।”

  बृहस्पति ने त्रित का उद्धार किया। त्रित ने जगत देखा उसके अभाव में जगत में किंचिन्मात्र परिवर्तन नहीं हुआ था। बृहस्पति ने त्रित की अपहृत गायें सालावृकी के पुत्रों से वापस लीं, सादर उसे दे दीं। 

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