सरमा और पणि, वैदिक कथाएँ,
सरमा पणि संवाद |
पणियों नें "बृहस्पति की गाय चुरा लीं।
"पणियों ने।"
देवता स्तब्ध हो गये ।
"हमारे पौरूष को धिक्कार है।"
"गाय यज्ञ की आधारभूता है। अब यज्ञ कैसे होगा?"
"और इन्द्र उनका शासन | हम आरक्षित !!!"
देवता नीरव हो उठे।
"गाये हरी गयी हैं?"
"हॉ । वज्रिन् ॥"
"कुछ रहस्य मालूम हुआ
"हाँ सहस्राक्ष ?
देवराज "रसा नदी के उस पार पर्वतों की गुहा में वे बन्द हैं।
"सरमा । "इन्द्र ने सरमा को सम्बोधित किया।
"पुरन्दर । आज्ञा । "सरमा ने नत मस्तक प्रणाम करते हुए कहा ।
"सरमा तू कार्यकुशल है वाक्पटु हैं चतुर है।"
"वे क्रूर हैं। अनिष्टकर हैं। अनुपकारी हैं मृघ्रवाच् ग्राथिन् हैं। वेकनाट हैं।
"सरमा । वे वृक हैं। कृपण हैं। गाय उनकी सम्पति है। उन्होंने गायों में घृत खोज निकाला है। देवताओं के शत्रु हैं मनुष्यों के शत्रु अन्तरिक्ष के तुगतर पटल पर दैत्यो का पाणि नामक एक वर्ग है।
"वे गुहा शक्ति मुक्त हैं। सोम, अग्नि, बृहस्पति, अंगिरस के शत्रु हैं। वे दस्यु हैं। बृहस्पति ने अंगिरागण की सहायता से गुहा में पत्थर के द्वारों द्वारा बन्द रोती हुई गौओं को मुक्त किया था। नीचे एक द्वार से तथा उपर दो द्वारों द्वारा तिमिराच्छन्न गुफाओं में छिपाकर गायें रखी गई थी बृहस्पति ने तीनों द्वारों को खोला । सर्वप्रथम गुफा में प्रकाश किया। रात्रि में चुपचाप पणियों के नगर के पृष्ठभाग को विदीर्ण कर प्रवेश किया था। समुद्र तुल्य उन गुफाओं से प्रातः कालीन
समुद्र से निकलने सूर्य की तरह गौओं को निकाला था।"
वे धनी हैं। परन्तु दान नहीं देते। देवों को हवि नहीं देते । पुरोहितों को दक्षिणा नहीं देते। ऋषियो की दृष्टि में अवांछनीय तत्व हैं वे गउ चुराते हैं। जल रोकते हैं। अस्पष्ट वाणी बोलते हैं। उपासना नहीं करते। बिना कुछ लिए कुछ भी नहीं देते। अदेव पूजक हैं। हेय हैं।"
"सरमा तू उनकी मनोवृति को समझती है। उनके आचरण तथा व्यवहार का 1 तुझे ज्ञात है। अंगिरस ने मुझसे कहा है तुझे दौत्य कार्य निमित स्मरण किया है।"
"वृद्धश्रवा !" सरमा ने विनय से कहा । "आपकी कृपा है।"
"तुझे चुना है, तुझे दूत कार्य करना होगा।
"दिवस्पति । यह मेरा अहोभाग्य है।" सरमा ने नतमस्तक इन्द्र को प्रणाम करते हुए कहा ।
"सरमा । दूत कार्य कठिन होता है।"
"जानती हूँ। मघवा ॥" सरमा ने सस्मित उत्तर दिया “दूत की वाणी शुद्ध, व्याकरण शुद्ध, स्वर मधुर होता है। विनय, शील है। अपनी बात वेग से न कहकर शब्दोच्चारण के पूर्व किंचित मुसकराकर वाक्य मुख से निकालना चाहिए किसी भी अवस्था में आवेश में न आना चाहिए। दूसरे की बातें जान लेना और अपनी बात न जनाना, किसी प्रश्न तथा विषय पर आतुरता नहीं प्रकट करना, मिताहार, दुसरो को खिलाने की अधिक तत्परता, दूसरों को अनुग्रहीत करने का प्रयास, यह कुछ दूतों के गुण कहे गये हैं। दूत अबध्य है तुझ पर कोई पाणि हाथ नहीं उठायेगा ।"
इन्द्र ने सरमा को सफलता के लिए अभय मुद्रा से आशीर्वाद दिया।
"सरमा ।" पाणियों ने सरमा को चकित दृष्टि से देखते हुए कहा, "तुममने किस आकांक्षा के साथ यहां पदापर्ण किया है।"
"यह स्थान दुर्गम है। दूर है आगन्तुक पुनः पीछे फिर कर नहीं देख सकता ।"
"तुमने किस प्रकार रसा नदी को पार किया है? कितनी रात्रियो तुम्हें यहाँ आने वें व्यतीत करनी पडी ? किसकी कामना से हमारे पास आगमन हुआ हैं?"
"पणिगण ।" सरमा ने मधुर स्वर मे कहा, "मैं इन्द्र की दूत रूप से विचरण कर रही हूँ। आपने गउओ को अपने यहाँ संचित कर रखा है मैं आपकी कृपा से उन्हें लेना चाहती हूँ । मार्ग मे जल के कारण मुझे भयग्रस्त होना पडा था । किन्तु यहां पहुॅचुने का जल साधन बन गया। वही रक्षक था। उसने मुझे पार पहुॅचा दिया ।"
"सरमा ! पणियों ने परिस्थिति की गम्भीरता समझकर प्रलोभन को साधन बनाया। "भयभीत देवताओं की प्रेरणा से यहाँ आपका आगमन हुआ है। आपको हम अपनी भगिनी स्वरूप मानते हैं। आपका भाग हम आपको प्रदान करते हैं। यहाँ से लौटकर जाने से आपका क्या लाभ होगा। यही निवास करिये।"
"पणियों ।"सरमा उनके प्रलोभन से अप्रभावित होती हुई बोली।" आपके भाई बहन गाथा को मैं नहीं समझ पा रही हूँ। इन्द्र अंगिरस जानते हैं।
"पणियों । यहाँ से बहुत दूर चले जाओ । गुफा मे बन्द गायें कष्ट पा रही हैं।
वे पर्वत से निकालकर धर्म का आश्रय प्राप्त करेगी। सोम का अभिषव करने वाले पाषाण, ऋषिगण, सोम, बृहस्पति तथा अन्यान्य विद्वान् यहाँ पर छिपी गौओं का भेद जान गये हैं।"
पणि गाय लौटाने को तैयार नहीं हुए। सरमा इन्द्र लोक लौट गयी ।
"सरमा ।" इन्द्र ने प्रसन्न होकर पूछा, "तुम आ गई। कुशल तो है ?"
"पुरन्दर ।" सरमा ने प्रसन्नतापूर्वक कहा, "रसा के पास पणियों ने गायों को पर्वतीय गुफा में छिपा रखा है।"
उतम पादवती सरमा गायों के स्वर को पहचानती थीं। वह उनके समीप गई। इन्द्र ने पणियों का संहार किया, गाये मुक्त हुई पर्वत के टुटे द्वार पर इन्द्र को ले जाती सरमा ने कहा-
इन्द्र नें सरमा को अपनें वचनानुसार प्रचुर मात्रा तथा अन्न तथा धन उसे तथा उसकी संतानों को देकर सखी बनाया और पणियों को पराजित कर वृहस्पति की गायों को लौटा दिया। देवताओ की गौरव पताका पुनः फहरा उठी। यज्ञवेदी, अपह्नित एवं पुनः प्राप्त गायों के घृत से प्रज्जवलित हो उठी । *
'इस कथा में राजदूतों के गुण, कर्म तथा व्यवहार का वर्णन किया गया है। युद्ध के पूर्व शत्रु को समझाने तथा शान्ति वार्ता के लिए दूत भेजना वैदिक प्रथा मालूम होती है। इसका किसी न किसी रूप में आज भी अनुसरण किया जाता है। वैदिक काल में स्त्रियां भी दौत्य कार्य करती थी।