जनक : याज्ञवल्क्य संवाद (१४/४/१/१)

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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 निरुपाधिक, निरुपारव्य, नेति नेति से निर्देश्य, साक्षात् अपरोक्ष, सर्वान्तिरात्मा, ब्रह्म अक्षर, अन्तर्यामी, प्रशास्ता, औपनिषद पुरुष विज्ञान- आनन्द रूप ब्रह्म है। सूक्ष्माहार करने वाला वैश्वानर, फिर उससे भी सूक्ष्मतर आहार करने वाला हृदयान्तर्वर्तीलिंगात्मा और फिर उससे भी सूक्ष्म प्राणोपाधिक जगदाता का उपदेश है। फिर रज्जु आदि में सर्पादि के समान उपाधिभूत जगदात्मा का भी ज्ञान द्वारा लय करके स एष नेति नेति द्वारा साक्षात् सर्वान्तर ब्रह्म का उपदेश किया गया है। एक ओर विदेह जनक आसन पर बैठा था। तभी याज्ञवल्क्य उसके पास आये।

  जनक ने कहा, याज्ञवल्क्य ! कैसे आये? पशुओं की इच्छा से अथवा सूक्ष्म बातों को जतानेकी इच्छा से? 

  याज्ञवल्क्य — राजन् दोनों के लिए आया है। तुमसे किसी आचार्य ने जो कहा है, उसे हम सुने। जनक ने कहा, जित्वा शैलिनि ने कहा है, वाक् ही ब्रह्म है। याज्ञवल्क्य - यह तो एक पादवाला ब्रह्म हुआ। वाक् ही उसका आयतन है। आकाश उसकी प्रतिष्ठा है। उसकी प्रज्ञा रुप से उपासना करे जनक, पज्ञता क्या है? याज्ञवल्क्य - राजन् । वाक् ही प्रज्ञता है। वाक् से ही बन्धु का ज्ञान होता है। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्वाङ्गिरस वेद, इतिहास पुराण, विद्या, उपनिषद् श्लोक, सूत्र, अनुव्याख्यान, इष्ट, हुत, आशित, पायित, यह लोक परलोक और समस्त भूत वाक् से ही जाने जाते हैं। वाक् ही परब्रह्म है। वाक्ब्रह्म के उपासक को वाक् नहीं छोड़ती है। उसे सारे प्राणी मिलउपहार देते हैं। वह देवरुप होकर देवों को प्राप्त होता है। वैदेह जनक ने कहा, मैं तुमको हस्तितुल्य बछडो से युक्त सहस्र गाये देता है। याज्ञवल्क्य ने कहा, राजन् मेरे पिता का आदेश था कि शिष्य को उपदेश से कृतार्थ किये बिना उसका धन लेना नहीं चाहिए। जनक ने कहा, उपग शौल्वायन ने मुझसे कहा, प्राण ही ब्रह्म है। याज्ञवल्क्य ने कहा, यह तो एक पाद् ब्रह्म है। प्राण ही उसका आयतन है, आकाश प्रतिष्ठा है। उसकी प्रिय रूप से उपासना करे जनक, प्रियता क्या है? याज्ञवल्क्य - सम्राट । प्राण ही प्रियता है, प्राण के लिए ही अयाज्य से यजा करते हैं। प्रतिग्रह न लेने योग्य से प्रतिग्रह लेते हैं तथा जिस दिशा मे जाते हैं उसके वध ही की आशंका करते हैं। सम्राट यह प्राश्ण ही परम ब्रह्म है। प्राणब्रह्म के उपासक को प्राण नहीं छोडता । उसे सभी भूत उपहार देते हैं। वह देव होकर देवों को प्राप्त हो जाता है। जनक, मैं हस्तितुल्य बछड़ों वाली सहस्र गायें तुम्हें देता हूं। याज्ञवल्क्य - किन्तु राजन्। मेरे पिता का विचार था कि शिष्य को उपदेश के द्वारा कृतार्थ किये बिना उसका धन नहीं लेना चाहिए। जनक, वर्कुवार्ष्णि ने मुझसे कहा है, चक्षु ही ब्रह्म है। सम्राट यह तो एक पाद ब्रहम है, याज्ञवल्क्य ने कहा, चक्षु ही उसका आयतन है, आकाश प्रतिष्ठा है, इसकी सत्य रूप से उपासना करे। जनक, सत्यता क्या है? चक्षु ही सत्य है। चक्षु ही परब्रहम है। चक्षुपरब्रह्म के उपासक का चक्षु परित्याग नहीं करता है। सब भूत उसको उपहार देते हैं। वह देव होकर देवों को प्राप्त हो जाता है। जनक, मैं आपको हस्तितुल्य बछडों से युक्त सहस्र गायें देता हू । याज्ञवल्क्य - किन्तु राजन्। मेरे पिता का विचार था कि बिना शिष्य को संतुष्ट किये उसका धन नहीं लेना चाहिए।

  जनक, भारद्वाज ने मुझसे कहा है, श्रोत्र ही ब्रह्म है। याज्ञवल्क्य ने कहा, राजन् । यह तो एक पाद ब्रहम है। श्रोत्र ही उसका आयतन है। आकाश प्रतिष्ठा है तथा इसकी अनन्त रुप से उपासना करें। जनक, अनन्तता क्या है? याज्ञवल्क्यै- दिशायें ही अनन्तता हैं। कोई भी जिस दिशा को जाता है, उसका अन्त नहीं हो पाता क्योकि दिशायें अनन्त हैं। दिशायें ही श्रोत्र हैं। श्रोत्र ही परमब्रह्म है। श्रोत्र ब्रह्म के उपासक को श्रोत्र नहीं छोड़ता। सभी भूत उसे उपहार देते हैं, वह देव होकर देवों को प्राप्त हो जाता है। जनक- मै आपको हस्तितुल्य बछड़ों वाली सहस्र गायें देता हूँ। याज्ञवल्क्य - किन्तु मेरे पिता का विचार था कि शिष्य को कृतार्थ किये बिना उसका धन नहीं लेना चाहिए।

  जनक - सत्यकाम जाबाल ने मुझसे कहा है, मन ही ब्रह्म है। याज्ञवल्क्य - मन तो उसका आयतन है आकाश प्रतिष्ठा है। इसकी आनन्द रुप से उपासना करें। जनक आनन्दता क्या है? याज्ञवल्क्य मन ही आनन्दता है, मन से ही पुरुष स्त्री की कामना करता है। इसमें अजुरुप पुत्र उत्पन्न होता है, वह आनन्द है, मन ही परमब्रह्म है। मनब्रह्म के उपासक को मन नहीं छोड़ता। सभी भूत उसे उपहार देते हैं। वह देव होकर देवों को प्राप्त हो जाता है। जनक, मैं आपको हस्तितुल्य बछड़ों से युक्त १००० गायें देता हूं। याज्ञवल्क्य किन्तु मेरे पिता का विचार था कि बिना शिष्य को संतुष्ट किये उसका धन नहीं लेना चाहिए। जनक- विदग्ध शाकल्य ने मुझसे कहा है, हृदय ही ब्रह्म है। याज्ञवल्क्य - यह एक पाद ब्रहम है, हृदय उसका आयतन है। आकाश प्रतिष्ठा है। इसकी स्थिति रुप से उपासना करें। जनक स्थिति क्या है? याज्ञवल्क्य- हृदय ही स्थितता है हृदय ही समस्त भूतों का आयतन है, प्रतिष्ठा है। हृदय ही परम ब्रह्म है। हृदय के उपासक को हृदय नहीं छोड़ता। सब भूत उसे उपहार देते हैं। वह देव होकर देवो को प्राप्त हो जाता है। जनक याज्ञवल्क्य मैं हाथी के समान बड़े बछडों से युक्त १००० गाये तुम्हे देता हूँ। किन्तु मेरे पिता का विचार था कि शिष्य को उपदेश द्वारा कृतार्थ किये बिना उसका धन नहीं लेना चाहिए।

  तब जनक ने कूर्चासन से उठकर याज्ञवल्क्य के समीप जाते हुए कहा, याज्ञवल्क्य आपको नमस्कार है। मुझे उपदेश दीजिए। 

याज्ञवल्क्य — राजन् जिस प्रकार लम्बे मार्ग को जाने वाला पुरूष सम्यक् रूप से रथ या नौका का सहारा ले, वैसे ही तू इन उपनिषदो से युक्त प्राणादि ब्रह्म की उपासना कर समादितचित् हो गया है। इस प्रकार तू पूज्य, श्रीमान्, एवं उपनिषद्मय हो गया है। इतना होने पर भी तू इस शरीर से छूटकर कहां जायेगा? 

जनक- भगवन्! मैं कहा जाऊँगा, यह मुझे ज्ञात नही है । 

याज्ञवल्क्य — अब मैं तुझे बताऊंगा। 

जनक — भगवन् आप मुझे बताये ।

याज्ञवल्क्य — यह जो दक्षिण नेत्र में पुरूष है उसे इन्द्र कहते हैं। यह जो बायें नेत्र में पुरूष है, वह इसकी पत्नी विराट् है । हृदयाकाश इन दोनों का संस्ताव ( मिलन स्थान )है । हृदयान्तर्गत लोहित पिण्ड इन दोनो का खाद्यान्न है। हृदयान्तर्गत जालतुल्य वस्तु इन दोनों का प्रावरण है। हृदयोर्ध्वगामिनी नाड़ी इन दोनों का संचरण मार्ग है। सहस्रथा विभक्त केश राशि की तरह ये हिता नाड़ियां हृदय में स्थित है। इन्हीं के द्वारा अन्न शरीर में जाता है। अतः स्थूल शरीराभिमानी वैश्वानर की अपेक्षा सूक्ष्म देहाभिमानी तेजस सूक्ष्मतर आहार ग्रहण करने वाला है। प्राणाभाव को प्राप्त हुए विद्वान के पूर्वादिक् दक्षिण दिक्, प्रतीचीदिक उत्तरादिक, उदक्प्राण ऊर्ध्वादिक ऊर्ध्वा प्राण, अवाचीदिक् अवाक् प्राण और सर्वादिक् सर्वप्राण है। वह नेति नेति से उपदिष्ट आत्मा अग्रहणीय, अर्शीय, असंख्य, अबद्ध और अक्षय्य है। हे जनक तू निश्चय ही अभय को प्राप्त हो गया है। जनक ने कहा, भगवन्! आपने मुझे अभय ब्रह्म का ज्ञान कराया है। आपको अभय प्राप्त हो आपको नमस्कार है। यह विदेह देश और मे आपके अधीन है।

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