उचथ्य और वृहस्पति नाम के दो सहोदर ऋषि पुत्र थे । उचथ्य की पत्नी का नाम ममता था, जो भृगुवंशी थी।
उचथ्य और वृहस्पति दोनों में कनिष्ठ वृहस्पति ममता के पास मैथुन के लिये गये। ममता के गर्भ में पहले से विद्यमान शिशु ने उनके शुक्रोत्सर्ग के समय कहा, "चूँकि पहले से ही मैं यहाँ सम्भूत हूँ, अतः तुम शुक्र को संकर करनें का काम मत करो।" ऐसा कहनें पर भी वृहस्पति शुक्र सम्बन्धी इस अवरोध को सहन न कर सके।
तत्पश्चात् उन्होंने गर्भ को सम्बोधित करते हुए कहा - तुम दीर्घतमस्वी होवो इसलिए उपथ्य के पुत्र का नाम दीर्घतमस् नाम के साथ जन्म हुआ ।
ऐसा प्रचलित है कि जन्म लेने के थोडे ही समय पश्चात् अकस्मात् दीर्घतमस् नेत्रहीन हो गये । दीर्घतमस् को नेत्रहीन होने की सूचना मिलते ही सभी देवतागण दुखी हो गये। दुखी होने के पश्चात् सभी देवों नें विचार-विमर्श किया। विचार विमर्श करने के पश्चात् उसे नेत्र प्रदान किया गया जिससे उनका अन्धापन दूर हुआ ।
एकबार उनके परिचारक खिन्न हो गये और उन अन्धे दीर्घतमस को बाँधकर नदी में फेंक दिया । उन परिचारको मे से वेतन नामक एक परिचारक नें दीर्घतमस् पर अपनी तलवार से प्रहार करना चाहा, जैसे ही प्रहार करने की इच्छा प्रकट हुई वह दीर्घतमस् पर प्रहार न करके स्वयं अपनें ही सिर स्कन्ध और वक्ष के टुकड़े-टुकडे कर दिये ।
महान पाप में लीन उस दास का दीर्घतमस् के द्वारा वध कर दिये जानें के पश्चात् दीर्घतमस् नें नदी के जल में अपनें संज्ञाशून्य अंगों को हिलाया । ऐसा करनें के पश्चात् नदी की तेज धारा नें उन्हें बहाकर अड्ग देश के निकट पहुँचा दिया।
उशिज् नामक दासी अङ्गराज के गृह में नियुक्त थी। ऐसा कहा जाता है कि राजा ने पुत्र प्राप्ति की इच्छा से इस उशिज् नामक दासी को दीर्घतमस् के पास भेजा। जब महा तेजस्वी दीर्घतमस् जल से बाहर निकले तो देखा कि वह भक्ति भाव में लीन सामने खडी है। उसे भक्ति भाव में लीन खड़े हुये देखकर दीर्घतमस् नें उससे कक्षीवत् तथा अन्य पुत्रों को उत्पन्न किया।
thanks for a lovly feedback