याज्ञवल्क्य - मैत्रेयी संवाद |
ब्रह्म और आत्मा में अभेद है। आत्मा के लिए ही प्रियता, आत्मज्ञान से सब का ज्ञानसभव है। आत्मा से भिन्न किसी भी वस्तु को देखने मे पराभव है। उसी से सम्पूर्ण भूतों की उत्पत्ति एव उसी में विलय निहित हैं। अनात्म वस्तुओं की सत्ता तो अज्ञान में है। जिसकी दृष्टि में सब कुछ आत्मा ही हो जाता है, उसके लिए कर्ता, करण और क्रिया का सर्वथा अभाव हो जाता है। वहां घ्राण, श्रवण, मनन, ज्ञान सब का अभाव हो जाता है। आत्म तत्व किसी का ज्ञेय नहीं, अपितु सब का स्वयमेव ही ज्ञाता है।
याज्ञवल्क्य के दो पत्निया थीं- मैत्रेयी और कात्यायनी । उनमे से मैत्रेयी, ब्रह्मवादिनी विदुषी और कात्यायनी साधारण स्त्री थी । याज्ञवल्क्य ने सन्यास लेने के समय कहा, मैं इस स्थान ( गार्हस्थ्य) से ऊपर (सन्यास आश्रम) में प्रवेश करने वाला हूं।
अतः इस कात्यायनी से तेरा बंटवारा कर दूं । मैत्रेयी ने कहा, भगवन् यदि धन से भरपूर यह सम्पूर्ण पृथिवी मेरी हो जाय तो क्या मैं इससे किसी प्रकार अमर हो सकती हूं। याज्ञवल्क्य ने कहा, नहीं भोगोपकरण युक्त लोगों का जैसा जीवन होता है, वैसा ही तेरा भी जीवन हो जायेगा। धन से अमृतत्व की आशा तो नहीं। मैत्रेयी ने कहा, जिससे मैं अमर नही हो सकती उसे लेकर मैं क्या करूंगी? भगवन् जो कुछ अमृतत्त्व का साधन जानते हो उसे बताये।
याज्ञवल्क्य ने कहा, तुम धन्य हो। तुम पहले भी प्रिया रही हो, इस समय भी प्रियतम बात कह रही हो। अच्छा आ बैठ जा तेरे सामने उसकी व्याख्या करूंगा। मेरे द्वारा कहे गये वाक्यों के अर्थ का चिन्तन करना। उन्होंने कहा, अरी मैत्रेयी । यह निश्चय है कि पति के प्रयोजन के लिए पति प्रिय नहीं होता, अपने ही प्रयोजन के लिए पति प्रिय होता है। स्त्री के प्रयोजन के लिए स्त्री प्रिय नहीं होती। अपने ही प्रयोजन के लिए स्त्री प्रिय होती है। पुत्र के प्रयोजन के लिए पुत्र प्रिय नहीं होते अपने ही प्रयोजन के लिए पुत्र प्रिय होते हैं। इसी प्रकार धन, ब्राह्मण, क्षत्रिय, लोक, देव प्राणी, प्रजा ये सब पदार्थ प्रिय नही होते, अपितु अपने लिए ही प्रिय होते हैं। अरी मैत्रेयी । यह आत्मा ही दर्शनीय, श्रवणीय, मननीय और ध्यायनीय है। मैत्राये इस आत्मा के ही दर्शन, श्रवण, मनन, ध्यान और विज्ञान से सब का ज्ञान हो जाता है।
ब्राह्मण जाति उसे परास्त कर देती है जो उसे आत्मा से भिन्न मानता है। क्षत्रिय जाति उसे परास्त कर देती है जो क्षत्रिय जाति को आत्मा से भिन्न मानता है। लोक उसे परास्त कर देता है जो लोकों को आत्मा से भिन्न देखता है। देवगण उसे परास्त कर देते हैं, जो देवों को आत्मा से भिन्न मानता है उसे भूतगण उसे परास्त कर देते हैं, जो भूतों को आत्मा से भिन्न देखता है। सभी उसे परास्त कर देते हैं, जो सब को आत्मा से भिन्न देखता है। दृष्टान्त यह है कि जिसप्रकार दुन्दुभि वादन किये जाने पर उसके बाह्य शब्दो को कोई ग्रहण नहीं कर सकता, किन्तु दुन्दुभि के आघात को ग्रहण करने से ही उसके शब्द को भी ग्रहण कर लिया जाता है। एक दूसरा दृष्टान्त यह है कि जैसे कोई बजायी जाती हुई शंख के बाह्य शब्दों को ग्रहण नहीं कर सकता किन्तु शंख के बजाने से उसके शब्द का भी ग्रहण हो जाता है। तृतीय दृष्टान्त भी है, जैसे कोई बजायी जाती हुई वीणा के बाह्य शब्द को ग्रहण नही कर पाता, किन्तु वीणा या वीणा के स्वर को ग्रहण करने या बजाने पर उस शब्द का ग्रहण भी हो जाता है। चौथा दृष्टान्त है- जैसे गीले ईंधन के आधान वाली, अग्नि से पृथक धुआ निकलता है। हे मैत्रेयी इसी प्रकार ये जो ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद इतिहास पुराण, विद्या, उपनिषद, श्लोक, सूत्र, मन्त्रविवरण और अर्थवाद है, वे इस महत् के ही निश्वास हैं
जिस प्रकार समुद्र समस्त जलों का अयन है उसी प्रकार त्वक् समस्त स्पर्शो का एक अयन है। उसी प्रकार समस्त स्पर्शो का जिह्वा एक अयन है। इसी प्रकार समस्त रूपो का चक्षु एक अयन है। इसी प्रकार समस्त शब्दो का श्रौत्र एक अयन है। इसी प्रकार संकल्पो का मन एक अयन है। इसी प्रकार समस्त विद्याओ का हृदय एक अयन है, इसी प्रकार समस्त आनन्दो का उपस्थ एक अयन है और इसी प्रकार समस्त आनन्दों का उपस्थ एक अयन है। इसी प्रकार समस्त विसर्गों का वायु एक अयन है। इसी प्रकार समस्त मार्गों का चरण एक अयन है, और इसी प्रकार समस्त वेदों का वाक् एक अयन है। जिस प्रकार समस्त नागो का चरण एक अयन है, और इसी प्रकार समस्त वेदों का वाक् एक अयन है। जिस प्रकार जल में डाला हुआ नमक जल में ही विलीन हो जाता है, उसे जल से पृथक करने में कोई सफल नही हो सकता, हा वहा से भी जल लिया जाय तो वह नमकीन प्राप्त होगा। हे मैत्रेयी। उसी प्रकार यह महद्भूत विज्ञानघन ही हैं यह इन भूतों के साथ प्रकट होकर इन्हीं के साथ विनाश को प्राप्त होता है। देहेन्द्रिय भाव से मुक्त होने पर उसकी कोई संज्ञा नहीं होती। हे मैत्रेयी ! ऐसा मैं तुझसे कहता हूं। ऐसा याज्ञवल्क्य ने कहा ।
मैत्रेयी ने कहा, मृत्यु के अनन्तर कोई सज्ञा नहीं रहती। ऐसा कहकर भगवान् ने मुझे मोह में डाल दिया है। याज्ञवल्क्य ने कहा, है मैत्रेयी। मैं मोह का उपदेश नहीं करता। अरी! यह तो उसका विज्ञान कराने के लिए पर्याप्त है। जहाँ द्वैत होता है, वहीं अन्य अन्य को सूंघता है। अन्य अन्य को सुनता है, अन्य अन्य का अभिवादन करता है। अन्य अन्य का मनन करता है, तथा अन्य को जानता है। किन्तु जहां इसके लिए आत्मा ही सब कुछ हो गया है, वहां किसके द्वारा किसे सूंघे, किसके द्वारा किसे देखे, किसके द्वारा किसे सुने किसके द्वारा किसका अभिवादन करे अथवा किसके द्वारा किए जाने। जिसके द्वारा इन सब को जानता हूं उसे किसके द्वारा जाना जा सकता है। हे मैत्रेयी विज्ञाता को किसके द्वारा जाने। वह किसका ज्ञेय हो सकता है। ज्ञाता को ज्ञेय नहीं बनाया जा सकता है।
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