कक्षीवत् और स्वनय की कथा

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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  कहते है कि जिस समय कक्षीवत अपने गुरू से विद्या प्राप्त करके घर लौट रहे थे, मार्ग में थककर वन मे ही सो गये। उस समय भावयप्य के पुत्र राजा स्वनय ने अपनी सभा, पुरोहित और पत्नी के साथ कीडा के लिए जाते हुए मार्ग में कक्षीवत् को सोया हुआ देखा। कक्षीवत् को रूप सम्पन्न तथा देवपुत्र के समान देखकर राजा ने बिना वर्ण और गोत्र आदि के पूछे ही अपनी पुत्री का विवाह उसके साथ करने का विचार कर लेने के पश्चात उनको जगाकर उनसे उनका वर्ण और गोत्रादि पूछा। इस पर प्रत्युत्तर मे कक्षीवत् ने कहा- राजन मैं अडिगरस वंशोत्पन्न उचथ्य के पुत्र दीर्घतमा ऋषि का पुत्र हूँ। तत्पश्चात् राजा स्वनय ने कक्षीवत् को आभूषणों से अलंकृत दस कन्याएं उन्हें ले जाने के लिए दस रथ तथा चार-चार के दल में चलने वाले सुदृढ़ सुडौल शरीर वाले अश्व भी उपहार में दिया। इसके साथ ही बहुत सारा धन हीन धातु से निर्मित बर्तन तथा भेड बकरियाँ आदि भी प्रदान किया।

  इनके अतिरिक्त राजा स्वनय ने कक्षीवत् को एक 'सौनिष्क' एक प्रकार का "कण्ठाभूषण' और एक सौ बैल भी प्रदान किया। इसका वणनशतम्' से आरम्भ सूक्त की ऋचाओं में वर्णन है। कक्षीवत् ने एक सौ अश्व, एक सौ निष्क कन्याओं सहित दस रथ, चार-चार के दल में चलने वाले रथवाहक अश्व और एक हजार साठ गायें इन सबको प्राप्त करने के पश्चात् स्वनय की प्रशंसा की तथा अपने पिता को प्रातः' वाला सूक्त समर्पित किया ।

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