इन्द्र विकुण्ठा की कथा

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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 प्रजापति की एक पत्नी थी। उसका नाम विकुण्ठा था। असुर कन्या थी । विवाह होने के पश्चात् स्वाभाविक था, वह देवोपम पुत्र की कामना करती। उस असुर पत्नी ने इन्द्र तुल्य एक पुत्र की कामना की।

  केवल कामना से फलवती होने वाली नहीं थी। कामनापूर्ति निमित्त उसने महान तपस्या आरम्भ की। प्रजापति तपस्या से प्रसन्न हुए। उसे निरन्तर विविध वरदान देते रहे। उसकी सभी कामनाओं की पूर्ति हो गई। अन्त में उसने दैत्यों तथा दानवो के संहारार्थ इन्द्र जैसे अतुलित बलशाली पुत्र प्राप्त करने का वर प्राप्त किया। इस पर स्वयं इन्द्र ने उसके गर्भ से जन्म लिया ।

  इन्द्र सुशिप्र थे। उनके केश हरे थे। उनकी दाढ़ी हरी थी। वे वेग से चलते थे। दाढी हवा में उडती थी। शरीर का रंग हरा था। स्वर्ण हस्त था। भुजा विशाल थी। फेली थी। शक्तिशाली थी । सुदृढ़ थी।

  सोमपान के पश्चात उनका उदर सरोवर की तरह हो जाता था । सोमपान के पश्चात् वे दॉत पीसते थे। उनका प्रिय पोषक पेय सोम था। उसे चुराकर भी पी लेते थे। सोम उन्हें युद्ध अभियान निमित्त उत्साहित करता था। अपने जन्मदिन से ही सोमपान आरम्भ किया था। माता ने सुशिप्र को भूमि स्पर्श करते ही सोम पिलाया था । सोम के अतिरिक्त वे मधु मिश्रित दुग्धपान करते थे।

  इन्द्र का अस्त्र दधीचि की अस्थि द्वारा निर्मित वज्र था। उससे इन्द्र ने नव नब्बे अर्थात आठ सौ दस और सात-सात के सात दानवों का युद्ध में घोर संहार किया था ।

  पृथ्वी तल पर कालकेय असुर तथा पुलोम जाति इन्द्र के सम्मुख मस्तक झुकाने के लिए तैयार नहीं थी। असुरों के व्यवहार से प्राणी त्रस्त थे । इन्द्र ने उनका संहार किया। इन्द्र को दैत्यों का साम्राज्य प्राप्त हुआ। वे सुखपूर्वक असुर साम्राज्य पर शासन करने लगे।

  दैत्यों के सिंहासन पर इन्द्र बैठे। वे अपनी वीरता के दर्प से फूल गये । दैत्य - साम्राज्य की आसुरी वृत्तियाँ मुहुर्मुहुः असुरों की माया से मोहित हो गये। मूल प्रयोजन भूल गये। आसुरी माया जाल मे फँस गये ।

  देवेन्द्र ने आसुरी प्रभाव का प्रयोग आरम्भ किया। देवताओं को ताडित करने लगे। उनके अत्याचार से देवता त्रस्त हो गये। असुर संसर्ग के कारण आसुरी दोषों से पूर्णतया दूषित हो चुके थे। देवता अपनी रक्षा निमित्त व्याकुल हो गये। उपाय सोचने लगे। कुछ निरूपाय हो गये। चारो ओर भागने लगे।

 "सखे! मैं अंगिरा गोत्री सप्रगु हूँ। मैं सत्यकर्मा हूँ। मै बुद्धियुक्त हॅू। मन्त्रों का स्वामी हूँ। स्तुतियों का मेरे पास आगमन होता है। देवता मुझे नमस्कार करते हैं।"

"मैं उन लोगों को, जो यज्ञ नहीं करते, पराजित करता हूँ। मुझे जलीय, पृथ्वी तथा स्वर्गस्थ प्राणी इन्द्र कहते हैं। मैं अपने रथ में बलशाली हर्यश्वों को जोतता हूँ। विकराल वज्र को शक्ति निमित्त ग्रहण करता हूँ। ऋषि उशना के लिए मैने अत्क पर प्रहार किया था। 

असुर इन्द्र का पूर्व असुर विरोधी, दानव विरोधी, दैत्य विरोधी रूप देखकर, भयभीत हो गये और उनकी भयग्रस्त मुद्रा मे डूबने लगा देवताओं का त्रास ।

   इस वैदिक कहानी में मित्र-धर्म का वर्णन मिलता है साथ ही साथ एक महान व्यक्ति संगति के कारण कारण किस प्रकार पतित हो जाता है इसका भी प्रसग जाता है। मित्र अपने पतित मित्र का उद्धार कर उसे पन उसके स्थान पर स्थान पर पहुँचता है। यह कहानी उपदेशात्मक है।

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