शुुनःशेप, शुनः शेप की कथा,
यज्ञशाला में काष्ठ के तीन यूप गडे थे। शुनः शेप बलि निमित्त उनसे पाशबद्ध था । बन्धन में था। मुक्त नहीं था। जीवन आशा त्याग चुका था । यजमान उसे यज्ञाहुति चुन चुका था। वह हवि था। पवित्र हवन सामग्री था। परन्तु पवित्रता उसे मुक्त नहीं कर सकी थी। उसकी मुक्ति की किसी को कामना नहीं थी । उसकी बलि में लोगों को सुख था। उसके बन्धन पाश में लोगों की कामनायें गुम्फित थीं । उसके दुःख में लोगो का सुख था। उसके अवसान में लोगो के उदय की झलक थी।
मृत्यु उसे निरख रही थी । यज्ञ शिखा तृषित थी। यज्ञ मण्डप का पवित्र वातावरण उसके शरीर मोह को तिरोहित नहीं कर सका। वह अपने अमगल की प्रतीक्षा में व्याकुल था। वह अपनी काया का रक्षाकांक्षी था । यज्ञमान उसकी काया विनष्टि में अपने सुन्दर भविष्य का दर्शन कर रहा था। शुन शेप निस्सहाय था । हताश था।
लोंगो का स्वार्थ उसके विनाश में था और उसका स्वार्थ अपनी रक्षा में था। परस्पर विरोधी स्वार्थी के संघर्ष में, जीवन-मृत्यु के द्वन्द्व में, उत्सर्ग और अस्तित्व के अधर में उसे स्मरण आये निस्सहायावस्था के एकमात्र सम्बल, एकमात्र आशा, एकमात्र सन्तोष, वरूणदेव । उसकी यह क्षीण आशा करूण वाणी में मुखरित हुई।
"वरूण निशदिन बन्धनयुक्त मैं आपका स्तवन करता हूँ। विज्ञ एवं दुर्धर राजा वरूण! मुझे पाश मुक्त कीजिये। पाश बन्धन खोलिये। अग्नि का ग्रास मुझे मत बनाइये ।"
शुनः शेप की दशा शोचनीय थी। आसन्न मृत्यु भय नेत्रों में झलक रहा था। जगत उसकी दृष्टि में किसी समय लोप हो सकता था । भयकर भावनायें उदय होते ही वह मृत्यु दुःख से कातर हो गया। उसे विषाद हुआ । विवशता पर झुंझलाया। लोगों की क्रूरता पर क्रोधित हुआ । किन्तु वह पाशबद्ध था। उसकी भावनाएँ मूर्त न हो सकीं। उसकी दयनीय वाणी यज्ञ मण्डप में गूंजी। किन्तु उसकी करूणा बन गयी, लोंगो के कौतुहल की सामग्री। उसने वरूण का करुण स्वर से स्तवन किया
"हे वरूण! दण्डवत्, यज्ञ और आहुतियाँ आपके कोध का निवारण करें। विज्ञ, बली, यशस्वी, सौभाग्यदायक वरुण हमारे मध्य पधारिये मुझे कृत पापो से मुक्त कीजिये।"
"पाश पीडा से पीडित शुनःशेप के नेत्रों से अविरल अश्रुधारा बह चली। उसकी
दयनीय अवस्था लोगों की आँखों में आश्चर्य बन गयी।" मनुष्य होकर वह बलि से भयभीत है? वह मृत्यु से डरता है? देवकार्य मे प्रसन्नता के स्थान पर रोता है? स्वर्ग पथ से विचलित होता है? किन्तु शुनः शेप ने अपने निर्मल अश्रु जल से वरूण को अर्ध्य देते हुए स्तवन किया, "वरूणा मेरे ऊपर के पाश को नष्ट कीजिए । मध्य के पाश को नष्ट कीजिए और नीचे के पाश को नष्ट कीजिए ।
अजीगर्ति शुनः शेप ने वरुण को स्मरण करते हुए पुनः स्तुति की। शुन शेप ने हव्यवाहन अग्नि की स्तुति की:
"अग्नि। आप सतत युवा हैं। तेजस्वी हैं। अग्ने। आप सचमुच पुत्र के स्नेही पिता हैं। सम्बन्धी के सम्बन्धी हैं। मित्र के मित्र हैं। देवताओं की पूजा करते हुए भी हम आपको ही हवि देते हैं।
"अमर्त्य अग्नि ! आपकी तथा मानवों की प्रशंसादायक वाणियाँ स्नेहमय हैं। बल पुत्र अग्ने! आप अपनी समस्त अग्नियुक्त हमारी प्रार्थना सुनिये । शुनःशेप नें इन्द्र - सोम की स्तुति की ।
शुनःशेप नें इन्द्र की स्तुति की, उन्हे अञ्जलि बद्ध प्रणाम किया। अग्नि ने उसे सहस्र यूप बन्धन से मुक्त कर दिया । उसका पाश बन्धन खुल गया ।
इन्द्र उसके सम्मुख प्रकट होकर बोले, "शुन शेप । तुमसे प्रसन्न हूँ । यह हिरण्यमय रथ तुम्हारे लिए है, सूक्तद्रष्टा ।"
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