त्रिशिरस् की कथा,
त्रिशिरस् त्वष्टा का पुत्र था । असुरों की बहन से इसने जन्म ग्रहण किया था। देवताओं का पुरोहित था। परन्तु असुरों के साथ सबध था, अतएव इसका झुकाव सुरों की अपेक्षा असुरों की और अधिक था। इसके तीन सिर थे। अतएव इसका नाम त्रिशिरा पड़ा था। एक मुख अन्नाद था, उससे यह अन्न खाता था। दूसरा मुख सोमपीथ था, उससे सोमपान करता था। तीसरा मुख सुरापीथ था, उससे वह सुरा पान करता था। त्रिशिरस असुरों की शुभकामना किया करता था। यज्ञ का हवि भाग असुरों को दे देता था ।
त्रिशिरस् युवा था । स्वय सूक्त द्रष्टा था, ऋषि था। त्रिशिरा के पवित्र मस्तको को इन्द्र ने बज्र द्वारा काट कर गिरा दिया। देव पुरोहित की हत्या हुई । त्रिशिरस् ब्राह्मण था । ब्रह्महत्या के दोष से इन्द्र मुक्त नही हो सकते थे।
ब्रह्म हत्या होते ही वाक् ने इन्द्र को सम्बोधित किया: "इन्द्र तुमने हत्या की है । ब्रह्महत्या की है। तुमने विश्व रूप का वध किया है। वह परांगमुख होकर भी शरणागत था ।"
ब्रह्महत्या के दोष से इन्द्र म्लान हो गये। जिस मुख से त्रिशिरा ने सोमपान किया था, वह मुख भूमि पर गिरते ही कपिंजल पक्षी बन गया। जिस मुख से सुरापान किया था, वह कलंविक बन गया और जिससे उसने अन्न ग्रहण किया था, वह तित्तिर पक्षी बन गया।
इन्द्र ने अपने पातक को तीन भागों में विभाजित किया। उन्हे आवास की समस्या उपस्थित हुई । वे जहाँ स्थापित किये गये उनमें दोष उत्पन्न हो गये । इन्द्र ने अपने पातक को पृथ्वी वृक्ष तथा स्त्रियों स्थापित किया। अतएव पृथ्वी मे सडने का दोष उत्पन्न हो गया। वृक्षों में अनायास टूटने का दोष पैदा हो गया और स्त्रियो में रजस्वला होने का दोष प्रविष्ट हो गया। रजस्वला स्त्री संगम द्वारा उत्पन्न सन्तानें दोष युक्त होने लगीं। रजस्वला स संगम करना त्याज्य माना गया।
इन्द्र को अपना पातक दूर करना था। यह स्थिति बहुत दिनों तक चल नही सकती थी । अतएव ऋषि सिन्धुदीप ने इन्द्र के पाप निवारण का विचार किया, उन्हे जल से अभिसिंचित किया।
अभिषिक्त जल इन्द्र के मूर्धा पर पडा । ब्रह्महत्या इन्द्र का शरीर त्याग कर भाग चली। पातक शरीर के मैल की तरह इन्द्र की काया से धुल कर गिर गया।
त्रिशिरस अन्न सोम तथा सुरापान तीनों का सेवन त्रिशिरस करता था। अलकारिक भाषा में उन्हें तीन सिरों का प्रत्येक से खाना तथा पीना कहा गया है परन्तु यह कहानी सुर तथा असुरों के बीच विवाह प्रचलन तथा उसकी मान्यता को स्वीकार करती है।
सुरों का पेय पदार्थ सोम था, असुरों का पेय सुरा थी और मनुष्यों का भोजन अन्न था। त्रिशिरस् की माता असुर कन्या थी। पिता सुर ऋषि था। अतस्व उसमें सुर-असुर दोनों के गुण और अवगुण विद्यमान थे। सुर तथा असुर से उत्पन्न सन्तान हीन नही मानी जाती थी। समाज में उसका आदर होता था त्रिशिरस इस प्रकार की सन्तान होते हुए भी देवताओं का पुरोहित था। वह सूक्त द्रष्टा था। स्वयं ऋषि था। उसे ब्राह्मण माना गया था। उसको मारने पर इन्द्र को ब्रह्महत्या लगी थी। यह कहानी अन्तर्जातीय विवाह को मान्यता देकर उनसे उत्पन्न सन्तान को हीन मानकर समाज में अन्य लोगों के समान उच्च स्थान देती है।
इस कथा में मानसिक तथा शारीरिक अपराध तथा उसकी दण्ड प्रक्रिया पर प्रकाश डाला गया है। शिष्य ने अपना अपराध स्वीकार कर लिया है। उसने मानसिक अपराध अपनी दृष्टि से किया था। उसका वह दण्ड पाना चाहता था। परन्तु अगस्त्य तथा लोपामुद्रा ने उसे अपराध नहीं माना यह उस समय के सामाजिक व्यवहार तथा आचरण की ओर ध्यान आकर्षित करता है। शारीरिक के साथ मानसिक अपराध की गणना उन दिनों अपराधों में की जाती थी। मानसिक अपराधी भी दण्ड का भागी हो सकता था।
आधुनिक न्यायशास्त्र जब तक अपराध प्रत्यक्ष रूप से पूर्ण नहीं हो जाता उसकी गणना अपराध में नहीं करता और न यह अपराध दण्ड की श्रेणी में आता है। मानसिक अपराध तथा अपराध की तैयारी करना उस समय तक दण्डनीय नहीं होता जब तक वह घटना घट नहीं जाती। वैदिक विधिशास्त्र और आज के विधिशास्त्र में यहाँ अन्तर है।
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