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याज्ञवल्क्य और गार्गी (१४/३/८/१) संवाद |
लोक और पृथिवीलोक के ऊपर नीचे एवं मध्य में व्याप्त स्वयं भी जो द्युलोक पृथिवी लोक रूप ही है, जिसे भूत भुवत और भविष्यत् कहते हैं, वह आकाश में ओत-प्रोत है। यह आकाश तत्व अक्षर अस्थल, अहस्व, अदीर्घ अलोहित, अस्नेह, अच्छाय, अतम, अवायु, अनाकाश, असंग जरस्, अचक्षु, अश्रौत्र, अवाक्, अतेज, अप्राण, अमुख, अमाप, अनन्तर और अबाह्य है। इसी के शासन में सारी प्राकृतिक शक्तियां ऋत का अनुगमन करती है।
बहुत से लोगों के पूंछ लेने पर वाचवतवी गार्गी बोली, पूज्य ब्राह्मणों। अब मैं इनसे दो प्रश्न करूंगी यदि यह मेरे उन दोनों प्रश्नों का उत्तर दे देंगे तो हममें से कोई भी इन्हें बाद में नहीं जीत पायेगा। ब्राह्मणों ने कहा, पूंछो ।
गार्गी ने पूंछा, याज्ञवल्क्य - जिस समय काशी या विदेह का रहने वाला कोई वीर वंशज प्रत्यंचा हीन धनुष पर प्रत्यंचा चढाकर शत्रुओं का अत्यन्त संहार करने वाले, दो वाणों वाले धनुष को हाथ मे लेकर खड़ा हो जाय, उसी प्रकार दो प्रश्न लेकर मैं तुम्हारे सामने उपस्थित होती हूँ। तुम मुझे इन दो प्रश्नो का उत्तर दो।
इस पर याज्ञवल्क्य ने कहा, पूंछ ले गार्गी गार्गी- याज्ञवल्क्य ! जो धुलोक से ऊपर है, जो पृथ्वी से नीचे है, जो द्युलोक और पृथ्वी के मध्य मे है स्वयं भी जो चुलोक और पृथ्वी लोक है और जिन्हें भूत, भुवत और भविष्यत् कहते हैं, वे किसमे ओतप्रोत हैं? याज्ञवल्क्य ने कहा, गार्गी । वे सब आकाश में ओत प्रोत हैं। वह बोली, याज्ञवल्क्य । जिसने मुझे इसका उत्तर दिया उस तुझको नमस्कार है। अब दूसरे प्रश्न का उत्तर देने के लिए तैयार हो जाइये। याज्ञवल्क्य ने कहा, पूंछ ले गार्गी गार्गी ने पूंछा, आकाश किसमें ओत प्रोत है? याज्ञवल्क्य ने कहा, गार्गि उस तत्व को ब्रह्मवेत्ता अक्षर कहते हैं। वह न मोटा है, न पतला है, छोटा है न बडा, न लाल है, न द्रव है, न तम है न छाया है, न वायु है, न आकाश है, न संग है न रस है, न तेज है, न प्राण है, न मुख है, न माप है, न इसमे अन्दर है न बाहर है, वह कुछ भी नही खाता, उसे कोई भी नहीं खाता।
हे गार्गि उस अक्षर तत्व के प्रशासन में सूर्य और चन्द्रमा द्युलोक और पृथ्वी लोक, निमेष मुहुर्त, दिन रात, पक्ष, मास, ऋतु और संवत्सर विवृत होकर स्थित है। उस अक्षर के प्रशासन में ही पूर्व वाहिनी नदिया और अन्य नदियां श्वेतपर्वतों से बहती हैं। उसस अक्षर के प्रशासन में ही मनुष्यदाता की प्रशंसा करते हैं। देव यजमान का और पितर दव होम का अनुवर्तन करते हैं।
जो कोई इस लोक में उस अक्षर को न जानकर हवन करता है, यज्ञ करता है, सहस्रों वर्ष तप करता है, उसका वह सारा कर्म नाशवान् होता है, जो कोई इस अक्षर को बिना जाने इस लोक से मर जाता है, कृपण है और जो उस अक्षर को जानकर मरता है वह ब्राह्मण है। यह अक्षर स्वयं दृश्य नहीं अपितु द्रष्टा है, श्रव्य नहीं श्रोता है, मननीय नहीं मन्ता है, स्वयं अविज्ञेय होकर विज्ञाता है। इससे भिन्न कोई भी द्रष्टा, श्रोता, मन्ता और विज्ञाता नहीं है। उसी में आकाश ओतप्रोत है।
गार्गी ने कहा, हे पूज्य ब्राह्मणों । आप मे से कोई भी इन्हें ब्रहमोघ मे नहीं जीत सकेगा। इतना कहकर गार्गी चुप हो गई।
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