वैदिक संवाद,
वैश्वानर अग्नि : अरुण, सत्ययज्ञ, जावाल, बुडिल, जनशांर्कराक्ष्य और अश्वपति संवाद (शत०ब्रा०१०/६/१/१) |
सत्ययज्ञ, पौलुषि, महाशाल, जाबाल, बुडिल, आश्वतराश्वि इन्द्रघुम्न और जन शार्कराक्ष्य - ये सब अरूण औपवश के पास गये। वे अरुण से वैश्वानराग्नि को जानने के लिए उनके पास बैठ गये । उन्हें वैश्वानराग्नि को उपदेश करने में अरुण समर्थ न हो सके। अब सबों ने मिलकर सोचा कि केकय के राजा अश्वपति वैश्वानर अग्नि को जानते हैं। उनके पास चला जाय। वे सब केकय नरेश अश्वपति के पास गये। केकयनरेश ने उन सब के स्वागत में सब को पृथक-पृथक आवास प्रदान किया । पृथक-पृथक पूजा की तथ उन्हें पृथक-पृथक सोमयाग में ऋत्विक चुनकर दक्षिणा देने के लिए कहा। वे लोग राजा को बिना अपना आशय बताये ही समित्पाणि होकर उनके पास गये और कहा, मैं तुम्हारे पास आया हूं। अश्वपति ने कहा, आप लोक ऐश्वर्य सम्पन्न वेदवेत्ता हैं, वेदवेत्ता के पुत्र हैं, भला मेरे पास क्या सीखने आये हैं। ब्राह्मणों ने कहा, भगवन्। इस समय आप ही वैश्वानर अग्नि को जानते हैं। उसे हमें बता दीजिए। अश्वपति ने कहा, हां मैं इस समय वैश्वानर अग्नि को जानता हू। समिधाओं को अग्नि पर रख दो। मेरे पास आओ।
अश्वपति ने अरूण औपवेशि से पूछा, गौतम! तुम वैश्वानर किसे समझते हो ?
अरूण ने कहा, मैं पृथिवी को वैश्वानर समझता हूं।
अश्वपति ने कहा, ठीक है, पृथिवी प्रतिष्ठा वैश्वानर है, तुम प्रतिष्ठा वैश्वानर को जानते हो, इसी से तुम प्रजाओं और पशुओं से प्रतिष्ठित हो । जो प्रतिष्ठा वैश्वानर को जानते हैं, मृत्यु को जीत लेना है। सम्पूर्ण आयु प्राप्त करता है। यह पृथिवी रूप, प्रतिष्ठा, वैश्वानर के दोनों पाद हैं। यदि तुम यहां न आये होते तो तुम्हारे पैर चलने में असमर्थ हो जाते तुम्हें केवल वैश्वानर के पाद-भाग का ही ज्ञान रह जाता।
दूसरी बार अश्वपति ने पौलुषि सत्ययज्ञ से पूछा- 'प्राचीन योग्य तुम किसे वैश्वानर समझते हो ।
सत्ययज्ञ ने कहा, 'राजन् मैं जल को वैश्वानर समझता हूं।
ठीक है, जल रयि वैश्वानर है। तुम रयि वैश्वानर को जानते हो, जो इस रयि वैश्वानर को जानता है वह रयिमान पुष्टिमान् होता है। मृत्यु को जीत लेता है। भरपूर आयु जीता है। जल वैश्वानर की वस्ति (मूल) है। यदि तुम यहां न आये होते तो वस्ति तुम्हें छोड़ देती और तुम्हें वैश्वानर की वस्ति मात्र का ज्ञान होता ।
अश्वपति ने महाशाल जावाल से पूँछा, औपमन्यव तुम किसे वैश्वानर समझते हो।
जाबाल ने कहा - राजन् मैं आकाश को वैश्वानर मानता हूँ।
अश्वपति ने कहा, ठीक है यह आकाश 'बहुल' वैश्वानर है। तुम बहुल वैश्वानर को जानते हो। इसलिए तुम बहुत सी प्रजाओ तथा पशुओं से युक्त हो । जो इस बहुल वैश्वानर को जानता है, मृत्यु को जीत लेता है। भरपूर आयु जीता है। यह बहुल आकाश वैश्वानर की आत्मा है । यदि तुम यहां न आये होते तो आत्मा तुम्हें छोड़ देती । तुम्हे वैश्वानर की आत्मा मात्र का ज्ञान रह जाता।
अश्वपति ने बुडिल आश्वातराश्वि से पूछा, तुम किसे वैश्वानर समझते हो ?
बुडिल ने कहा, राजा मैं वायु को वैश्वानर मानता हूँ।
अश्वपति ने कहा, "ठीक है, यह पृथग्वर्त्मा वैश्वानर है तुम पृथग्वर्त्मा वैश्वानराग्नि को जानते हो, इसलिए तुम्हारे पीछे-पीछे पृथक-पृथक रथश्रेणियाँ चलती हैं। जो पृथग्वर्त्मा वैश्वानर को जानता है मृत्यु को जीत लेता है। पृथग्वर्त्मा वायु वैश्वानर का प्राणरूप है। यदि तुम यहां न आते तो प्राण तुम्हें छोड़ देता, तुम्हें केवल वैश्वानर के ही प्राण का ज्ञान रहता ।
अश्वपति ने इन्द्रद्युम्न से कहा, तुम किसे वैश्वानर समझते हो।
इन्द्रद्युम्न ने कहा, राजन् में आदित्य को वैश्वानर समझता हूं। अश्वपति ने कहा, ठीक है यह सुततेजा वैश्वानर है। तुम सुततेजा वैश्वानर को जानते हो। इसलिए तुम्हारे यज्ञ - गृह में अभिषुत सोम खाया जाता रहता है- पुरोडाश खाया जाता रहता है किन्तु क्षीण नहीं होता। जो सुततेजस् वैश्वानर को जानता है, मृत्यु को जीत लेता है, भरपूर आयु जीता है, यह आदित्य वैश्वानर का नेत्र है। यदि तुम वहां न आये होते तो नेत्र तुम्हें छोड़ देता । तुम्हें वैश्वानर के नेत्रमात्र का ज्ञान रह जाता।
अब अश्वपति ने जन शार्कराक्ष्य से पूछा, सावयवस् तुम किसे वैश्वानर समझते हो ?
जनशांर्कराक्ष्य ने कहा, राजन् मैं द्युलोक को वैश्वानर समझता हूँ ।
अश्वपति ने कहा, ठीक है। यह अतिष्ठा वैश्वानर है। तुम अतिष्ठा वैश्वानर को जानते हो। इसलिए तुम अपने से समान लोगों का अतिक्रमण कर जाते हो। जो इस अतिष्ठा वैश्वानर को जानता है, मृत्यु को जीत लेता है। भरपूर आयु जीतता है। यह द्युलोक वैश्वानर की मूर्धा है। यदि तुम यहां न आये होते तो मूर्धा तुम्हारा परित्याग कर देती । तुम्हें वैश्वानर की मूर्धा मात्र का ज्ञान रह जाता।
हे ब्राह्मणों। तुम लोग वैश्वानर के अवयव मात्र को जानते हो। इसीलिए पृथक्-पृथक् अननमक्षण किये हो । प्रदेशमात्र में स्थित वैश्वानर को जानकर देवता लोग अति सम्पन्न हो गये। जिस वैश्वानर को तुम सब ने पृथक् पृथक बताया, उसे मैं इस प्रकार बताऊंगा कि वह कैसे प्रदेश मात्र में स्थित है।
मूर्धा अतिष्ठा वैश्वानर है। नेत्र सुततेजा वैश्वानर है। नासिका रन्ध्र पृथग्वर्त्मा वैश्वानर है। आकाश बहुल वैश्वानर है। जब रत्रि वैश्वानर है। चिबुक प्रतिष्ठा वैश्वानर है । यही पुरूष ही वैश्वानर अग्नि है। जो पुरूष रूप वैश्वानर पुरूष के ऊर्ध्व - भाग में प्रतिष्ठित वैश्वानर को जानता है, मृत्यु को जीत लेता है। भरपूर आयु जीता है। वैश्वानर का उपदेश करने वाले को वैश्वानर हिंसित नहीं करता है।
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