प्रजापति के पुत्र के रूप में मरीचि उत्पन्न हुए तथा मरीचि के पुत्र कश्यप हुए। आगे चलकर दक्ष की पुत्रियाँ कश्यप की तेरह दिव्य पत्नियों बनी। जिनका नाम अदिति, दिति, यनु, काला, दनायु, सिहिका, मुनि, कोधा, विश्वा और वरिष्ठा, सुरभि विनता तथा कद्र था। इनसे ही देव, असुर गन्धर्व, सर्प, राक्षस, पक्षी, पिशाच तथा अन्य जातियों उत्पन्न हुई। इन पुत्रियों में से देवी अदिति ने भाग, अर्यमन् और अंश, मित्र और वरूण धातु और विधातु महातेजस्वी विवस्वान्, त्वष्टा, पूषन् तथा इन्द्र और विष्णु नामक बारह पुत्रों को जन्म दिया। इस प्रकार मित्र एवं वरुण का युग्म अदिति से उत्पन्न हुआ। इनके द्वारा उर्वशी के साथ समागम करने के पश्चात् कुम्भ से वसिष्ठ ऋषि का जन्म हुआ। ऋषि वसिष्ठ और उनके वंशज हर प्रकार के यज्ञीय कर्मों से संम्बद्ध होने के कारण यज्ञों मे दक्षिणा प्राप्त करने वाले श्रेष्ठ ब्राह्मण बन गये थे।
भाल्लविनों की एक श्रुति में यह कहा गया है कि प्रत्येक व्यक्ति को वसिष्ठ के उन सभी वशजों को दक्षिणा से सम्मानित करना चाहिए जो कि आज भी यज्ञ सत्र पर उपस्थित होते हों।
मैत्रावरुण के पुत्र ऋषि वसिष्ठ ने अग्निम्' से आरम्भ अगले १६ सूक्तों में अग्नि की स्तुति की है, जहाँ जुषत्वनः आप्री मंत्रों से युक्त हैं।
इसके पश्चात् प्राग्नेय 'प्रसमाज' और 'प्राग्नेय भी जिसमें तीन ऋचाएं है, वैश्वानर को सम्बोधित किया गया है त्येह से आरम्भ मंत्र इन्द्र को सम्बोधित किया गया है, जिसके अन्तर्गत पन्द्रह सूक्त से मरुतों की नेपातिक स्तुति की गयी है। 'न किः सुदासः चः" ऋचा में तथा तेनप्तुः' से आरम्भ चार ऋचाओं में वसिष्ठ द्वारा पैजवन सुदास के दान का उल्लेख किया गया है। "शिवव्य च" को उन लोगों ने इन्द्र को सम्बोधित सूक्त अथवा एक संवाद सूक्त कहा है।
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