घोषा विदुषी की कथा

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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  "घोषे ।" कक्षीवत ने सस्नेह कन्या को पुकारा ।

"पित ।" कुसुम सी फुदकती बालिका ऋषि की गोंद में आ गई।

  बालिका उषा तुल्य सुन्दर थी पिता की प्रतिमूर्ति थी। स्थान की शोभा थी उससे सब खेलते थे, सब स्नेह करते थे, आश्रम के पशु-पक्षी वृक्ष, जड-चेतन पुष्प सबकी प्रिय थी। खिलौना थी ।

 समय दौडता गया । घोषा युवती हुई। युवती से प्रौढा हुई। प्रौढ़ा से वृद्धा हुई उसे पति नहीं मिला। उसका वरण किसी नें न करना चाहा । कक्षीवत ने बहुत प्रयास किया। वर उसे देखने आते किन्तु उसका शरीर विकृत था। शरीर में आकर्षण नहीं था ।

कक्षीवत ने कन्या के विवाह की आशा त्याग दी। कोई त्यागी पुरुष नहीं मिला। उसकी जीवन नैया पार लगानें के लिए कोई नहीं हुआ।

  एक समय आया । विवाह की आशा सर्वथा त्याग देनी पडी। कक्षीवत उदास हो गये। घोष साठ वर्ष की हो गयी। उसने अपना मन आश्रम मे लगाया । स्वाध्याय में चित्तवृत्तियों को केन्द्रस्थ किया। अग्नि-उपासना में आत्मसमर्पण कर दिया।

  उसका जीवन नियमत था । आहार नियमित था। विहार नियमित था । विराम नियमित था । क्रिया-प्रतिक्रिया विहीन जीवन पत्त्थर तुल्य हो गया था। घोषा के लिए प्रकृति सौन्दर्य में रस नही रह गया था। हर एक दिन उसके लिए भार लेकर आता और निशा भार हल्का करउसे सुला देती ।

  एक दिन की बात थी वह प्लक्ष तरू छाया में बैठी थी। शीतल मलय चचल था। आकाशगामी पक्षी गीत गाते चले जा रहे थे। पुष्पित क्यारियाँ सुरभि दान रत थीं। गाय बछडे को दूध पिला रही थी। भ्रमर भ्रमरी के पीछे भाग रहा था । मृग अपनी हरिणी के साथ था। मृग- शावक के साथ था । अपनी छोटी गृहस्थी के साथ था । न्यग्रोध की छाया में वे साथ बैठे थे। नील गगन में पश्चिम से बरसे उज्ज्वल मेघ आते, उडते चले जाते। भूमि पर उनकी छाया पड़ती। उनके साथ भागती । घोषा की कल्पना जैसे जागी।

  पिता कक्षीवत का अनायास ध्यान आया। ध्यान के साथ स्मृतियाँ हरी हुई । पूज्य पिता ने अश्विनी कुमारों की कृपा से दीर्घ आयु शक्ति, स्वास्थ्य लाभ किया था। उन्हें यौवन, आरोग्य एवं ऐश्वर्य मला था। उन्हीं नासत्यों की कृपा से सर्वभूत विष को उन्होंने प्राप्त किया था। साठ वर्षीया वृद्धा घोषा के श्वेत केश किंचित मरूत प्रवाह में लहराये। उसने जैसे भूले यौवन का अनुभव किया। तपस्विनी घोषा मन्त्रदृष्टा हुई। उसे सूक्तों का दर्शन हुआ। उसने अश्विनीकुमारों का शुद्ध कण्ठ से स्तवन किया: "अश्विनीकुमार आपका रासभ युक्त रथ सर्वत्र गमनशील है। आपके निमित्त सुदृढ रथ का रात-दिन यजमान आहवान करते हैं। उसी रथ का स्मरण करते हैं। जिस प्रकार पिता का स्मरण कर मन प्रसन्न होता है, उसी प्रकार आपके रथ का स्मरण कर हम सुखी होते हैं।"

 "दन अपने रथ पर आसीन कर राजा पुरूमित्र की कन्या शुन्धव को आप ले गये। विमद के साथ उसका शुभ विवाह सम्पन्न कराया। आपको गर्भिणी वधिमति ने आहूत किया था। उसके दृःख को कृपापूर्वक आपने सुना उसे सुखपूर्वक वेदनारहित प्रसव कराया।"

 "स्वर्वेद्य आपने विश्पला को लोहे का पाँव लगाया। उसे गमन योग्य बनाया। रेम को शत्रुओ ने मरणासन्न समझ कर गुफा में फेंक दिया था। उस समय आपने अग्निकुण्ड को शीतल कर दिया था।"

 "आरोग्यवर्धन' टाप ने वृद्धा शयु नामक गौ को पुनः पयस्विनी बनाया। वृक मुख स्थित वार्तिका पक्षी का उद्धार किया। उसे आरोग्य प्रदान किया। अश्विनौ टपने निन्यानवे अश्वों के साथ एक श्वेत वर्ण अश्व राजा पेदु को दिया था। उस अश्व के अवलोकन मात्र से शत्रु सेना पलायन कर जाती थी।"

 भृज्यु का समुद्र से आपने उद्धार किया। आपने राजा वृश, महर्षि अत्रि तथा उशना कवि की रक्षा की दानी आपके मित्र होते हैं। वृद्धा घोषा ने अश्विनी कुमारों की स्तुति करते हुए उन्हें अपने मानस मन्दिर में देखा। श्रद्धा-भक्तिपूर्वक शिरसा उसकी शुष्क जर्जर काया से अश्विनी कुमारों के पवित्र ध्यान द्वारा उद्भूत प्रभा उत्पन्न होने लगी। उसकी पलकें मिल गई।

"घोषा अश्विनीद्वय ने स्नेहपूर्वक कहा, "तुम्हारा स्तवन मार्मिक है। हम तुमसे प्रसन्न हैं।"

"महात्मन" घोषा ने अपने दोनों हाथों से अश्विनी कुमारों के चरण कमलों को दृढतापूर्वक पकडते हुए कहा, "पगु और पतित के आप शरण हैं। नेत्रहीन, बलहीनो, के आप चिकित्सक हैं।"

"करूणापते !" घोषा ने नत नेत्र सलज्ज निवेदन किया, "मैं पति-सुख से वंचित हूँ। पति द्वारा प्राप्त होने वाले सुख से मै अनभिज्ञ हूँ ।"

"तुम्हें पति प्राप्त होगा ।" अश्विनी कुमारों ने प्रसन्न होकर कहा । "भगवन! " घोषा की शुष्क त्वचा में जैसे रस सचारित हो गया। सलज्ज बोली, "मैं बलवान स्नेहशील पति को आपकी दया से प्राप्त करूँ, यही मेरी कामना है।'

“घोषा” अश्विनीकुमारों ने कहा, "तुम युवती होओगी। तुम्हारी यह जरा तुम्हारे इस जीर्ण शरीर से पतझड़ के वृक्ष के पत्तों की तरह स्वतः गिर जायेगी। तुम्हे पति प्राप्त होगा। तुम सुन्दरी होओ।"

  देखते-देखते वृद्धा घोषा युवती हो गई। उसके श्वेत केश काले हो गये। शरीर दोष दूर हो गया। घोषा अपना स्वरूप बदलता देखकर अश्विनीद्वय के चरणों पर गिर पड़ी। कभी घोषा ६० वर्ष की वृद्धा थी। अब वह हो गई सर्वाङ्ग सुन्दरी युवती । उसकी रूप माधुरी पर रीझ कर सुन्दर पति ने उसका वरण किया। घोषा के जीवन का बसन्त पुनः पूर्ण गरिमा में लौट आया। कालान्तर में मन्त्रद्रष्टा घोषा पतिव्रत से वृद्धि करती गयी। उसने स्वस्थ, नीरोग शरीर से गार्हस्थ जीवन का सुखमय बनाया।

नोट 

  घोषा एक युवती की वेदनामय कहानी है। इसमें युवती के मन का मनोवैज्ञानिक चित्रण किया गया है। घोषा का वृद्धा हो जाने पर अश्विनीकुमारों के द्वारा पुन उसे सुन्दर युवती बना देने का वर्णन मिलता है शरीर के कायाकल्प करने की कोई प्रक्रिया वैदिक काल में रही होगी। आयुर्वेद के अनुसार कुछ लोग कायाकल्प कराते है. परन्तु वह फल नही प्राप्त होता, जिसका वर्णन वेद में मिलता है। इस विद्या का पता लगाना चिकित्सकों का पावन कर्तव्य माना जायगा।

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