सुदामा होना सरल नहीं है...!

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krishna sudama
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  जैसे ही द्वारकाधीश ने दूसरी मुट्ठी चावल उठा कर फाँक लगानी चाही, रुक्मिणी ने जल्दी से उनका हाथ पकड़ कर कहा, 

"क्या भाभी के लाये इन स्वादिष्ट चावलों के स्वाद का सारा सुख अकेले ही उठाएंगे स्वामी ? हमें भी तो ये सुख उठाने का अवसर दीजिये।"

द्वारकधीश के अधरों पर एक अर्थपूर्ण स्मित उपस्थित हो गयी। उन्होंने चावल वापस उसी पोटली में डाले और उसे उठाकर अपनी पटरानी को दे दिया।

सुदामा के साथ बातें करते हुए कब कृष्ण उनके पाँव दबाने लगे, ये सुदामा को पता ही नहीं चला। 

सुदामा सो चुके थे किंतु कृष्ण अपनी ही सोच में मगन उनके पाँव दबाते हुए बचपन की बातें करते चले जा रहे थे, कि तभी रुक्मिणी ने उनके कंधे पर हाथ रखा।

कृष्ण ने चौंककर पहले उन्हें देखा और फिर सुदामा को, फिर उनका आशय समझ कर वहाँ से उठकर अपने कक्ष में चले आये।

कृष्ण की ऐसी मगन अवस्था देखकर रुक्मिणी ने पूछा, 

"स्वामी आज आपका व्यवहार बहुत ही विचित्र प्रतीत हो रहा है। आप, जो इस संसार के बड़े से बड़े सम्राट के द्वारका आने पर उनसे तनिक भी प्रभावित नही होते हैं, वो अपने मित्र के आगमन की सूचना पर इतने भावविह्वल हो गए कि भोजन छोड़कर नंगे पाँव उन्हें लेने के लिए भागते चले गए।

आप, जिनको कोई भी दुख, कष्ट या चुनौती कभी रुला नही पाई, यहाँ तक कि जो गोकुल छोड़ते समय मैया यशोदा के अश्रु  देखकर भी नहीं रोये, वे अपने मित्र के जीर्ण शीर्ण, घावों से भरे पाँवों को देखकर इतने भावुक हो गए कि अपने अश्रुओं से ही उनके पाँवों को धो दिया।

कूटनीति, राजनीति और ज्ञान के शिखरपुरुष आप, अपने मित्र को देखकर इतने मगन हो गए कि बिना कुछ भी विचार किये उन्हें समस्त त्रिलोक की संपदा एवं समृद्धि देने जा रहे थे।"

कृष्ण ने अपनी उसी आमोदित अवस्था में कहा,

"वह मेरे बालपन का मित्र है रुक्मिणी"

"परंतु उन्होंने तो बचपन में आपसे छुपाकर वो चने भी खाये थे जो गुरुमाता ने उन्हें आपसे बाँटकर खाने को कहे थे? अब ऐसे मित्र के लिए इतनी भावुकता क्यों?"

सत्यभामा ने भी अपनी जिज्ञासा रखी

कृष्ण मुस्कुराये,

"सुदामा ने तो वह कार्य किया है सत्यभामा, कि समस्त सृष्टि को उसका आभार मानना चाहिए।

वो चने उसने इसलिए नहीं खाये थे कि उसे भूख लगी थी बल्कि उसने इसलिए खाये थे क्योंकि वो नहीं चाहता था कि उसका मित्र कृष्ण दरिद्रता देखे।

उसे ज्ञात था कि वे चने आश्रम में चोर छोड़कर गए थे, और उसे यह भी ज्ञात था कि उन चोरों ने वे चने एक ब्राह्मणी के गृह से चुराए थे। उसे यह भी ज्ञात था कि उस ब्राह्मणी ने यह श्राप दिया था कि जो भी उन चनों को खायेगा, वह जीवनपर्यंत दरिद्र ही रहेगा।

सुदामा ने वे चने इसलिए मुझसे छुपा कर खाये ताकि मैं सुखी रहूँ।

वो मुझे ईश्वर का कोई अंश समझता था, तो उसने वे चने इसलिए खाये क्योंकि उसे लगा कि यदि ईश्वर ही दरिद्र हो जायेगा तो संपूर्ण सृष्टि ही दरिद्र हो जायेगी। 

सुदामा ने संपूर्ण सृष्टि के कल्याण के लिए स्वयं का दरिद्र होना स्वीकार किया।"

"इतना बड़ा त्याग!" रुक्मिणी के मुख से स्वतः ही निकला।

"मेरा मित्र ब्राह्मण है रुक्मिणी, और ब्राह्मण ज्ञानी और त्यागी ही होते हैं। उनमें जनकल्याण की भावना कूट-कूट कर भरी होती है। कुछ अपवादों को यदि छोड़ दिया जाए तो ब्राह्मण ऐसे ही होते हैं... कम से कम इस युग में तो यह सत्य है

  एक बात और समझना, रुक्मिणी और सत्यभामा...! ब्राम्हणों की महत्ता क्यों समझा रहा हूं मैं...इस पर ध्यान देना, अमीरी गरीबी ये सब चक्र है माया के, चलते रहते हैं। नियति अनुसार कई लोग दरिद्र हैं...लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि जिसके मन में अपनी दरिद्री पर कोई त्रास नहीं हो, जो दरिद्री के बावजूद किसी लक्ष्यपति से अधिक संतुष्ट हो, उसके संबल का कोई सानी नहीं है, यह चरित्र रख पाना सरल नहीं है, विपन्नता का भी आनंद लेना, ये सभी वर्गों में ब्राम्हण सरलता से कर पाते हैं...और जब ये ब्राम्हण मेरा इतना अभिन्न मित्र हो, फिर भी वो अपनी नियति के विकल्प को इतनी सुदृढता से जिए, तो वो अद्वितीय है।

सुदामा होना सामान्य नहीं है..!

अब तुम ही बताओ ऐसे मित्र के लिए हृदय में प्रेम नहीं तो फिर क्या उत्पन्न होगा प्रिये?

गोकुल छोड़ते हुए मैं इसलिए नहीं रोया था क्योंकि यदि मैं रोता तो मेरी मैया तो प्राण ही छोड़ देती।

परंतु, मेरे मित्र के ऐसे पाँव देखकर, उनमें ऐसे घावों को देखकर मेरा हृदय भर आया रुक्मिणी, उसके पाँवों में ऐसे घाव और जीवन में उसकी ऐसी दशा मात्र इसलिए हुई क्योंकि वह अपने इस मित्र का भला चाहता था।

पता है रुक्मिणी, परिवार को छोड़कर किसी और ने कभी इस कृष्ण का इतना भला नहीं चाहा।

लोग तो मुझसे उनका भला करने की अपेक्षा रखते हैं। बस सुदामा जैसे मित्र ही होते हैं जो अपने मित्र के सुख के लिए स्वेच्छा से दरिद्रता एवं कष्ट का आवरण ओढ़ लेते हैं। 

ऐसे मित्र दुर्लभ होते हैं और न जाने किन पुण्यों के फलस्वरूप मिलते हैं। अब ऐसे मित्र को यदि त्रिलोक की समस्त संपदा भी दे दी जाए तो भी कम होगा।"

कृष्ण अपने भावुकता से भर्राये हुए स्वर में बोले। 

इधर कक्ष में समस्त रानियों के नेत्र सजल थे और उधर कक्ष के बाहर  चुपचाप खड़े सुदामा के नेत्रों से गंगा यमुना बह रही थीं।

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भागवत दर्शन: सुदामा होना सरल नहीं है...!
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