याज्ञवल्क्य कहोल संवाद (शत. १४/३/५/१)

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
0
याज्ञवल्क्य कहोल संवाद (शत. १४/३/५/१)
याज्ञवल्क्य कहोल संवाद (शत. १४/३/५/१) 


  आत्मा ही ब्रह्म है। वह शरीर के धर्मों से रहित है। शोक, मोह, जरा मृत्यु आदि शरीर के धर्म हैं, आत्मा के नहीं, जो पुत्र, वित्त एवं लोकैषणाओं से ऊपर उठकर आत्मदर्शन कर लेता है। वह ब्रह्मरूप ही हो जाता है।

याज्ञवल्क्य से कौषीतकेय कहोल ने पूछा - याज्ञवल्क्य, जो भी साक्षात् अपरोक्ष ब्रह्म और सर्वान्तरात्मा है। उसकी तुम मेरे प्रति व्याख्या करो। 

याज्ञवल्क्य - यह तुम्हारी आत्मा सर्वान्तर है । 

कहोल - याज्ञवल्क्य, यह बताओं कि सर्वान्तर कौन है ? 

याज्ञवल्क्य - जो क्षुधापिपासा, शोक, मोह, जरा, और मृत्यु से परे है, उस इस आत्मा को जानकर ब्राह्मणपुत्रैषणा वित्तैषणा, लौकषण से रहित हो भिक्षाचरण करते हैं वही वित्तैषणा है और जो वित्तैषणा है और जो वित्तैषणा है वही लोकैषणा है। ये दोनों ही साध्य और साधनेच्छायें एषणायें ही हैं। अत ब्राह्मण पूर्णतया पांडित्य का सम्पादन कर आत्मज्ञान रूप बल से स्थित रहने की इच्छा करे फिर पाण्डित्य को पूर्णतया प्राप्त कर वह मुनि होता है। मौन और अमौन का पूर्णतया सम्पादन करके ब्राह्मण कृतकृत्य होता है। वह किस प्रकार ब्राह्मण होता है ? जिस प्रकार भी हो ऐसा ही ब्राह्मण होता है। इससे भिन्न और सब नाशवान है। 

यह सुनकर कौषीतकेय कहोल चुप हो गया। 

  वायुरूप सूत्र के द्वारा यह लोक परलोक और सम्पूर्णभूत संग्रहीत है। इस सूत्र का नियन्ता अन्तर्यामी अमृत है, जो पृथिवी, अप्, अग्नि, अन्तरिक्षवायु द्युलोक, आदित्य, दिक्, चन्द्रतारक, आकाश, तम तेज, भूत तथा भूतगत प्राण, वाक्, चक्षु, श्रोत्र, मन त्वक्, विज्ञान एवं रेतस् आदि में व्याप्त है। ये सब जिसके शरीर हैं जिसे ये सब नहीं जानते हैं, और इन सब का नियन्ता है, वह आत्मा अन्तर्यामी अमृत है। अदृष्ट, अश्रुत, अमृत, अविज्ञेय होकर भी सबका द्रष्टा, सबका श्रौता, मन्ता और विज्ञाता है।

याज्ञवल्क्य से आरूणि उद्दालक ने पूछा - याज्ञवल्क्य, हम मद्रदेश में यज्ञशास्त्र का अध्ययन करते हुए काप्य पतजल के घर में रहते थे। उसकी भार्या गन्धर्वगृहीत थी । हमने उससे पूछा, तुम कौन हो ? उसने कहा, मैं आधर्वकबन्ध हूं। उस गन्धर्व ने काप्य पतंजल और याज्ञिकों से पूछा, काप्य क्या तुम उस सूत्र को जानते हो जिसके द्वारा यह लोक और परलोक साथ ही सारे भूत ग्रथित हैं। तब काप्य पतंजल ने कहा, भगवन् मैं उसे नहीं जानता। उसने फिर पूछा, काप्य! क्या तुम उस अन्तर्यामी को जानते हो, जो इस लोक परलोक और समस्त भूतों को भीतर से नियमित करता है। काप्य ने उत्तर दिया, भगवन्! मैं उसे नहीं जानता। उस गन्धर्व ने समझाया, काप्य! जो कोई उस सूत्र और उस अन्तर्यामी को जानता है, वह ब्रह्मवेत्ता है, वह देववेत्ता है, वह भूतवेत्ता है, आत्मवेत्ता और सर्ववेत्ता है।

इसके पश्चात् गन्धर्व ने उन सबसे सूत्र और अन्तर्यामी को बताया। उसे मैं जानता हूं। हे याज्ञवल्क्य! यदि उस सूत्र और अन्तर्यामी को न जानने वाले होकर ब्रह्मवेत्ता की स्वभूत गायों को लेकर जाने पर तुम्हारा मस्तक गिर पड़ेगा। याज्ञवल्क्य ने कहा, हे गौतम! मैं उस अन्तर्यामी को जानता हूं। 

आरूणि - ऐसा तो कोई भी कह सकता है। यदि जानते हो तो बताओ। 

याज्ञवल्क्य ने कहा - गौतम वायु ही वह सूत्र है, वायु रूप सूत्र के द्वारा लोक, परलोक और सारे के सारे प्राणी ग्रथित हैं। इसीलिए मृत व्यक्ति के लिए कहते हैं कि इसके अंग विस्रस्त हो गये हैं। 

आरुणि ने अनुमोदन किया - ठीक है, उस अन्तर्यामी को बताओ। 

याज्ञवल्क्य - जो पृथ्वी में रहने वाल पृथ्वी के भीतर है, पथ्वी उसे नहीं जानती, जिसका पृथ्वी शरीर है, पृथ्वी के अन्दर रहकर इसका नियमन करता है, यह तुम्हारा आत्मा अन्तर्यामी अमृत है जो जल मेंरहने वाला जल के भीतर है, जिसे जल नही मानता, जल जिसका शरीर है और जो भीतर रहकर जल का नियमन करता है, वह तुम्हारा आत्मा अन्तर्यामी अमृत है जो अग्नि में रहने वाला अग्नि के भीतर रहता है। अग्नि जिसे नहीं जानता। अग्नि जिसका शरीर है, और अग्नि के भीतर रहकर उसका नियमन करता है। वह तुम्हारा आत्मा अन्तर्यामी है। जो अन्तरिक्ष में रहने वाला अन्तरिक्ष है भीतर है, जिसे अन्तरिक्ष नहीं जानता । अन्तरिक्ष जिसका शरीर है और जो भीतर रहकर अन्तरिक्ष का नियमन करता है, वह तुम्हारा आत्मा अन्तर्यामी अमृत है।

  जो द्युलोक में रहने वाला द्युलोक के भीतर है जिसे द्युलोक नही जानता, द्युलोक जिसका शरीर है, और जो भीतर रहकर द्युलोक का नियमन करता है, वह तुम्हारा आत्मा अन्तर्यामी अमृत है। जो आदित्य में रहने वाला आदित्य के भीतर है जिसे आदित्य नहीं जानता, आदित्य जिसका शरीर है जो भीतर रहकर आदित्य का नियमन करता है, वह तुम्हारा आत्मा अन्तर्यामी अमृत है जिस दिशाओं में रहने वाला दिशाओं के भीतर है, दिशायें जिसे नहीं जानती, जो भीतर रहकर दिशाओं का नियमन करता है, वह आत्मा अन्तर्यामी अमृत है। जो चन्द्रमा और तारों में रहने वाला, चन्द्रमा और तारों के भीतर रहता है, जिसे चन्द्रमा और तारागण नहीं जानते। चन्द्रमा और तारागण जिसकी शरीर हैं, भीतर रहकर जो इनका नियमन करता है, वह आत्मा अन्तर्यामी अमृत है। जो आकाश में रहने वाला आकाश के भीतर रहता है, जिसे आकाश नहीं जानता, आकाश जिसका शरीर है और जो भीतर रहकर आकाश का नियमन करता है, वह तुम्हारा आत्मा अन्तर्यामी अमृत है। जो तम मे रहने वाला तम के भीतर है, तम जिसे नहीं जानता तम जिसका शरीर है, जो भीतर रहकर तम का नियमन करता है, वह तुम्हारा आत्मा अन्तर्यामी अमृत है। जो तेज मे रहने वाला तेज के भीतर है, जिसे तेज नहीं जानता, तेज जिसका शरीर है और जो भीतर रहकर तेज का नियमन करता है, वह तुम्हारा आत्मा अन्तर्यामी अमृत है। यह अधिदैवत दर्शन है। 

  जो समस्त भूतों में स्थित रहने वाला समस्त भूतों के भीतर है जिसे समस्त भूत नहीं जानते, समस्त भूत जिसके शरीर है, और जो भीतर रहकर समस्त भूतों का नियमन करता है, वह तुम्हारा आत्मा अन्तर्यामी अमृत है। अधिभूत और अध्यात्म दर्शन का प्रत्याख्यान कर रहा हू जो प्राण में रहने वाला प्राण के भीतर रहता है, प्राण जिसे नहीं जानता, प्राण जिसका शरीर है, प्राण के भीतर रहकर नियमन करता है। वह तुम्हारा आत्मा अन्तर्यामी अमृत है जो वाणी में रहने वाला वाणी के भीतर है, वाणी जिसे नही जानती, वाणी जिसका शरीर है और जो भीतर रहकर वाणी का नियमन करता है, वह तुम्हारा आत्मा अन्तर्यामी अमृत है। जो नेत्र के भीतर रहने वाला है किन्तु नेत्र उसे नहीं जानता, नेत्र जिसका शरीर है भीतर रहकर जो नेत्र का नियमन करता है, वह आत्मा अन्तर्यामी अमृत है। जो श्रोत्र के भीतर रहने वाला है किन्तु श्रोत्र उसे नहीं जानता, श्रोत्र जिसका शरीर है भीतर रहकर जो श्रोत्र का नियमन करता है, वह आत्मा अन्तर्यामी अमृत है। जो मन के भीतर रहने वाला है किन्तु मन उसे नहीं जानता, मन जिसका शरीर है भीतर रहकर जो मन का नियमन करता है, वह आत्मा अन्तर्यामी अमृत है जो विज्ञान के भीतर रहने वाला है किन्तु विज्ञान उसे नहीं जानता, विज्ञान जिसका शरीर है भीतर रहकर जो विज्ञान का नियमन करता है, वह आत्मा अन्तर्यामी अमृत है। भीतर रहकर जो नियमन करता है, वह आत्मा अन्तर्यामी अमृत है। जो वीर्य मे रहने वाल वीर्य के भीतर है जिसे वीर्य नहीं जानता वीर्य जिसका शरीर है, जो वीर्य के भीतर रहकर वीर्य का नियमन करता है, वह तुम्हारा आत्मा अन्तर्यामी अमृत है। वह दिखाई नहीं देता । किन्तु स्वय द्रष्टा है जो सुनायी नही पडता स्वयं सुनता है, मनन का विषय नहीं होता, स्वयं मनन करता है। विशिष्ट रूप मे ज्ञात नहीं होता स्वयं विशिष्ट ज्ञाता है। यह तुम्हारा आत्मा अन्तर्यामी अमृत है। इससे भिन्न जो भी है वह विनाशशील है। 

   यह सुनकर आरूणि उद्दालक चुप हो गया।

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ

thanks for a lovly feedback

एक टिप्पणी भेजें (0)

#buttons=(Accept !) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Learn More
Accept !
To Top