दीर्घतमा ऋषि की कथा

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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 "ममते ।" बृहस्पति ने अपने ज्येष्ठ भ्राता उचथ्य की भृगुवशीय पत्नी को कामलोलुप दृष्टि से देखा । ममता सुन्दर थी। युवती थी। सरस थी । मधुरभाषिणी थी । आकर्षक थी । स्वर्णमयी प्रतिभा थी। काम सहचरी रति तुल्य रूपवती थी। सहसा उसमें उत्पन्न हुए संकोच ने उसका अप्रतिम रूप और बढ़ा दिया। उस रूप को देखकर बृहस्पति का मन चंचल हो गया।

"बृहस्पति” ममता वस्त्रों में अपने अंग उपांग को समेटती बोली, "आपका यह अशोभनीय व्यवहार? मैं आपके ज्येष्ठ भ्राता की पत्नी हूँ। इस शरीर पर आपका अधिकार नहीं है ।

"यौवन और रूप सबकी आँखें देखती हैं। उन्हें छिपाकर रखना होता, तो देव इतनी सुन्दर रचना क्यों करते!" रति सुख के अभिलाषी बृहस्पति ने लज्जा को तिलांजलि दे दी थी।

"ओह!" ममता सहमी ।

स्थान एकान्त था । पादपों की मंजरियाँ सुरभि दान कर रही थी। मरूत के शीतल स्वास्थ्यकर प्रवाह ने कामोत्तेजित शरीर में बल बढा दिया था । बृहस्पति की सतर्क दृष्टि ने चारो ओर देखा। प्रकृति मुसकरा रही थी। सरोवर में हस हंसिनी किलोलरत थे। प्रफुल्लित थे। कुमुदिनी अमुकुलित थी, पद्म सूर्य को देखकर प्रसन्न था । कुमुदिनी शशि के वियोग मे उदास थी । पुष्पित पुष्प पर भ्रमर बैठी थी। उसके चारो ओर भ्रमर फिरता था। गुनगुनाता था । आकुल होता था । भ्रमराी का पीछा करता उड़ता था ।

  प्रकृति के सरस वातावरण में वृहस्पति आन्तरिक कामजन्य सरसता का अपूर्व अनुभव करने लगे। मन को ढील देने में उन्हे विचित्र अनुभूति होने लगी । ममता के स्पर्श से सुख में खो जाने के लिए तैयार हो गये। वे ममता की ओर बढे ।

  अबला ममता पुरूष बल का सामना न कर सकी। वृहस्पति के बाहुपाश में लता तुल्य सिकुड़ गयी। विकलित ममता ने वृहस्पति से आर्त निवेदन किया, "वृहस्पति मेरे गर्भ में तुम्हारे बड़े भाई की संतान है ।"

"ममता। मैं तुम्हारे रति दान का अभिलाषी हूँ । तुम्हारा गर्भ मेरे कर्म में बाँधा नही डाल सकता।"

वासना के तीव्र प्रवाह मे वृहस्पति प्रवाहित हो चुका था । वर्षाकालीन क्षुद्र नदी की प्रचंड बेगवती धारा की तरह वासना वेग किसी व्यवधान से रूकने वाला नही था। सबका अतिक्रमण करता जलप्लावन के समान बह चला।

"वृहस्पति" गर्भस्थित गर्भ ने वृहस्पति के शुक्रोत्सर्ग के समय कहा, पूर्व से ही सम्भूत हूँ।"

गर्भ का प्रतिरोध बढ़ता गया। कामोत्तेजना मे ठेस लगती रही। रति मैं यहाँ सुख में बाधा पड़ती रही अतृप्त वासना की प्रतिक्रिया प्रतिहिसा में हुई। काममूर्ति कोधमूर्ति में हो गई। उन्होने आवेश में शाप दिया: दीर्घतमा के मार्मिक, दार्शनिक स्तवन से देवताओं को उस पर दया आ गयी । उसे चक्षु प्राप्त हो गये । दीर्घतमा लोक में द्रष्टा तथा देवता बन गया । खिन्न परिचारक षडयंत्र मे लग गये। अपने स्वामी वृद्ध तपस्वी दीर्घतमा से छुटकारा पाने के लिए ।

  दीर्घतमा के परिचारक उसे स्नानार्थ नदी तट पर ले आये। दीर्घतमा की इन्द्रियाँ शिथिल थी । यष्टि का सहारा लेकर खड़ा था। कमर झुकी थी तथापि तपस्वी था । द्रष्टा था। उसकी हत्या सरल नही थी।

  स्नान निमित्त परिचारको के सहारे नदी में उतरा। क्रूर परिचारकों ने उसे गहरे जल में धकेल दिया। दीर्घतमा हाथ-पैर पटकते सहायतार्थ आर्तनाद करने लगा। परिचारक उसे डूबता न देखकर घबराये।

  तन ने अपनी कृपाण निकाली। दीर्घतमा जल में मृत्यु से जूझ रहे थे। त्रेतन ने कृपाण द्वारा उन पर आक्रमण किया। क्रूर त्रेतन को वृद्ध पर दया नहीं आयी ।

आश्चर्य परिचारक भागे। त्रेतन का शस्त्र दीर्घतमा पर आक्रमण नहीं कर सका, बल्कि उसी के शरीर के सिर स्कंध एवं वक्षस्थल के टुकडे उसी की कृपाण से हो गये। उसका मृत शरीर जल मे बह चला ।

 दीर्घतमा संज्ञाशून्य हो गये। जल प्रवाह में बहते रहे। कही सरिता तट पर जाकर लगे। वहाँ वे पुनः जीवन प्राप्त कर सके। शतवर्षीय आयु प्राप्त की। और एक दिन अनेक सूक्तों का द्रष्टा ब्रह्मलीन हो गया। 

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