नहिं राग न लोभ न मान सदा। तिन्ह कें सम बैभव वा बिपदा॥ एहि ते तव सेवक होत मुदा। मुनि त्यागत जोग भरोस सदा॥

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नहिं राग न लोभ न मान सदा। तिन्ह कें सम बैभव वा बिपदा॥ एहि ते तव सेवक होत मुदा। मुनि त्यागत जोग भरोस सदा॥

  उनमें न राग (आसक्ति) है, न लोभ, न मान है, न मद। उनको संपत्ति सुख और विपत्ति (दुःख) समान है। इसी से मुनि लोग योग (साधन) का भरोसा सदा के लिए त्याग देते हैं और प्रसन्नता के साथ आपके सेवक बन जाते हैं॥

राग का अर्थ है कर्मों में,कर्मों के फलों में तथा घटना, वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, पदार्थ इत्यादि में मन का खिंचाव होना, मन की प्रियता होना राग कहलाता है।राग में फंसे हुए व्यक्ति को कभी तृप्ति नहीं मिलती है। राग को मन का मधुमेह इसलिए कहा गया है- यदि मधुमेह का रोग नियंत्रण में रहे तो ठीक है अन्यथा बड़ा प्राणघातक होता है । तरह-तरह की अन्य बीमारियों का जन्मदाता होता है। ठीक इसी प्रकार राग भी नियंत्रण में रहे तो ठीक है अन्यथा काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, ईर्ष्या, द्वेष, चिन्ता, शोक, संशय, भय, तनाव और जिद इत्यादि मनोविकारों को जन्म देता है। इतना ही नहीं बुद्धि और धैर्य का विनाश करता है।बुद्धि के विनाश से ही मनुष्य का सर्वनाश हो जाता है- जैसा कि महाभारत में हुआ था।

  कामना और अभिमान में बाधा उत्पन्न होने पर क्रोध पैदा होता है। अंतःकरण में उस क्रोध का जो सूक्ष्म भाव रहता है,उसको द्वेष (बैर) कहते हैं। सुविख्यात लेखक पंडित रामचंद्र शुक्ल ने द्वेष को क्रोध का अचार कहा है। प्रतिशोध की अग्नि मनुष्य के मन में द्वेष(बैर) के कारण ही देहकती रहती है। इस का विकराल रूप जघन्यतम और अकल्पनीय होता है,देखने और सुनने वालों की रूह कांप जाती है। एडोल्फ हिटलर ने दस लाख से भी अधिक यहूदियों को गैस चेम्बरों में द्वेष के कारण ही शकरगन्दी की तरह निर्ममता से भून दिया था,जो मानवता के माथे पर काला कलंक है।

  अतः कल्पना कीजिए कि राग और द्वेष की विभीषिका जब बड़े- बड़े राष्ट्रों को समूल नष्ट कर सकती है तो व्यक्तिगत जीवन में इनके रहते सुख,शांति और समृद्धि की कल्पना करना तो मृगातृष्णा मात्र है।

  इसलिए हे मनुष्य ! यदि राग-द्वेष के भंवर से अपनी जीवन-नैया बचानी है,तो समय रहते सचेत हो, और आत्मविनिग्रह कर अर्थात् मन को वश में कर। ध्यान रहे,मन में दो तरह की चीजें पैदा होती है- स्फुरणा , संकल्प स्फूरणा (vibration)और संकल्प (Promise)स्फूरणा अनेक प्रकार की होती है और वह पानी की तरंगों की तरह आती-जाती रहती है किंतु जिस स्फूरणा में मन चिपक जाता है, वह संकल्प बन जाती है। संकल्प में दो चीजें रहती है- राग और द्वेष। इन दोनों को लेकर मन में चिंतन होता है।स्फूरणा तो दर्पण के दृश्य की तरह होती है।दर्पण में दृश्य दिखता तो है किंतु दृश्य दर्पण चिपकता नहीं है अर्थात् दर्पण किसी भी दृश्य को पकड़ता नहीं है,जबकि संकल्प कैमरे की फिल्म की तरह होता है, जो दृश्य को पकड़ लेता है।अभ्यास से अर्थात् मन को बार-बार ध्येय में लगाने से स्फूरणाऍ नष्ट हो जाती हैं और वैराग्य से अर्थात् किसी वस्तु,व्यक्ति,घटना,परिस्थिति अथवा पदार्थ आदि में राग महत्त्व न रहने से संकल्प नष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार अभ्यास और वैराग्य से मन में निर्विकारिता आ जाती है और मन वश में हो जाता है,व्यक्ति समता में रहने लगता है।गीता में ‘समता’ को ‘योग’ कहा गया है

योगस्थ: कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।

सिद्ध्यसिद्ध्यो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।

  यदि हम नाव में समुद्र में नौकायन कर रहे हैं, तो यह अपेक्षा करना स्वाभाविक है कि समुद्र की लहरें नाव को हिला देंगी। यदि हम हर बार नाव को लहरों से हिलाने पर परेशान हो जाते हैं, तो हमारे दुख अंतहीन होंगे। और अगर हम लहरों के उठने की उम्मीद नहीं करते हैं, तो हम यह उम्मीद करेंगे कि सागर अपने प्राकृतिक स्व के अलावा कुछ और बन जाए। लहरें समुद्र की एक अविभाज्य घटना हैं। इसी तरह, जैसे ही हम जीवन के सागर से गुजरते हैं, यह सभी प्रकार की लहरें उठाता है जो हमारे नियंत्रण से परे हैं। यदि हम नकारात्मक स्थितियों को खत्म करने के लिए संघर्ष करते रहेंगे तो हम दुख से बच नहीं पाएंगे। लेकिन अगर हम अपने सर्वोत्तम प्रयासों का त्याग किए बिना, हमारे रास्ते में आने वाली हर चीज को स्वीकार करना सीख सकते हैं, तो हमने भगवान की इच्छा के सामने आत्मसमर्पण कर दिया होगा, और यही सच्चा योग होगा।

 याद रखो,संसार में ऊंचा उठने के लिए ‘निद्वेन्द्व’ होने अर्थात राग-द्वेष से रहित होने की बड़ी भारी आवश्यकता है,क्योंकि यही वास्तव में मनुष्य के शत्रु है अर्थात् मनुष्य को संसार में फंसाने वाले हैं।

  एक कहानी के माध्यम से समझते हैं ।  एक गुरुकुल के आचार्य अपने शिष्य की सेवा से बहुत प्रभावित हुए। विद्या पूरी होने के बाद जब शिष्य विदा होने लगा तो गुरू ने उसे आशीर्वाद के रूप में एक दर्पण दिया।

  वह साधारण दर्पण नहीं था। उस दिव्य दर्पण में किसी भी व्यक्ति के मन के भाव को दर्शाने की क्षमता थी।

  शिष्य, गुरू के इस आशीर्वाद से बड़ा प्रसन्न था। उसने सोचा कि चलने से पहले क्यों न दर्पण की क्षमता की जांच कर ली जाए।

  परीक्षा लेने की जल्दबाजी में उसने दर्पण का मुंह सबसे पहले गुरुजी के सामने कर दिया।

  शिष्य को तो सदमा लग गया। दर्पण यह दर्शा रहा था कि गुरुजी के हृदय में मोह, अहंकार, क्रोध आदि दुर्गुण स्पष्ट नजर आ रहे है।

  मेरे आदर्श, मेरे गुरूजी इतने अवगुणों से भरे है ! यह सोचकर वह बहुत दुखी हुआ।

 दुखी मन से वह दर्पण लेकर गुरुकुल से रवाना हो गया तो हो गया लेकिन रास्ते भर मन में एक ही बात चलती रही। जिन गुरुजी को समस्त दुर्गुणों से रहित एक आदर्श पुरूष समझता था लेकिन दर्पण ने तो कुछ और ही बता दिया।

  उसके हाथ में दूसरों को परखने का यंत्र आ गया था। इसलिए उसे जो मिलता उसकी परीक्षा ले लेते।

   उसने अपने कई इष्ट मित्रों तथा अन्य परिचितों के सामने दर्पण रखकर उनकी परीक्षा ली । सब के हृदय में कोई न कोई दुर्गुण अवश्य दिखाई दिया।

  जो भी अनुभव रहा सब दुखी करने वाला वह सोचता जा रहा था कि संसार में सब इतने बुरे क्यों हो गए है। सब दोहरी मानसिकता वाले लोग है।

  जो दिखते हैं दरअसल वे हैं नहीं। इन्हीं निराशा से भरे विचारों में डूबा दुखी मन से वह किसी तरह घर तक पहुंच गया।

  उसे अपने माता-पिता का ध्यान आया। उसके पिता की तो समाज में बड़ी प्रतिष्ठा है। उसकी माता को तो लोग साक्षात देवतुल्य ही कहते है। इनकी परीक्षा की जाए।

  उसने उस दर्पण से माता-पिता की भी परीक्षा कर ली। उनके हृदय में भी कोई न कोई दुर्गुण देखा। ये भी दुर्गुणों से पूरी तरह मुक्त नहीं है। संसार सारा मिथ्या पर चल रहा है।

  अब उस शिष्यों के मन की बेचैनी सहन के बाहर हो चुकी थी।

  उसने दर्पण उठाया और चल दिया गुरुकुल की ओर। शीघ्रता से पहुंचा और सीधा जाकर अपने गुरूजी के सामने खड़ा हो गया।

  गुरुजी उसके मन की बेचैनी देखकर सारी बात का अंदाजा लगा चुके थे।

  चेले ने गुरुजी से विनम्रतापूर्वक कहा- गुरुदेव, मैंने आपके दिए दर्पण की मदद से देखा कि सबके दिलों में तरह-तरह के दोष है। कोई भी दोषरहित सज्जन मुझे अभी तक क्यों नहीं दिखा ?

 क्षमा के साथ कहता हूं कि स्वयं आपमें और अपने माता-पिता में मैंने दोषों का भंडार देखा । इससे मेरा मन बड़ा व्याकुल है ।

  तब गुरुजी हंसे और उन्होंने दर्पण का रुख शिष्य की ओर कर दिया। शिष्य दंग रह गया। उसके मन के प्रत्येक कोने में राग-द्वेष, अहंकार, क्रोध जैसे दुर्गुण भरे पड़े थे। ऐसा कोई कोना ही न था जो निर्मल हो।

  गुरुजी बोले- बेटा यह दर्पण मैंने तुम्हें अपने दुर्गुण देखकर जीवन में सुधार लाने के लिए दिया था न कि दूसरों के दुर्गुण खोजने के लिए।

  जितना समय तुमने दूसरों के दुर्गुण देखने में लगाया उतना समय यदि तुमने स्वयं को सुधारने में लगाया होता तो अब तक तुम्हारा व्यक्तित्व बदल चुका होता।

अब वैराग्य क्या है ?

 वैराग्य से अभीप्राय विवेक का जगऩा है अर्थात् आसुरी शक्तियों का उन्मूलन और दिव्यशक्तियों (ईश्वरीय शक्तियों) का अभ्युदय होना,उनका प्रबल ही वैराग्य कहलाता है।आसक्ति के कारण ही मनुष्य पाप के पाश में बंधता है। यह आसक्ति ही राग है।इस राग से विरक्त होना ही वैराग्य है किंतु यह होता तभी है जब एक विवेक का प्रादुर्भाव होता है।

  दूसरे शब्दों में कहें तो यही अवस्था आत्मप्रज्ञा का आविभार्व कहलाती है। इस वैराग्य के कारण ही मनुष्य-मनुष्यत्व से देवत्व और देवत्त्व से भगवत्ता को प्राप्त होता है,मोक्ष को प्राप्त होता है। प्रायः लोग सब कुछ त्याग कर वन में अथवा हिमालय की कन्दराओं में जाकर समाधि लगाने की जीवन-शैली को वैराग्य समझते हैं ,जबकि वैराग्य तो घर में रहकर गृहस्थी होते हुए अनासक्त भाव से जीवन-यापन करके भी निष्पादित हो सकता है । जैसा कि मिथिला नरेश महाराजा जनक राजा होते हुए भी योगी थे।

ममता तरुन तमी अँधिआरी।

राग द्वेष उलूक सुखकारी॥

तब लगि बसति जीव मन माहीं।

जब लगि प्रभु प्रताप रबि नाहीं॥

  ममता पूर्ण अँधेरी रात है, जो राग-द्वेष रूपी उल्लुओं को सुख देने वाली है। वह (ममता रूपी रात्रि) तभी तक जीव के मन में बसती है, जब तक प्रभु (आप) का प्रताप रूपी सूर्य उदय नहीं होता तब तक मनुष्य माया रुपी चक्की में पिसता रहता है।

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