प्राचीन काल में काक्षीवत् की पुत्री घोषा एक पाप से अपग होने के पश्चात साठ वर्षों तक अपने पिता के गृह में रही। घोषा को इस बात की अत्यन्त चिन्ता हुई थी कि बिना पुत्र अथवा पति के मैं वृथा ही जरा अवस्था को प्राप्त हो गयी हूँ। अतएव उसने निश्चय किया कि मैं शुभस्पती अश्विनों की शरण में जाऊँगी।
उसने सोचा कि चूँकि मेरे पिता ने शुभस्पती की आराधना करके यौवन, आयु, आरोग्य, ऐश्वर्य और सर्वभूतहन विष प्राप्त किया था, अतः मै भी उनकी कृपा से रूप और सौभाग्य प्राप्त कर सकती हूँ । सर्वप्रथम इसके लिए अश्विनों को संतुष्ट करने वाले मंत्रों की प्राप्ति आवश्यक है।
इस प्रकार चिन्तन करते समय उसने 'यो वां परि' से आरम्भ दो सूक्तों का दर्शन किया। स्तुति किये जाने पर दिव्य अश्विन् द्वय उस पर प्रसन्न हुए। तत्पश्चात् अश्विन् द्वय ने घोषा के शरीर में प्रवेश करके उसे जरा-विहीन, रोगरहित और सुन्दर बना दिया। अश्विन् द्वय ने घोषा को पति और पुत्र के रूप में ऋषि सुहस्त्य को प्रदान किया।
अश्विनौ कक्षीवत् की पुत्री घोषा को जो कुछ दिया उसका न तस्य" और' अमाजुर:" ऋचाओं द्वारा वर्णन मिलता है।
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