देवापि की कथा

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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 "देवापि ।" प्रजाजनों ने उपस्थित होकर सादर निवेदन किया, "आपके पूजनीय पिता ऋषि वेण दिवंगत हो चुके हैं। राज्य सूत्र आपको सम्भालना चाहिए।"

"महात्मन् । "प्रजा नें कहा, "स्वर्गीय ऋषि वेण आप और शंतनु दो सगे भाइयों को छोडकर दिवंगत हुए। आप ज्येष्ठ भ्राता है। धर्मतः राज्य आपका है। "

त्वग्दोष से दूषित हूँ।

“भद्र पुरूषो । “देवापि ने कहा, दुस्साध्य रोग से ग्रसित हूँ। मैं कैसे राज्य कर सकता हूँ। राजा स्वस्थ इन्द्रिय, स्वस्थ स्वास्थय, स्वस्थ विचार मना तथा स्वस्थ अभिप्राय युक्त होना चाहिये। मेरे किंचित् काल को स्वास्थ्य चिन्ता राज्य कार्य के समय को अपहृत करेगी। मैं पूर्ण राजा नहीं हो सकूँगा। आप अपूर्ण व्यक्ति को लेकर राज्य की अपूर्णता में वृद्धि करेंगे।"

"नहीं । देवापि ॥" बृद्धों ने कहा, "अधार्मिक राज्य में कौन रहना पसन्द करेगा ? अधार्मिक परम्परा अनुकरण करने का कौन साहस करेगा।"

"महानुभावों ।" देवापि ने विशाल प्रजा समूह को सम्बोधित किया। मैंने निश्चय किया है शंतनु का अभिषेक किया जाय।"

"कहिये । आपकी सम्मति है, शंतनु का राज्याभिषेक किया जाय। मैं अपने शरीर का भार उठाने में असमर्थ हूँ। राज्य भार कैसे उठा सकूँगा?"

लोगों के मस्तक झुक गये। मौन सम्मति सभा ने दी ।

"घोर अवर्षण । घोर अवर्षण !।"

जनता में त्राहि-त्राहि थी।

"बारह वर्ष बीत गये। एक बूंद पानी नहीं।" लोग बोले ।

"चलो राजा शंतनु के पास चले।"

“हाँ।”

प्रजा राजा शंतनु के समीप चली।

"राजन्। अवर्षण, कब तक?"

शुंतनु लज्जित थे।

"पृथ्वीपते। द्वादश वर्ष से पर्जन्य ने वर्षा नहीं की है।"

शंतनु की आँखे उपर नहीं उठ सकीं।

"हाँ, उस समय से जब से आपका धर्मात्मा थें उनका राज्य आपने लिया ।

मर्यादा का उल्लंघन किया गया।

शंतनु उदास होत लगे ।

"धर्म का उल्लंघन किया गया है। राज्य अधर्म से लिया गया है। उस अधर्म का प्रायश्चित हम अपनी भूख से कर रहे हैं।

शंतनु को कोई उत्तर देते नहीं बना। छोटा आश्रम वन के बीच था। देवापि एकाकी तपस्या कर रहे थे। उनकी आवश्यकताएँ स्वल्प थी। चिन्ता नहीं थीं वे धूम्रहीन अग्नि की तरह शान्त हो गये थें । 

 उस आश्रम में प्रवेश किया, कनिष्ठ भ्राता राजा शंतनु ने उनके साथ राज्य की प्रजा थी । देवापि देखते ही पूछा -

"शंतनु ।" देवापि की आँखें बारह वर्ष पश्चात् कनिष्ठ भ्राता को देख कर भर आयीं। प्रजाजन ने भूमि पर मस्तक रख कर दडवत किया। देवापि को प्राणम किया। शंतनु ने ज्येष्ठ भ्राता की चरण-रज श्रद्धापूर्वक मस्तक पर लगायी।

"महात्मन् ! "प्रजा बोली, “आप अपना राज्य सम्मालिये।"

देवापि मुसकराए।

  "महात्मन् । "शंतनु ने प्रांजलिबद्ध अत्यन्त विनम्रतापूर्वक कहा, "आप अपना राज्य लीजिए। मैं राजा रह कर क्या करूँगा, जब प्रजा का दुःख दूर करने मे असमर्थ हूँ।"

  शंतनु के मन में लेश मात्र विषाद नहीं था। उसकी वाणी में हृदय का सच्चा उद्गार था । वह भ्राता के चरणों पर कटे वृक्ष की तरह गिर पड़ा।

"शतनु " देवापि ने उसे प्रेम से उठाते हुए कहा:

"मैं राज्य योग्य नहीं हूँ । त्वग् दोष से ग्रसित हूँ। हत इन्द्रिय हूँ। मेरी शक्तियाँ क्षीण हैं।

"पुरूष श्रेष्ठ । देवापि ने गम्भीरतापूर्वक कहा, राजा का गुण धैर्य है। आशा सम्बल है। नैराश्य विनाश है।"

प्रजाजन देवापि की बात ध्यानपूर्वक सुनने लगे । अपनी प्रिय प्रजा के शुष्क नर-कंकालवत शरीर को देख कर देवापि ने पाद में गिरे शंतनु को उठाते हुए कहा :

"राजन् ! मैं स्वयं वृष्टि की कामना करूँगा।" उठो ।

देवापि ने शतनु को उठा कर खड़ा किया। प्रजा देवापि की वृष्टि- कामना

"भ्राता !" देवापि ने दृढ़ स्वर में कहा, "मैं स्वयं तुम्हारा ऋत्विक् बनूँगा।"

शंतनु चकित हुए। प्रजाजन में से कोई बोल उठा, "क्षत्री और ऋत्विक् !"

"हॉ, मैं यज्ञ करूँगा। जन-सधारण की रक्षा के लिए, वर्षा के लिए। यह घोर अवर्षण अवश्य दूर होगा।"

"हाँ, तुम्हारे कष्ट दूर करने के लिए। “देवापि ने स्थिर स्वर में कहा ।

  वर्षा निमित यज्ञ आरम्भ हुआ। राजा शंतनु ने ज्येष्ठ भ्राता देवापि को अपना पुरोहित नियुक्त किया। उनसे ऋत्विज् रूप से कार्य करने के लिए प्रार्थना की। देवापि पौरोहित्य कर्म के लिए उद्यत हो गये। उन्होंने वृष्टि करने वाले देवताओं के निर्मित स्तोत्र की रचना की । देवापि ने यथाविधि यज्ञ कार्य का सम्पादन किया। उन्होंने बृहस्पति निर्मित यज्ञ करते हुए स्तुति की । बृहस्पति ने देवापि में श्रेष्ठ स्तोत्र स्वरूप दिव्यवाणी का उन्मेष कराया। देवापि ने अग्नि की स्तुति की इन्द्र प्रसन्न हो गये । अन्तरक्षि से वाणी सुनाई पड़ी।

"देवापि !" इन्द्र ने कहा, "यज्ञ में तुम आओ। देवताओं का पूजन करों उन्हें तुम हविरन्न से तृप्त करें।"

  इन्द्र ! आप मरुदगणों के साथ शुभगमन कीजिए। आपने दस्युओं पर शासन किया। आपने तीन सिर और छ: नेत्रों वाले विश्वरूप देवापि नें श्रेष्ठ स्तुतियों द्वारा ने पवित्र यज्ञ आरम्भ किया। सम्यक् स्तुति तथा आहुतियों से देवता प्रसन्न हो गये थे। जनता का मेघाच्छन्न आकाश में सुख विद्युत ।

  वर्षा ! वर्षा !! वर्षा !!! प्रजा प्रसन्न थी । शिशु प्रसन्न हो कूदने लगे। माताएँ अंचल उठाकर इन्द्र की वन्दना करने लगीं। पृथ्वी की तृष्णा शान्त हुई । अन्तरिक्ष स्वरूप से पार्थिव समुद्र में वर्षा की प्रचुर जलधारा आई। देवताओं ने अन्तरिक्ष को आच्छादित कर दिया। देवापि की प्रेरणा से वर्षा का निर्मल जल उज्ज्वल पृथ्वी पर तैरने लगा। बारह वर्ष का अवर्षण समाप्त हो गया। भूमि एक युग के पश्चात् पुनः श्यान्य श्यामला हो गयी ।

  इस कहानी में वैदिक कालीन राजनीति के सिद्धान्त का वर्णन किया गया है। कर्म शक्ति न होने पर राज्य का स्वत त्याग किसी दूसरे उपयुक्त व्यक्ति के लिए क स्पर्श तथाया है। पंचतत्वों से विश्व की रचना हुई। आकाश, वायु, अग्नि जल तथा पृथ्वी पाँच तत्व है। इनके गुण क्रमशः स्पर्श, रूप, रस तथा गन्ध है। आकाश सब में सूक्ष्म है तत्व क्रमश सूक्ष्म से स्थूल होने के लिए पृथ्वी से पूर्ण स्थूलता प्राप्त करते हैं आगे तृतीय तत्व है उसमें रूप तीन गुण वर्तमान है। वैदिक आश्रम जीवन का केन्द्र बिन्दु अग्नि है। यही हवि ग्रहण करता है उसकी गति अध्यगामी है जबकि जल तथा पृथ्वी की गति अधोगामी है इसलिए रूपक खीचा गया है कि अग्नि हवि को देवताओं के पास पहुंचाता है। मृत्यु के प प देने की बात इसमें कही गयी है। साथ ही साथ राज्य अधिकार त्याग देने पर यदि राज्य पर आपति आये तो सहर्ष उसके लिये तैयार हो जाने के उदात्त विचार का वर्णन किया गया है। राजा प्रजा के कष्ट का उत्तरदायी प्रजा के सम्मुख होता है इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है। आपद काल में क्षत्रिय भी ऋत्विक बनकर यह करा सकता है, इसका स्पष्ट निर्देश इस कहानी में किया ग स्वात् यही अपने पथ से प्राणियों को ले जाता है।

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