वृहदेवता में अगस्त्य एवं लोपामुद्रा के दाम्पत्य जीवन की कथा मिलती है- किसी समय लोपामुद्रा के द्वारा ऋतु स्नान के पश्चात् अगस्त्य ऋषि नें अपनी उस यशस्विनी पत्नीं से समागम की इच्छा से बातचीत प्रारम्भ की। "पूर्वी" से शुरू होनें वाली दो ऋचाओं में लोपामुद्रा ने अपना मत व्यक्त किया तत्पश्चात् आनन्द प्राप्त करने की इच्छा से अगस्त्य ने उसे बाद की दो ऋचाओं से सन्तुष्ट किया ।
जिस समय अगस्त्य एवं लोपामुद्रा परस्पर आनन्द प्राप्त करनें की इच्छा व्यक्त कर रहे थे उस समय उनके शिष्य अपनें महान तप के प्रभाव से अगस्त्य एवं लोपामुद्रा की परस्पर आनन्द प्राप्त करने की इच्छा की सम्पूर्ण स्थिति से अवगत हो गया। सम्पूर्ण स्थिति से अवगत होने के पश्चात् उसके मन में यह विचार हुआ कि उसनें इन सब बातों को सुनकर एक महान् पाप किया है। अतः पाप से निवृत्त होने के लिए उसनें दो ऋचाओं का गान किया ।
उसके ऋचाओं का पाठ करनें पर गुरू अगस्त्य और उनकी पत्नी लोपमुद्रा दोनों नें उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की और आलिंगन करते हुए उसका मस्तक चूमा तत्पश्चात दोनों ने ही उसे आश्वस्त करते हुए कहा- हे पुत्र ! तुम निष्पाप हो ।
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