विदेहराज जनक के पास याज्ञवल्क्य गये। जनक ने निश्चय किया था कि मैं कुछ भी उपदेश न करूंगा । किन्तु पहले कभी जनक और याज्ञवल्क्य में अग्निहोत्र के विषय मे कुछ सवाद हो चुका था। उस समय याज्ञवल्क्य ने उसे वर दिया था, और उसने इच्छानुसार प्रश्न करना ही वर मे मांगा था। अत पहले राजा ने ही प्रश्न किया, याज्ञवल्क्य यह पुरूष किस ज्योतिवाला है। याज्ञ० सम्राट यह आदित्यरूप ज्योतिवाला है। यह आदित्य रूप ज्योति से ही बैठता है, सब ओर जाता है, कर्म करता है, और लौट आता है जनक याज्ञ०- ठीक है। आदित्य के अस्त हो जाने पर यह पुरूष किस ज्योति वाला होता है? याज्ञ०- उस समय चन्द्रमा ही उसकी ज्योति होता है। चन्द्रमा रूप ज्योति के द्वारा ही यह बैठता है, सब ओर जाता है, कर्म करता है, और लौट आता है। जनक, ठीक है, आदित्य और चन्द्रमा के अस्त हो जाने पर यह पुरूष किस ज्योति वाला होता है? याज्ञ०- अग्नि ही इसकी ज्योति होती है यह अग्निरूप ज्योति के द्वारा ही बैठता है, सब ओर जाता है, कर्म करता है, और लौट आता है। जनक, ठीक है, आदित्य और चन्द्रमा के अस्त हो जाने पर और अग्नि के बुझ जाने पर यह पुरुष किस ज्योति वाला होता है? याज्ञवल्क्य, वाक् रूप ज्योति वाला । आदित्य चन्द्रमा के अस्त हो जाने पर अग्नि के शान्त हो जाने पर यह पुरूष वाक् ज्योति वाला होता है, क्योंकि वाक् तब भी वर्तमान रहती है। जनक- वाक् के भी शान्त हो जाने पर यह पुरूष किस ज्योति वाला होता है? याज्ञ०- आत्म ज्योतिवाला । जनक, आत्मा क्या है? याज्ञ- यह जो प्राणो बुद्धिवृत्तियो के भीतर रहने वाला विज्ञानमय ज्योति स्वरूप पुरूष हैं वह समान बुद्धिवृत्तियों के सदृश हुआ इस लोक और परलोक में सचरणकरता है। वह बुद्धि वृत्ति के अनुसार मानो चिन्तन करता है और प्राणवृत्ति के अनुरूप होकर चेष्टा करता है, वही स्वप्न होकर उस लोक देहेन्द्रिय संघात का अतिक्रमण करता हैं। शरीर तथा इन्द्रिय रूप मृत्यु के रूपो का भी अतिक्रमण करता है वह यह पुरूष जन्म लेते समय शरीर को आत्म भाव से प्राप्त होता हुआ पापों से देह और इन्द्रियों से संश्लिष्ट हो जाता है। मरते समय पापो को त्याग देता है। पुरूष के दो ही स्थान हैं। १ एतद्लोक संबंधी । २ परलोक संबंधी। तीसरा स्वप्न संबंधी स्थान सध्यास्थान है। उस सध्या स्थान में स्थित रहकर यह इस लोक रूप स्थान और परलोक स्थान इन दोनों को देखता है। यह पुरूष परलोक स्थान के लिए जैसे साधन से सम्पन्न होता है, उस साधन का आश्रय लेकर यह पाप और आनन्द दोनों को ही देखता हैं
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