इन्द्र वैकुण्ठ की कथा

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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 प्रजापति की एक आसुरी पुत्री थी जिसका विकुण्ठा था। उसने इन्द्र के समान पुत्र की महान इच्छा से तपस्या की। इस प्रकार उसने प्रजापति से विभिन्न वरदानों के रूप में समस्त इच्छाओ को प्राप्त कर लिया। तत्पश्चात दैत्यो और दानवों का वध करने की इच्छा से स्वय इन्द्र उससे जन्म लिया ।

  किसी समय जब इन्द्र और दानवों के बीच समर भूमि में युद्ध हो रहा था उस समय इन्द्र ने नौ-नौ नब्बे बार और सात-सात की संख्या में सात बार दानवों का वध किया।

  इन्द्र ने अपने बाहुबल से दानवों के स्वर्ण रजत और लौह दुर्गों को ध्वस्त करके तीनों लोको में व्यवस्थित दानवों का यथास्थान वध कर दिया। तत्पश्चात् पृथ्वी पर उन्होंने कालकेय और पुलोम जाति के लोगों धर्नुधरों और स्वर्ग में प्रहलाद की तुष्ट सन्तानों का उन्मूलन कर दिया।

  इस प्रकार दैत्यों का साम्राज्य प्राप्त कर तथा अपनी वीरता के दर्प में असुरों की माया से मोहित होकर उसने देवों को त्रस्त करना आरम्भ कर दिया।

   देवगण उस असीम शक्ति वाले इन्द्र से त्रस्त होकर उससे मुक्ति पाने के लिए श्रेष्ठ ऋषि सप्तगु के पास भाग कर गये ताकि वे इन्द्र को रोक दें। चूँकि सप्तगु ऋषि उनके प्रिय सखा थे, इसलिए उनके हाथ का स्पर्श करते हुए उन्होने उनको 'जागृभ्य" सूक्त से संतुष्ट किया। तत्पश्चात् आत्मबोध करके और सप्तगु की स्तुति से प्रसन्न होकर उन्होनें 'अहं भुवम्' से आरम्भ तीन सूक्तों में अपनी स्तुति की। तत्पश्चात् उन्होने अपने प्राचीन काल में किये गये कार्यों का वर्णन किया। प्राचीन काल में किस प्रकार विदेह के राजा व्यंश को सोम पति बनाया था । प्राचीन काल में वशिष्ठ के श्राप से व्यंश विदेह के राजा बन गये। तत्पश्चात् इन्द्र की कृपा से राजा व्यंश ने सरस्वती तथा अन्य नदियों के तट पर यज्ञ - सत्र का आयोजन किया था। इस प्रकार इन्द्र ने अपनी महान शक्ति का, शत्रुओ को पहुँचायी गयी क्षति का मनुष्यों के बीच अपने ऐश्वर्य का तथा भुवनों पर अपने प्रभुत्व का वर्णन किया। उसने 'प्रवो महे" से अपनीं अक्षय शक्ति की स्तुति की। 

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