उत्तम कुल पुलस्त्य कर नाती, सिव बिरञ्चि पूजेउ बहुभाँती, बर पायहु कीन्हेंउ सब काजा, जीतेहु लोकपाल सुर राजा, रामचरितमानस की विशिष्ट चौपाइयों का विश्ले
उत्तम कुल पुलस्त्य कर नाती। सिव बिरञ्चि पूजेउ बहुभाँती। बर पायहु कीन्हेंउ सब काजा। जीतेहु लोकपाल सुर राजा।। |
उत्तम कुल पुलस्त्य कर नाती।
सिव बिरञ्चि पूजेउ बहुभाँती।
बर पायहु कीन्हेंउ सब काजा।
जीतेहु लोकपाल सुर राजा।।
परन्तु अब अधर्म के फलभोग का समय आ रहा है, सावधान हो जाओ। तात्पर्य यही कि अत्याचारी को भी अपने सत्कर्मों का फलभोग मिलता है, अवसर पाकर सत्कर्मों का भी फल मिलता है। ऐसे ही धर्मात्मा को भी पिछले प्रारब्ध तीव्रतम अधर्म का भी फल भोगना पड़ता है।
व्यक्ति को उसके कर्मों के अनुसार जीवन मिलता है और वह अपने कर्मों का फल भोगता रहता है। यही कर्मफल का सिद्धांत है। 'प्रारब्ध' का अर्थ ही है कि पूर्व जन्म अथवा पूर्वकाल में किए हुए अच्छे और बुरे कर्म जिसका वर्तमान में फल भोगा जा रहा हो।
प्रारब्ध पिछले कर्मों का वह भाग है जो वर्तमान शरीर के लिए जिम्मेदार है। संचित कर्म का वह भाग जो वर्तमान अवतार में मानव जीवन को प्रभावित करता है उसे प्रारब्ध कहा जाता है। यह काटने के लिए परिपक्व है। यह नहीं हो सकता टाला या बदला गया। यह केवल अनुभवी होने से समाप्त होता है। आप अपने पिछले ऋणों का भुगतान करते हैं। प्रारब्ध कर्म वह है जो शुरू हो चुका है और वास्तव में फल दे रहा है। इसे संचित कर्म के समूह से चुना जाता है।"
अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मणः फलम्।
भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु संन्यासिनां क्वचित्॥
कर्म का फल तीन तरह का होता है इष्ट, अनिष्ट और मिश्र। जिस परिस्थिति को मनुष्य चाहता है? वह इष्ट कर्मफल है? जिस परिस्थिति को मनुष्य नहीं चाहता? वह अनिष्ट कर्मफल है और जिसमें कुछ भाग इष्ट का तथा कुछ भाग अनिष्ट का है? वह मिश्र कर्मफल है। वास्तव में देखा जाय तो संसार में प्रायः मिश्रित ही फल होता है जैसे -- धन होने से अनुकूल (इष्ट) और प्रतिकूल (अनिष्ट) -- दोनों ही परिस्थितियाँ आती हैं धन से निर्वाह होता है -- यह अनुकूलता है और टैक्स लगता है? धन नष्ट हो जाता है? छिन जाता है -- यह प्रतिकूलता है।
एक कहानी के माध्यम से समझते हैं
एक बार एक व्यक्ति नौकरी की तलाश में किसी सरकारी दफ्तर में पहुँचा। पूछने पर उसने कहा कि मैंने दो-तीन पुस्तकें अँगरेजी की पढ़ी हैं और कुछ-कुछ हिंदी जानता हूँ। दफ्तर के अफसर ने कहा, हमारे यहाँ एक चपरासी की जगह खाली है, तनखाह १२० रु० मासिक मिलेगी, चाहो तो नौकरी कर सकते हो।
उस व्यक्ति ने मैनेजर से कहा, "हुजूर ! मेरे पिता तहसीलदार थे, बाबा कलक्टर थे, परदादा कप्तान थे। मैं इतने ऊँचे खानदान का हूँ, वे लोग बड़ी-बड़ी तनखाह पाते थे और राजदरबार में आदर होता था, फिर मुझे इतनी छोटी हैसियत की और कम तनखाह की जगह क्यों मिलनी चाहिए ?"
अफसर ने कहा, “आपके उच्च खानदान का मैं आदर करता हूँ और आपके उन प्रशंसनीय पूर्वपुरुषों की कद्र करता हूँ, पर खेद है कि ऐसे नर-रत्नों के घर में आप जैसे अयोग्य पुरुष पैदा हुए, जिन्हें चपरासी से ऊँची जगह नहीं मिल सकती। नौकरी आपको करनी है, इसलिए आपकी योग्यता के अनुरूप ही वेतन मिलेगा। खानदान या पूर्वपुरुषों का बड़प्पन इसमें कुछ भी काम नहीं आ सकता।
हम लोग अपने को ऋषियों की संतान कहते हैं, अपने जगद्गुरु होने का दावा करते हैं और तरह-तरह से प्राचीन गाथाओं के आधार पर अपने को बड़ा साबित करते हुए आशा रखते हैं कि हमें वही स्थान मिले, जो हमारे पूर्वजों को प्राप्त था। परंतु हम यह भूल जाते हैं कि जितनी योग्यता, कर्मनिष्ठा पूर्वजों में थी, क्या उसका थोड़ा अंश भी हममें है ? यदि नहीं है तो हम अपमान और अधोगति के ही योग्य हैं, जो कि आज प्राप्त है। पूर्वजों का गौरव उस समय तक प्राप्त नहीं हो सकता, जब तक कि वैसे ही पराक्रम का साहस अपने अंदर उत्पन्न न कर लें।
रावण चतुर्मुख ब्रह्मा का प्रपौत्र है। चतुर्मुख ब्रह्मा से पुलस्त्य महर्षि से विश्रवा से रावण।
रावण वह बहुत महान वंश का था लेकिन दुर्भाग्य से गलत गतिविधियों में लिप्त हो गया। वह पौलस्त्य के नाम से प्रसिद्ध हैं जिसका अर्थ है "पुलस्त्य के वंशज"।
नहिं कोउ अस जन्मेउ जग माहीं
प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं।।
बस, उसी समय रावण, औरंगजेब जैसी प्रवृत्ति होने लगती है। परमेश्वरीय दण्ड उन्हें मिलता है, परन्तु न्यायकारी को परमेश्वर काल की प्रतीक्षा करके ही उन्हें शुभ कर्मों का फल भोग लेने पर ही अशुभ कर्मों का फल प्रदान करते हैं। श्री हनुमानजी ने रावण के विचित्र वैभव को देखकर यही निश्चय किया कि ‘अहो! यदि इसमें अधर्म बलवान न होता तो यह शुक्र सहित समस्त लोकपालों का स्वामी ही होने योग्य था।’
यद्यधर्मो न बलवान् स्यादयं राक्षसेश्वरः।
स्यादयं सुरलोकस्य सशक्रस्यापि रक्षिता।।
लोकपाल भयभीत होकर इसके भ्रुकुटी का ही विलोकन करते रहते हैं।
कर जोरे सुर दिसिप बिनीता।
भ्रुकुटि बिलोकहिं परम सभीता।
हनुमान जी ने समझाया कि रावण! तुमने बहुत कुछ सत्कर्म किया है, उसका फल तुम्हें प्राप्त है।
देवता और दिक्पाल हाथ जोड़े बड़ी नम्रता के साथ भयभीत हुए सब रावण की भौं ताक रहे हैं। (उसका रुख देख रहे हैं) उसका ऐसा प्रताप देखकर भी हनुमान जी के मन में जरा भी डर नहीं हुआ। क्योंकि हनुमान जी भगवान राम के दूत हैं वे सत्य मार्ग पर चलने वाले हैं। रावण अधर्मी है हनुमान जी ऐसे निःशंख खड़े रहे, जैसे सर्पों के समूह में गरुड़ निःशंख निर्भय) रहते हैं।
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