ऐसी कथा प्रचलित है कि प्राचीन काल में प्रजा की कामना से प्रजापति ने साध्यों और विश्वेदेवों के साथ तीन वर्ष तक लगातार यज्ञ सत्र सम्पादित किया। उस दीक्षा के अवसर पर वाक् सशरीर वहाँ आई । सशरीर वाक् को वहाँ देखकर एक साथ ही 'क' प्रजापति और वरूण का शुक्र स्खलित हो गया। उनकी इच्छा से वायु ने शुक्र को अग्नि में डाल दिया। तत्पश्चात् शुक्र के उन ज्वालाओं से भृगु उत्पन्न हुए और उसके अड.गारों से अडिगरस ऋषि उत्पन्न हुए।
जब वाक् ने इन दो पुत्रों को देखा तो स्वयं भी दृष्ट होकर प्रजापति से कहा- हे विश्वेदेवों! इन दो के अतिरिक्त मुझे ऋषि के रुप में एक तृतीय पुत्र भी उत्पन्न हो । जब वाक् नें इस प्रकार प्रजापति को संबोधित किया तब भरती ने कहा ऐसा ही होगा। तत्पश्चात सूर्य और अग्नि के समान श्रुति वाले अत्रि ऋषि उत्पन्न हुए ।
जिस समय सूर्य के प्रकाश को स्वर्भानु द्वारा अदृश्य कर दिया गया था उस समय अन्धकार को दूर करने के लिए अत्रियों ने अग्नि की स्तुति की। इसके साथ ही विभिन्न स्थलों पर अत्रियों ने त्रयरुण त्रस - दस्यु, अश्वमेध, ऋणंचय आदि की भी स्तुति की है।
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