Hidimba and ghatotkach |
घने वन में पेड़ से लटके एक राक्षस ने अपनी कर्कश वाणी को अधिकतम सम्भाव्य रूप से विनम्र बनाते हुए, भूमि पर बनी एक पर्णकुटी के बाहर से आवाज दी। अंदर से एक स्त्री बोली, "कौन? वज्रनाभ? क्या बात है बेटा? अंदर आ जा।"
वज्रनाभ पेड़ से उतर अपने पत्तों से बने अधोवस्त्र और सिर पर लगे गृद्ध-पंख को ठीक कर कुटिया के अंदर घुसा और देहयष्टि और वय में स्वयं से कहीं अधिक बड़ी स्त्री के चरणों में लेट गया। स्त्री ने अपने दीर्घ बाहु से उसे आशीर्वाद सा दिया और बोली, "क्या है पुत्र? पर रुक, पहले यह बता कि तूने प्रातः से कुछ खाया?
"हाँ माता, वनदेवी इस समय प्रसन्न हैं। वृक्ष फलों के भार से झुके हुए हैं।"
स्त्री हँस पड़ी और बोली, "फलों के भार से या तुम जैसे युवकों के भार से? तुम सब अभी भी वृक्षों पर क्यों लटके रहते हो? आर्यपुत्र ने भूमि पर निवास करने की पद्यति तो सिखाई है न? विश्व सभ्य होता जा रहा है और तुम राक्षस अभी तक वृक्ष से उतर नहीं पा रहे!"
युवक कुछ नहीं बोला। उसका और उसके समाज के कई लोगों का यह मानना था कि सभ्यता का यह अर्थ कैसे है कि हम प्रत्येक चीज में आर्यों की नकल करते रहें। तथापि उसने चुप रहना ही श्रेयस्कर समझा। युवक को चुप देख स्त्री बोली, "अच्छा छोड़, यह बता, इतनी संध्या को इधर कैसे आया? क्या युद्धभूमि से कोई नया समाचार मिला है? मेरे पुत्र ने पुनः किसी महान शत्रु का वध किया है?"
"माता, महाराज तो नित्य ही इतने महारथियों का वध करते हैं कि अब ऐसी सूचना मुझे उत्साहित नहीं करती। मैं तो यह बताने आया था कि कोई आर्य अपने विशाल रथ से वन की सीमा पर आया है और सीमा पर रथ रोककर पैदल ही इसी ओर चला आ रहा है।"
स्त्री तनिक चिंतित हुई और बोली, "क्या वह शस्त्र लेकर आया है?"
"उसके रथ में अत्यधिक और अद्भुत अस्त्र-शस्त्र हैं। पर उसने वह सब रथ में ही छोड़ दिए हैं। उसके हाथ में मात्र एक खड्ग है। प्रतीत होता है कि उसने मार्ग के झाड़-झंझाड को हटाने के लिए ही खड्ग पकड़ रखा है। अन्यथा वह तो अत्यंत मधुर मुस्कान के साथ आगे बढ़ रहा है। उसे देख लगता है कि वन से उसे प्रेम है। उसे देख भय नहीं, अभय की प्राप्ति होती है।"
"यदि ऐसा है तो उसे यहीं ले आओ। पर सावधान रहना।"
"जो आज्ञा माता।"
युवक चला गया और थोड़ी ही देर में कुटिया के द्वार पर वह सुदर्शन पुरुष खड़ा था। आसपास के वृक्षों पर राक्षस युवक सतर्क लटके-बैठे हुए थे कि हल्का सा संकेत मिलते ही उस पुरुष के प्राण हर लें। पर वह पुरुष तो जैसे अपराजेय और प्रेमालु दृष्टि से उन्हें देख बस मुस्कुरा ही रहा था। फिर उसने आवाज लगाई, "भाभी, ओ भाभी, देखो तो द्वार पर तुम्हारा देवर खड़ा है।"
अंदर से आवाज आई, "मैं आपको पहचानती नहीं आर्य, पर आर्यों के सम्बन्धों को समझती हूं। आप मुझे भाभी कह रहे हैं, अर्थात आप शत्रु नहीं हो सकते। कृपया प्रवेश करें।"
पुरुष अंदर गया और देखा कि स्त्री अपने कुलदेवता के सम्मुख बैठी हुई है और राक्षसोचित विधान से अपने देवता की पूजा कर रही है। पुरुष ने पहले उस देव-प्रतिमा को प्रणाम किया और पश्चात स्त्री के चरणों में झुक गया।
स्त्री अचकचा गई और बोली, "क्या आर्य भी राक्षसों के देव को और किसी राक्षसी को प्रणाम करते हैं?"
"भाभी, सारे देव उसी देवाधिदेव महादेव के रूप हैं। और महादेव तो सबके हैं। रही आपको प्रणाम करने की बात, तो क्या आपके बाकी तीन देवर आपको प्रणाम नहीं करते थे?"
"आप मुझे बार-बार भाभी कह रहे हैं! कृपया अपना परिचय दें।"
"मैं आपका देवर हूँ, एक ग्वाला हूँ, आपके दूसरे देवर पार्थ का सारथी हूँ और बड़े भैया भीम का प्रिय भाई हूँ। लोग मुझे अलग-अलग नामों से बुलाते हैं, भैया भीम मुझे कृष्ण कहते हैं।"
हिडिम्बा कृष्ण का परिचय सुन अचकचा गई। जो पुरुष राजा न होते हुए भी मथुराधीश और द्वारिकाधीश कहलाता है, जो समस्त संसार में बहुत श्रद्धा से देखा जाता है, जो उसके पति वृकोदर भीम को अत्यंत प्रिय है, उसका वह स्वागत करे, या अनेक राक्षसों सहित अपने पौत्र बर्बरीक की निर्मम हत्या करने वाले पुरुष को दुत्कार दे? इसी उहापोह में उसकी वाणी से कुछ न निकला। अंततः कृष्ण को ही बोलना पड़ा, "क्या भाभी, मुझे बैठने को भी नहीं कहोगी क्या?"
"मैंने आपके बारे में बहुत सुना है कृष्ण। आपने कभी किसी की नहीं सुनी और अपने मन की ही की है। आपको खड़ा रखने या बैठाने वाली मैं कौन होती हूँ। मुझे आर्योचित व्यवहार नहीं आते, अतः क्षमा करें। कृपया, स्थान ग्रहण करें।"
भूमि पर ही बैठ गए जनार्दन और बोले, "आप मुझसे रुष्ट प्रतीत होती हैं। मुझसे कोई अपराध हुआ है क्या?"
वाणी वक्र हो गई हिडिम्बा की, "अपराध? यह आप आर्यों की रीति है या यह विशिष्ट गुण आपका ही है? मेरे पौत्र का वध किया है आपने, और पूछते हैं कि क्या अपराध हुआ है? आपके भी तो पुत्र और पौत्र हैं न? मैं उनकी हत्या कर दूँ और फिर आपके समक्ष आपकी भाँति बैठ जाऊं तो आप क्या करेंगे कृष्ण?"
"बर्बरीक के लिए मुझे भी दुख है भाभी। पर यह युद्ध है। इस युद्ध में आपका पुत्र घटोत्कच भी अपनी सेना सहित लड़ रहा है। इस युद्ध में भाई भाइयों से, पिता पुत्रों से, पितामह अपने पौत्रों से लड़ रहे हैं। जो विरोधी हैं, उनका वध तो करना ही होगा न! आत्मरक्षा को मानव का अधिकार है!"
"युद्ध? आत्मरक्षा? मेरा पौत्र तो आपके ही पक्ष से लड़ने आया था। और उसकी हत्या युद्ध आरम्भ होने से पहले ही आपने कर दी थी।"
"नहीं भाभी। वह हमारे पक्ष से नहीं, दुर्बल के पक्ष से युद्ध करने का प्रण लेकर आया था। कुरुक्षेत्र में वर्तमान सभी योद्धाओं से कहीं अधिक वीर वह प्रतापी बालक यह प्रण लेकर आया था कि जो भी दुर्बल होगा, वह उस पक्ष से युद्ध करेगा। आरम्भ में हम दुर्बल थे, तो वह हमारी ओर से लड़ता। युद्ध जीतने के लिए किए जाते हैं। जब हम जीतने लगते, अर्थात कौरव पक्ष दुर्बल होता तो वह उनके पक्ष में चला जाता। वह जिस भी पक्ष में होता, उसे सबल कर देता और विरोधी को दुर्बल। इस प्रकार वह स्वयं ही सबलता और दुर्बलता का कारण बनकर दोनों ही पक्षों को समाप्त कर देता। कुरुवंशजों के ऐसे ही अविचारी प्रणों का परिणाम है यह युद्ध। भीष्म के प्रण ने बीज बोया, दुर्योधन के प्रण ने इस विश्वयुद्ध को साकार कर दिया, भीम के प्रण ने पांडवों के हाथ बांध दिए, और इस बर्बरीक के प्रण से सब समाप्त ही हो जाता। विचार कीजिये कि बर्बरीक यदि जीवित रहता तो वह अपने पिता एवं पितामह अर्थात आपके पुत्र घटोत्कच और पति भीम का भी वध कर देता। तनिक शांत होकर विचारिए कि क्या मुझपर आपका क्रोध उचित है?"
कृष्ण के तर्क ने हिडिम्बा को कुछ क्षणों के लिए हतप्रभ कर दिया। विचार करने पर उसे कृष्ण की बात ही सही लगी। पर जब मन में विरोध हो तो सामने वाले की किसी छोटी से छोटी, वार्ता में नितांत असंगत बात का आलम्बन लेकर विरोध करना क्षुद्र मानव प्रवृत्ति है। विरोधी को किसी भी भाँति परास्त करने की तड़प समस्त मेधा पर भारी पड़ जाती है और वह अपने मस्तिष्क का प्रयोग कर मात्र क्षणिक और अनावश्यक विजय प्राप्त करने के लिए लालायित हो उठता है। हिडिम्बा ने भी यही किया और बोली, "आपको प्रणों से इतनी समस्या है तो आपने स्वयं ही प्रण क्यों कर लिया कि आप निःशस्त्र रहेंगे? आप युद्ध की प्रासंगिकता को लेकर इतने आग्रही हैं और जब स्वयं युद्ध करने का प्रसङ्ग आया तो यह नपुंसकों की भांति निःशस्त्र होने के आवरण में प्राणरक्षा का अद्भुत उपाय निकाला आपने!"
कृष्ण की मुस्कान तनिक चौड़ी हो गई, "भाभी, आपकी व्यंगोंक्तियों के उत्तर हैं मेरे पास। परन्तु आपको उन्हें पक्षपाती हुए बिना सुनना होगा। प्रथम तो समाज की यह अवधारणा मिथ्या है कि नपुंसक वीर नहीं होते। इसी युद्ध में महावीर शिखंडी सहित अनेक नपुंसक युद्ध लड़ रहे हैं। द्वितीय, मैं निःशस्त्र अवश्य हूँ पर युद्ध में मैंने सारथी का कार्य चुना है। प्राणों का मोह होता तो वैद्य अथवा संदेशवाहक का कार्य चुना होता। युद्ध में रथी से अधिक सारथी युद्ध की भेंट चढ़ते हैं। तृतीय, मेरे प्रण जड़ नहीं कि उन्हें तोड़ा न जा सके। देवव्रत भीष्म के प्रसङ्ग में मैंने उसे तोड़ने में एक क्षण नहीं लगाया था। अस्तु, निःशस्त्र होने के प्रण के पीछे दो कारण थे। प्रथम तो यह कि यदि मैं भी युद्ध करता तो ये पांडव पक्ष के वीर मुझे ही पर्याप्त मान अपने कर्तव्य से च्युत हो जाते, और संसार के समक्ष यह उदाहरण प्रस्तुत करते कि किसी के प्रति भक्ति और श्रद्धा ही मनवांछित फल पाने के लिए पर्याप्त है, जबकि मेरा तो जन्म ही इसलिए हुआ है कि संसार को कर्म की महत्ता समझा सकूं, कि व्यक्ति अन्योन्य बातों के अतिरिक्त अपने कर्मों पर अधिक विश्वास करे। दूसरा कारण मेरे अपने कुल और परिवार में मेरा विरोध है। मुझे आशंका थी कि यदि मैं पांडवों के पक्ष से सशस्त्र युद्ध करता तो अनेक यादव वीर जो अभी इस युद्ध से तठस्थ हैं, वे कौरव पक्ष से युद्ध करने आ जाते।"
हिडिम्बा पुनः सोच में पड़ गई और कृष्ण की बातों को आत्मसात करने के बाद बोली, "मैंने आपके बारे में बहुत सुना था, आज प्रत्यक्ष देख लिया कि क्यों वृकोदर आपका इतना सम्मान करते हैं। अस्तु, आप मेरे मन की गांठ को खोलने तो यहाँ नहीं आये होंगे! आदेश करें, यह राक्षसी आपके लिए क्या कर सकती है?"
"मैं आपसे कुछ माँगने आया हूँ माता!"
"माता! मैं भाभी से माता कैसे हो गई?"
"क्योंकि मुझे भाभी से नहीं, एक माता से ही कुछ चाहिए।"
"औपचारिकताओं से हम राक्षसों को दुविधा होती है। कृपया स्पष्ट आदेश करें।"
"मुझे आपका पुत्र घटोत्कच चाहिए!"
"घटोत्कच! वह तो पहले से ही आपकी शरण में है। आपके, पांडवों के पक्ष से युद्ध कर रहा है। जो पहले से ही आपके पास है, उसे पुनः मांगने का क्या औचित्य है द्वारिकाधीश?"
"घटोत्कच एक वीर पुरुष है। युद्ध में उसने अनगिनत शत्रुओं का वध किया है। कौरव पक्ष में भी अनेक वीर हैं, जिनमें से एक कर्ण के पास एक अमोघ शक्ति है। उसने निश्चय किया है कि वह उसका प्रयोग अर्जुन पर करेगा। यदि इस युद्ध में अर्जुन मारा गया तो समस्त पांडव सेना का उत्साह भंग हो जाएगा और धर्मराज युधिष्ठिर को सहज ही बंदी बना लिया जाएगा। पांडव सेना यदि शरीर है तो युधिष्ठिर उसका शीश और अर्जुन उसकी आत्मा। इन दोनों की रक्षा करने से ही धर्म की रक्षा सम्भव है। यदि ये दोनों न रहें तो युद्ध का यह विराट आयोजन निष्फल होगा। अधर्म की जीत होगी और लाखों-लाख वीरों का प्राणोत्सर्ग निर्रथक हो जाएगा।"
"क्या आप कोई भी बात स्पष्ट नहीं कह सकते आर्य? मुझे इन सब बातों से कोई सरोकार नहीं। मेरे लिए यह धर्म-अधर्म कोई अर्थ नहीं रखते। मेरे लिए तो जिस पक्ष में वृकोदर हैं, वहीं धर्म है।"
"भैया भीम की रक्षा भी अर्जुन की सुरक्षा पर निर्भर है। यदि अर्जुन न रहा तो युधिष्ठिर पराजित होंगे। युधिष्ठिर पराजित होंगे तो श्रीराम के लक्ष्मण-स्वरूप आपके वृकोदर भी सहज ही दास बना लिए जाएंगे।" इतना कहकर कृष्ण चुप हो गए। जिस व्यक्ति ने अर्जुन की सभी शंकाओं को दूर करने के लिए गीता का ज्ञान दिया था, वह एक माता के समक्ष उचित शब्दों को प्राप्त करने के लिए प्रयासरत था।
हिडिम्बा कृष्ण को एकटक देख रही थी। बातों को समझने के प्रयास में अंततः उसे कृष्ण के अनकहे शब्द समझ आ ही गए।
"मैं समझ गई कृष्ण कि आप क्या कहना चाहते हैं। हम राक्षस नितांत व्यक्तिगत शौर्य और आवश्यकताओं के लिए प्राण देते और लेते रहे हैं। इस अनौचित्यपूर्ण हिंसा की निरर्थकता को समझाने का प्रयास किया था वृकोदर ने। मैं समझ गई कि आप मेरे पुत्र की बलि मांगने आये हैं। आप अत्यधिक निष्ठुर हैं कृष्ण। युद्ध की नदी में जो गया, वह भलिभाँति जानता है कि वह या तो जीवित निकलेगा या उसी में डूब जाएगा। पर मृत्यु की पूर्वसूचना?"
"माता! युद्ध में वीर मरते ही हैं, पर कोई भी योद्धा जीतने के लिए युद्ध करता है। आपका पुत्र विशेष है कि उसे निश्चित मृत्यु और पराजय के लिए युद्ध करना है। मैं घटोत्कच को कर्ण के सम्मुख खड़ा करने को रणनीति के अनुसार सही मानता हूं, पर मैं भी तो किसी का पुत्र और किसी का पिता हूँ। रणनीतिक कृष्ण घटोत्कच की बलि को उचित मानता है, पर मानव कृष्ण इस विचार के बोझ तले दबा जा रहा है। मैं पीड़ित हूँ माता, मैं अपने उपचार हेतु तुम्हारे सम्मुख नतमस्तक हूँ।"
कुछ क्षणों की शांति के बाद हिडिम्बा का गर्वीला स्वर सुनाई दिया, "स्वयं को अपराधबोध से मुक्त कीजिए माधव। सुना है कि धर्मयुद्ध में वीरगति को प्राप्त योद्धा को वही फल मिलता है जो वाजपेय जैसे अनेकों यज्ञों के बाद किसी को मिलता है। मेरा पुत्र यदि युधिष्ठिर और अर्जुन जैसे महात्माओं की रक्षा के लिए आत्मोत्सर्ग करता है तो वह सुभद्रा के पुत्र महावीर अभिमन्यु के समकक्ष खड़ा होगा। उसकी माता अर्थात मैं गर्व से सुभद्रा और द्रौपदी के साथ खड़ी होउंगी। कुरुकुल कुलवधू तो वृकोदर ने बनाया ही था, अब मैं कुरुकुल कुलमाता के रूप में जानी जाऊंगी। जाइए माधव, धर्मविजय के लिए आपको जो भी करना हो, कीजिये।"
कृष्ण उठ खड़े हुए और हाथ जोड़कर बोले, "माता, आपका पुत्र मेरे भांजे अभिमन्यु से अधिक वीर है। आप मेरी बहन सुभद्रा और महारानी द्रौपदी से अधिक पूजनीय हैं। आप माता-पुत्र ने मुझे और धर्म को वरदान दिया है, अतः आने वाली पीढ़ियां अभिमन्यु और सुभद्रा-द्रौपदी के नहीं, अपितु आप माता-पुत्र के मंदिरों की स्थापना करेंगी और अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति हेतु आपसे वरदान मांगेंगी। यह कृष्ण आपको और आपके पुत्र को नमन करता है।"
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