राम दूरि माया बढ़ति, घटति जानि मन माँह, भूरि होति रवि दूरि लखि, सिर पर पगतर छाँह, बिनु सतसंग न हरिकथा, तेहि बिनु मोह न भाग, राम नाम अवलंब बिनु परमारथ
Sri Ram |
जैसे सूर्य को दूर देखकर छाया लंबी हो जाती है और सूर्य जब सिर पर आ जाता है तब वह ठीक पैरों के नीचे आ जाती है, उसी प्रकार श्री राम से दूर रहने पर माया बढ़ती है और जब वह श्री राम को मन में विराजित जानती है, तब घट जाती है।
राम दूरि माया बढ़ति, घटति जानि मन माँह।
भूरि होति रवि दूरि लखि, सिर पर पगतर छाँह॥
भक्तों के भजन के प्रकार भिन्न-भिन्न होते हैं। भक्तों के भाव के अनुरूप ही भगवान् अपने अलग- अलग रूप धारण करते हैं। भक्त जिस प्रकार जिस-जिस भाव से उनकी उपासना करते हैं, भगवान् भी उनके उस उस प्रकार और उस- उस भावना का अनुसरण करते हैं।
बिनु सतसंग न हरिकथा, तेहि बिनु मोह न भाग।
मोह गएँ बिनु रामपद, होइ न दृढ़ अनुराग॥
सत्संग के बिना भगवान की लीला-कथाएँ सुनने को नहीं मिलती, भगवान की रहस्यमयी कथाओं के सुने बिना मोह नहीं भागता और मोह का नाश हुए बिना भगवान् श्री राम के चरणों मे अचल प्रेम नहीं होता।
जो भगवान् का चिन्तन करता है भगवान् उसका चिन्तन करते हैं, जो उनके लिये व्याकुल होता है उसके लिये वे भी व्याकुल हो जाते हैं, जो उनका वियोग सहन नहीं कर सकता भगवान् भी उसका वियोग नहीं सहन कर सकते। जो उन्हें अपना सर्वस्व अर्पण कर देता है, वे भी उसे अपना सर्वस्व अर्पण कर देते हैं। जो ग्वाल-बालों की भाँति उन्हें अपना सखा मानकर उनका भजन करते हैं, उनके साथ भगवान् भी मित्र के जैसा व्यवहार करते हैं। जो नन्द-यशोदा की भाँति पुत्र मानकर उनका भजन करते हैं, वे भी उसके साथ पुत्रों के जैसा बर्ताव करके उनका कल्याण करते हैं। इसी तरह रुक्मिणी की तरह पति समझकर भजने वालों के साथ वे पति जैसा, हनुमान की भाँति स्वामी समझकर भजने वालों के साथ स्वामी जैसा और गोपियों की भाँति माधुर्यभाव से भजने वालों के साथ प्रियतम-जैसा बर्ताव करके भगवान् उनका कल्याण करते हैं और उनको दिव्य लीला-रस का अनुभव कराते हैं।
राम नाम अवलंब बिनु परमारथ की आस ।
बरसद बारिद बूँद गहि चाहत चढ़न अकास ॥
तुलसी दास जी कहते हैं कि राम नाम का सहारा लिए बिना ही मोक्ष की कामना करना उसी प्रकार है जैसे बादल से बरसती हुई बूंदों को पकड़ कर आकाश पर चढ़ना, जो की असम्भव है।
सच्चिदानंद रूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे!
तापत्रय विनाशाय श्री कृष्णाय वयं नुम: !!
हे सत् चित्त आनंद! हे संसार की उत्पत्ति के कारण! हे दैहिक, दैविक और भौतिक तीनो तापों का विनाश करने वाले महाप्रभु! हे श्रीकृष्ण! आपको कोटि कोटि नमन. हे लीलाधर! हे मुरलीधर! संसार आपकी लीलामात्र का प्रतिबिंब है. हे योगेश्वर! आप अनन्त ऐश्वर्य, अनन्त बल, अनन्त यश, अनन्त श्री के स्वामी हैं लेकिन इसके साथ साथ आप अनंत ज्ञान और अनंत वैराग्य के भी दाता हैं. हे योगिराज कृष्ण! आपके महान गीता ज्ञान का आलोक आज तक हमारा पथप्रदर्शक है लेकिन हम मर्त्य प्राणी आपके इस अपार सामर्थ्य को भूलकर उस माया में डूबे हुए हैं जो हमें आपके वास्तविक स्वरुप का भान नहीं होने देती है।
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