दध्यञ्च ऋषि और मधुविद्या |
इन्द्र के श्वेत अश्वों द्वारा चालित रथ ने महर्षि दध्यञ्च के आश्रम में प्रवेश किया। रथ रुका उस पर से उतरे पीतवसन, मदारमाला, स्वर्णाभरण विभूषित मुकुटधारी, शचीपति इन्द्र ऋषि ने सुरेन्द्र को देखा। एष्णाओं को तिलांजलि देने वाली अग्नि से तप्त स्वर्ण तुल्य ऋषि काया कटि प्रदेश पर नत हुई।
"पुरन्दर!" ऋषि ने इन्द्र को प्रणाम किया। सादर बोले, "आश्रम आपका स्वागत करता है। कृपया पाद्य, अर्ध-आसन तथा मधुपर्क ग्रहण कीजिए।"
इन्द्र ने पुष्पित आश्रम को एक बार आँखें घुमाकर देखा। यज्ञ बेदी से उठती हुई हवि की सुरभित धूम्र राजि वायु मण्डल को शुद्ध कर रही थी। ऋषि को हृदयस्थ पवित्रता विकसित होकर आश्रम के कण-कण में मुखरित थी ।
महात्मन " इन्द्र ने कहा, आपको किसी वस्तु की आकांक्षा नहीं है। मैं जानता हूँ तथापि चाहता हूँ कि आप मुझसे अभीष्ट फल प्राप्त करें। मैं आपकी इच्छा पूर्ण करूँगा । कहिए क्या वर मांगते हैं।"
"मधवा। मुझे मधु विद्या दीजिए।" "मधु।"
इन्द्र आश्चर्यचकित हुए ।
"हॉ सुरेश्वर!"
दध्यञ्च ने निश्चयात्मक स्वर मे उत्तर दिया।
"तपस्वी, यह दुर्लभ है।" इन्द्र की मुद्रा गम्भीर हो गयी। "आपकी कृपा से सब
कुछ सुलभ है।"
इन्द्र असमंजस में पड़ गये मधु देना नहीं चाहते थे किंचित् ठहरकर
बोले, मैं उसका रहस्य बता सकता हूँ। किन्तु एक शर्त होगी।" "मुझे स्वीकार है।"
इन्द्र गगन मण्डल की ओर देखने लगे। क्या मैं शर्त जानने का अधिकारी हो सकता हूँ। ऋषि ने इन्द्र के मुख-मण्डल पर दृष्टि स्थिर करते हुए पूँछा ।" यदि आप इस रहस्य को उद्घाटित करेगे तो आपका मस्तक काट दिया जायेगा ।" इन्द्र ने हाथ में बज्र घुमाते हुए कहा - "भगवन् ऋषि ने दृढतापूर्वक कहा, "मुझे आपकी शर्त स्वीकार है। मैं उसका उल्लघन नहीं करूँगा।"
इन्द्र ने दध्यञ्च ऋषि को मधु विद्या का उपदेश दिया। ऋषि उसे सहर्ष ग्रहण कर कृतार्थ हुए।
अश्विनि कुमारों को बात मालूम हो गयी। दध्यञ्च ऋषि को इन्द्र नें मधु का रहस्य बता दिया । इन्द्र तथा अश्विनी कुमारो में वैमनस्य था ।
महर्षि तपस्यारत् थे । अश्विनी कुमारो ने शनैः-शनैः प्रवेश किया। दोनों कुमारो को ऋषि ने देखा अविलम्ब पहचान गये । उनका पाद्य, अर्ध्य और मधुपर्क से सुस्वागत किया। कुशासन बैठने के लिए दिया । आश्वस्त होने पर ऋषि ने सादर प्रश्न किया: "अश्विनी द्वौ आपके शुभागमन का प्रयोजन क्या जानने का अधिकारी हो सकता हूँ ?"
"महात्मन्! एक विशेष प्रयोजन से आपके आश्रम में आये हैं। हमारे प्रयोजन की
सिद्धि आपके द्वारा होगी। यही हमारी एकान्त कामना है।"
आपके पास एक गुण है, उसके हम आकाक्षी हैं।"
महात्मन् हम आपसे गुण दान चाहते हैं।"
"कौन दाता सामर्थ्य रहते दान नहीं करना चाहेगा?" ऋषि ने किंचित्
मुस्कराकर कहा ।
"आपके पास है।"
"तो — दूँगा।"
"महात्मन् । मधु-रहस्य उद्घाटन ।"
ऋषि सहसा हतप्रभ हो गये। कल्पना नहीं की थी कि अश्विनी कुमार इस रहस्य को जानते थे ।
"महात्मन्! हम जानते हैं । इन्द्र ने आपसे वचन लिया है। उसका उल्लंघन करने पर आपका मस्तक छिन्न हो जायगा ।"
'हां, किन्तु -?"
"महात्मन्! आपकी अकाल मृत्यु नहीं होगी। हम कुशल वैद्य हैं। कुशल शल्य चिकित्सक हैं।"
" ऋषिवर! इन्द्र आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकेंगे। आपकी कुछ हानि नहीं होगी।"
"ऋषिवर! हमनें उपाय निकाल लिया है।"
ऋषि की चुभती निगाहें अश्विनी कमारों की ओर उठी।
"साधारण बात है। आपका मस्तक काट कर हम अलग रख देंगे। उसके स्थान पर अश्व के मस्तक लगा देगे। अश्व के मस्तक द्वारा मधु रहस्य का उदघाटन आप कीजियेगा । इन्द्र वज्र से आपका मस्तक काट देगे। वह आपका अश्व मस्तक होगा। हम उसके स्थान पर आपका पुराना मानव मस्तक पूर्ववत् पुनः लगा देंगे।"
"महात्मन्! इसमें चिन्ता की कोई बात नहीं है आपके वचन का उल्लंघन नहीं होगा। आपने जिस मस्तक से वचन दिया है। वह मस्तक वचन उल्लंघन का दोषी नहीं होगा। दोषी होगा अश्व मस्तक जिसे हम आपकी ग्रीवा पर मानव मस्तक के स्थान पर जोड़ देगे। अपराध अश्व का मस्तक करेगा। दण्ड उसे भोगना होगा। आपका मानव मस्तक अछूता रहेगा।"
दध्यञ्च ऋषि ने मधु रहस्य अश्विनी कुमारों को उद्घाटित किया ।
मधु का रहस्य उद्घाटित होते ही, इन्द्र का क्रोध उग्र हो उठा। उन्हें ऋषि के वचन उल्लंघन पर क्रोध आया। वे वज्र लेकर दौडे। क्रूर वज को आते देखकर महर्षि ने चित्कार किया। वज्र प्रहार से ऋषि का अश्व मुख छिन्न हो गया। बहुत दूर पर्वत स्थित शर्पणावृत सरोवर में जाकर गिर गया। वह शर्पणावृत तीर्थ बन गया और प्राणहीन धड भूमि पर गिर पड़ा।
अश्विनी कुमारों ने अविलम्ब ऋषि के मानव धड पर ऋषि का मानव मस्तक जोड दिया। शल्य चिकित्सक अश्विनी कुमारों के अद्भुत शल्य- कौशल को देखकर जगत आश्चर्यचकित हो गया। अश्विनी कुमार मधु की शक्ति के कारण यज्ञ में बैठे। उन्हें यज्ञ भाग मिलने लगा। उनकी प्रतिष्ठा देव समाज में बढ़ गयी। इन्द्र नें प्रतिहिंसा का आश्रय नहीं लिया ।
और दूसरी ओर दध्यञ्च ऋषि कुशासन पर आश्रम में बैठे थे उनकी दिव्यदृष्टि ज्योतिर्मय थी। उन्हें दिब्य मन्त्रो का दर्शन होने लगा। उनकी वाक्शक्ति जाग्रत हो गयी। शुद्ध कण्ठ से सस्वर वेद ऋचाएँ निकलने लगी। वायु मण्डल, पवित्र वांणी से वेदमय हो गया और जगत नें दर्शन किया एक सूक्तद्रष्टा याज्ञिक, अग्नि प्रज्ज्वलन कर्त्ता और उनका जहां मस्तक गिरा था, वह हो गया शर्णावत् तीर्थ, अपनी इस चिरकथा की स्मृति सर्वदा जगत् को दिलाता हुआ।
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