च्यवान- सुकन्या की कथा,
च्यवान और सुकन्या की कथा |
विचरणशील शर्यात मानव का अस्थायी शिविर धूमधाम से लगा । चहल-पहल थी। शर्यात अपने कुटुम्ब के साथ थे। उनकी पुत्री सुकन्या साथ थी । कुमारगण साथ थे।
शिविर स्थापित हो चुका था। कुमार खेलने लगे। खेलते-खेलते वे एक स्थान पर पहुॅचे। कुमारों नें देखा मृत्तिका से भरा मानव जीर्ण शरीर बाल जिज्ञासा जागृत हुई। वल्मीक पर कीडावश लोष्ट प्रहार करने लगे।
विचित्र घटना घटी। राजा के गाँव में फूट पड़ गयी। अनायास लोग एक-दूसरे से झगड़ने लगे। पिता-पुत्र लडने लगे। भाई-भाई भिड़ गये। माता कन्या मे झडप होने लगी। भाई-बहन परस्पर प्रहार करने लगे।
शर्यात विकल हो गये, देखकर यह अनहोनी। उन्होंने विचार किया। उनसे कुछ पाप हो गया था। उन्होंने कोई द्वेषपूर्ण कार्य कर दिया था।
किन्तु शर्यात की समझ में कुछ नहीं आया। उन्हें अपना कोई अनुचित कर्म, अव्यवहारिक आचरण दिखाई नहीं दिया। किन्तु अपराधों के कारण उन्हें महान् कष्टों का सामना करना पड़ रहा था। उनकी समझ में नहीं आया । उनके साथ चिन्तनीय मुद्रा हो गयी। गोपालकादि को उनमें एक अकस्मात बोला -
"हॉ, स्मरण आया ।" सबकी दृष्टि उसकी ओर उठ गयी। उसने स्मरण करते हुए कहा -
"यहाँ एक जीर्ण-शीर्ण पुरूषाकार वल्मीकि है। उसे कौतूहलवश कुमारों ने लोष्टों से आहत किया है। सम्भव है उस तपस्वी के क्रोध का यह सब परिणाम हो रहा हो।"
"निश्चय - ।"
शर्यात को जैसे एक सूत्र मिल गया। उन्होंने आदेश दिया, "रथ लाओ ।" रथ आया। राजा ने अपनी कन्या सुकन्या को साथ लिया। रथारूढ हुए। ऋषि के पास पहुॅचे।
"नमस्ते महात्मन् " राजा ने करबद्ध वेदवेदागो से निष्णात तपस्यारत ऋषि च्यवान को नमन करते हुए कहा।
"भगवन! इस अकिंचन का नाम शर्यात है। मेरा समीप ही शिविर लगा है।" ऋषि की आँखें खुली। उनका शरीर कुमारों के लोष्ट प्रहार से आहत हो गया था। ऋषि ने शर्यात का विनय देखा। उनका कोध शान्त होने लगा शर्यात ने अपनी कन्या सुकन्या को उनके सम्मुख करते हुए कहा: "ऋषिवर यह मेरी सुकन्या नाम्नी कन्या है।"
ऋषि की दृष्टि सुकन्या पर पडी ।
मुनिवर। आपको कुमारों ने कष्ट पहुँचाया है। हम उसके लिए क्षमा प्रार्थी हैं।"
राजा ने करबद्ध निवेदन किया।
"महात्मन् इस कन्या को आप स्वीकार कीजिये। इसी में मैं अपने पाप का प्रायश्चित देखता हूँ। यह आपकी सेवा करेगी । "
शील भार से सुकन्या का मस्तक नत हो गया। ऋषि की बुझी आँखों ने ज्योतिर्मय युवती के निर्मल नयनो को देखा। ऋषि विचार करने लगे। शर्यात ने कहा, "भगवन् । गोत्रो के परस्पर द्वन्द्व तथा व्याप्त अराजकता को कृपया बन्द कीजिए।"
ऋषि का अभय मुद्रा मे हाथ उठ गया। शर्यात प्रसन्न हो गये। सुकन्या से बोले:
"पुत्री' च्यवान तुम्हारे पतिदेव हैं। उनकी सेवा में तुम्हारे जन्म की सार्थकता है। शिविर में शान्ति हो जायेगी। रक्तपात से लोग बच जायेंगे ।" सुकन्या ने पतिदेव के चरणों का पत्नीवत् स्पर्श किया।
"ओ सुन्दरी!" अश्विनी कुमारों ने सुकन्या को आश्रम में एकाकी विचरण करते हुए देखा। सुकन्या ने अपने सम्मुख दो अत्यन्त सर्वांगीण सुन्दर युवक कुमारों को देखा। सुकन्या ने उनकी तरफ ध्यान नहीं दिया। उसके नेत्रों में उपेक्षा झलक रही थी । "तन्वी! " अश्विनी ने कहा, "तुम्हारा यह अनुपम रूप, यह युवावस्था, यह रति को भी मात देने वाली काया । नेत्रों में छलकती काम मादकता-
दैव कितना निर्दयी है। उसने तुम्हारा विवाह एक महा वृद्ध, जीर्ण-शीर्ण, मृतवत
काया से कर दिया है।"
"वे मेरे देवता हैं ।" "कुमारों जब तक वे जीवित हैं, मेरे पति हैं। मैं उनका
त्याग कैसे कर सकती हूं। आप लोग जाइये।"
सुकन्या कुमारों ने तुमसे क्या बातें कही हैं।" सुकन्या को समीप आते देखकर ऋषि च्यवान ने पूछा ।
"दूषित विचार हैं। उन्हें सुनकर क्या कीजिएगा?" सुकन्या नें विषाद - पूर्वक कहा।
"वे पुनः आयेंगे?" ऋषि ने कहा ।
"यदि वे पुनः आयें तो उनसे कहो। "वे समृद्ध नहीं हैं। पूर्ण नहीं हैं।
"और यदि वे पूछें, वे किस प्रकार असमृद्ध हैं, तो क्या उत्तर दोगी ?"
"उनसे कहना - प्रथम आप लोग मेरे पति को युवा बना दीजिए। तत्पश्चात् आपको कारण बताउँगीं ।"
सुकन्या ने शंकित दृष्टि से ऋषि की ओर देखा ऋषि ने मुस्कराते हुए कहा: सुकन्ये मैं जैसा कहता हॅू करो। इसमें दोष नहीं है। वे तुम्हारा कुछ अनुपकार नहीं कर सकेगें।" "सुन्दरी " अश्विनी कुमारों ने आश्रम में पुष्प चयन करती सुकन्या को देखकर सम्बोधित किया।
सुकन्या ने उपेक्षापूर्वक उनकी ओर देखा। पुष्प चयन करती रही। सुकन्या ने कहा - "आपसे क्या बातें करूँ ? आप समृद्ध नहीं हैं। आप अपूर्ण हैं।" किस प्रकार -?
"यह बात कहने की नहीं है।"
"हम अश्विनी कुमार हैं। देवता हैं।"
"तथापि आप असमृद्ध हैं। अपूर्ण हैं। आपके साथ कौन रहेगा?"
"सुहासिनी ! हम पर यह लांछन लगाने का आधार क्या है?"
"बताउँगी — ।"
कब?"
प्रथम मेरे पति को युवा बनाइये।"
"यह कौन असाधरण बात है?"
"तो कीजिए।
"सुनो। तुम अपने वृद्ध पति को समीपस्थ हृद में ले जाओ। उसमे डुबकी लगवाओ। जितने वर्ष के युवा वे होना चाहेंगे, उनका उतना ही रूप तथा वय हो जायगा ।"
सुकन्या प्रसन्न हो गई।
"जराक्रांत ऋषि आंगिरस च्यवान प्रसन्न हो गये। पत्नी का सहारा लेकर वे हृद में स्नान करने चले।
"सुकन्ये तुम्हारे पति युवा हो गये। उनका कायाकल्प हो गया। उन्हें सौन्दर्य मिल गया । यौवन मिल गया युवती हमारी कामना पूर्ण करो।"
"अश्विनी कुमारो। आपकी कृपा से पति युवा हो गये । हम आपकी पूजा करतें हैं । किन्तु आपका प्रस्ताव मैं कैसे स्वीकार कर सकती हूँ?" "आप लोग अपूर्ण हैं। आपसे कौन सम्बन्ध स्थापित करेगा?" सुकन्या ने प्रगल्भ स्वर में कहा।
"तुमने कहा था। कारण बताओगी।"
"क्यों नहीं बताउँगी?"
सुकन्या ने उनकी ओर मुस्कराते हुए देखकर उत्तर दिया।
"कुरूक्षेत्र में यज्ञ हो रहा है। देवता कर रहे हैं। उन्होने यज्ञ से आपको
बहिष्कृत कर दिया है। अतएव आप पूर्ण देवता नहीं हैं। आप स्वयं असमृद्ध हैं।
अपूर्ण हैं।
अश्विनी कुमार वहाँ पहुँचे। उन्होने देखा। उनके लिए वहाँ स्थान निश्चित नहीं था। वे बहिष्कृत थे।
अश्विनी कुमारो ने पूछा "यज्ञ मे हमारा स्थान क्यो नहीं है।"
"आप मनुष्यों में विचरण करते हैं। उनसे मिलते है । "
"हम आमन्त्रित क्यों नहीं किये गये?"
"आप लोग मानवों में मिलकर घूमते हैं। उनके साथ रहते हैं। उनमे प्रायश्चित करते हैं।"
" किन्तु आपका यज्ञ पूर्ण नहीं होगा ।"
"क्यो?"
"विशीर्ण बलि से आप यज्ञ करते हैं। यह कैसे पूर्ण हो सकता है ?"
"तो-2"
"हम विशीर्ण को ठीक कर देगे।"
"यह किस प्रकार होगा ?"
"हमे आमन्त्रित कीजिये ।"
देवताओ ने विचार-विमर्श किया। वे बोले, "विशीर्णता दूर हो जायेगी ?"
"अवश्य ?
अश्विनी कुमार अध्वर्यु बन गये। बलि की विशीर्णता दूर हुई। वेदोच्चार होने लगा। यज्ञ पूर्ण हुआ और उनको भी पूर्णता प्राप्त हुई। उन्हें यज्ञ में भाग मिला। और आश्रम में तरूण मन्त्र - द्रष्टा च्यवान, युवती सुकन्या की प्रसन्नता में प्रसन्न हो गये।
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