समर बिजय रघुबीर के चरित जे सुनहिं सुजान। बिजय बिबेक बिभूति नित तिन्हहि देहिं भगवान ॥

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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राम रावण युद्ध
राम रावण युद्ध

   लंकापति रावण जानकी जी का हरण करके ले गया। रावण के स्वयं के रिश्तेदारों ने एवं राम जी की तरफ से भी सीता को लौटाने के लिए रावण को समझाया गया लेकिन उसने किसी की बात नहीं सुनी अंततः श्री राम और रावण के बीच युद्ध हुआ रावण की पराजय हुई। भगवान श्री राम की विजय हुई।

समर बिजय रघुबीर के चरित जे सुनहिं सुजान। 

बिजय बिबेक बिभूति नित तिन्हहि देहिं भगवान ॥

   जो सुजान लोग श्रीरघुवीर की समर विजय सम्बन्धी लीला को सुनते हैं, उनको भगवान नित्य विजय विवेक और विभूति (ऐश्वर्य) देते हैं।

समर

  'समर' का शाब्दिक अर्थ होता है 'युद्ध' परंतु मूल भाव है स+मर= जहां मरण भी श्रेयस्कर है सुंदर है ।

      स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः॥(गीता ३ / ३५) 

अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है॥ जहां मरने पर भी स्वर्ग मिलता है —

 हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।(गीता२/३७) 

 तो तू युद्धमें मारा जाकर स्वर्गको प्राप्त होगा अथवा संग्राममें जीतकर पृथ्वीका राज्य भोगेगा। 

 बिजय

  युद्ध में दोनों पक्ष एक दूसरे के शत्रु होते हैं और अपनी अपनी विजय के लिए उद्यत है लेकिन विजय तो सर्वदा धर्म की होती है —

     यतो धर्मस्ततो जय:। 

विजय सत्य की ही होती है —

         सत्यमेव जयते। 

  यहां श्री राम धर्म के लिए युद्ध कर रहे हैं और रावण अधर्म के साथ खड़ा है इसीलिए पराजय का मुंह देखना पड़ा।

रघुवीर

   यहां तुलसीदास जी ने श्री राम को रघुवीर लिखा है। रघुवंशी तो वे हैं ही। वीर से तात्पर्य है जो कभी पराजय स्वीकार नहीं करता है वीर अंतिम श्वास तक जय के लिए प्रयास करता है। समर में जयमाल वीर के गले की ही शोभा बढ़ाती है।

चरित

  इस युद्ध के आरंभ से अंत तक प्रभु ने जो जो आचरण किया जो जो घटनाक्रम हुआ यथा सेतु-निर्माण ,रामेश्वर पूजन ,अंगद को रावण के पास भेजना, युद्ध में रावण के सभी कुटुंबियों सहित राक्षसों का विनाश वह सब चरित्र की श्रेणी में है।

सुनहिं सुजान

  रघुवीर के समर विजय चरित्र को सुनना है और सुनने वाला सुजान होना चाहिए। 'सुनने' की बड़ी महिमा महता रही है। नवधा भक्ति में भी सर्वप्रथम 'श्रवण' को ही स्थान दिया गया है

श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्। 

अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥

  श्रवण- ईश्वर की लीला, कथा, महत्व, शक्ति, स्रोत इत्यादि को परम श्रद्धा सहित अतृप्त मन से निरंतर सुनना।

  सो जल सुकृत सालि हित होई।

  राम भगत जन जीवन सोई॥ 

  मेघा महि गत सो जल पावन ।

  सकिलि श्रवन मग चलेउ सुहावन॥ 

  भरेउ सुमानस सुथल थिराना । 

  सुखद सीत रुचि चारु चिराना॥

  'सुनत सकल मुद मंगल देनी'। 

  पांच ज्ञानेंद्रियां है सबसे सरल काम सुनने का ही है। साथ ही साथ सुनना एक कल भी है।

  कई बार सोचते हैं खाने का काम कितना सरल है किंतु अकेला मुंह या अकेली जिह्वा खा नहीं सकती । उसमें और भी दोनों- तीनों इंद्रियों का सहयोग चाहिए ,त्वचा से स्पर्श करेंगे गर्म है ठंडी है, नाक से सूंघेंगे ताजा है बासी है ,आंखों से देखेंगे कोई गंदगी कचरा तो नहीं है उसके बाद में जिह्वा उसका स्वाद लेगी मीठा है खट्टा है फिर गले में जाएगा।

   राम जी के चरित्र को सुनने वाला सुजान होना चाहिए, विवेकवान होना चाहिए क्योंकि-

      'उमा राम गुन गूढ़' का सिद्धांत लागू होता है।

  भगवान श्री राम धर्म के साक्षात विग्रह है किंतु इस युद्ध के दौरान कुछ घटनाक्रम ऐसे हैं जो सामान्य बुद्धि वाला आदमी धर्म संगत नहीं मानेगा। विवेक से काम लेना पड़ेगा।

   भगवान श्री राम यज्ञपुरुष है उनके स्वयं के अवतरण में पुत्र कामेष्टि यज्ञ ही माध्यम बना । यज्ञ भगवान द्वारा प्रदत्त पायस के खाने से ही गर्भ में पधारे। परंतु इस युद्ध के दौरान मेघनाद द्वारा यज्ञ किया गया रावण द्वारा यज्ञ किया गया, विध्वंस कर दिया गया। जबकि यज्ञ विध्वंस का कार्य राक्षसों का रहा है।

  रावण जब सत्तासीन हुआ था तो उसका पहला आदेश ही यही था।

द्विजभोजन मख होम सराधा । 

सब कै जाइ करहु तुम्ह बाधा।।

  यहां थोड़ा विवेक से सोचना पड़ेगा की यज्ञ का वास्तव में क्या प्रयोजन है और राक्षसों द्वारा किस प्रयोजन से यज्ञ किए गए।

गीता कहती है —

यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ॥३/१४

   किंतु राक्षसों द्वारा किए गए यज्ञ जनकल्याण के लिए नहीं थे उनका उद्देश्य विनाशकारी था ऐसे यज्ञ को विध्वंस करना ही धर्म संगत है युक्तिसंगत है।

गोस्वामी जी आगे लिखते हैं-

बिजय बिबेक बिभूति नित तिन्हहि देहिं भगवान ॥ 

 जो रघुवीर के समर विजय चरित्र को सुनेंगे उनको विजय, विवेक और विभूति भगवान नित्य प्रदान करेंगे

     यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।

     स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ।

(गीता 3/21) 

  स्पष्ट है मनुष्य जीवन भी किसी युद्ध से कम नहीं है सदैव षट् रिपुओं ( काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सर, मद) द्वारा घिरा रहता है। 

  यह संसार सागर रणभूमि ही है इस को पार करने के लिए इन छः शत्रुओं को जीतने के लिए भगवान का चरित्र ही एकमात्र अवलंबन है शस्त्र है। सब में तो बजरंगबली की तरह क्षमता नहीं होती कि एक छलांग में सागर लांघ जावे कोई आश्रय तो लेना पड़ेगा —

अति अपार जे सरित बर जौं नृप सेतु कराहिं।

 चढ़ि पिपीलिकउ परम लघु बिनु श्रम पारहि जाहिं।।

  इन शत्रुओं के साथ तो नित्य का ही युद्ध चल रहा है अतः भगवान इन से जीतने की शक्ति नित्य देते हैं। 

   सत्य और असत्य का ज्ञान 'विवेक' के बिना नहीं होता और विवेक राम कृपा से ही सुलभ है।

अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति। (गीता 4/40) 

   विवेकहीन और श्रद्धारहित संशययुक्त मनुष्य परमार्थ से अवश्य भ्रष्ट हो जाता है। 

सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि ॥(गीता 4/36) 

  तू ज्ञानरूप नौकाद्वारा नि:संदेह सम्पूर्ण पाप-समुद्रसे भलीभाँति तर जायगा ॥ 

   विभीषण पूछता है भगवान रावण तो रथ पर सवार है आप बिना रथ के हो आपके तो पद त्राण तन त्राण भी नहीं है तो भगवान उस रथ का वर्णन करते हैं जिससे संसार रूपी शत्रु से विजय प्राप्त हो सके।

   शौर्य धैर्य रथ के पहिए हैं, सत्य, शील, ध्वजा पताका है, बल, विवेक, दम, परोपकार यह चार घोड़े हैं, क्षमा, दया और क्षमता की डोरी से जुड़े हुए हैं, ईश्वर का भजन चतुर सारथी है, वैराग्य ढाल है, संतोष तलवार है, बुद्धि प्रचंड शक्ति है, निर्मल और अचल मन तरकस है, यम नियम आदि बाण है, ब्राह्मणों और गुरु का पूजन कवच है, ऐसा जिसके पास हो उसको कोई भी शत्रु नहीं जीत सकता।

    महा अजय संसार रिपु जीति सकइ सो बीर । 

     जाकें अस रथ होइ दृढ़ सुनहु सखा मतिधीर।।

   भगवान का बिना कवच और जूते के युद्ध में उतरने का यह संकेत है कि आदमी को अपनी सुख-सुविधाओं का दास नहीं बनकर अपने लक्ष्य की ओर ध्यान रखना है आसक्ति को त्यागना है।

अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्। 

दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्॥

तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहोनातिमानिता। 

भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत॥

   इन्द्रियों का विषयों के साथ संयोग होनेपर भी उनमें आसक्ति का न होना, कोमलता, लोक और शास्त्र से विरुद्ध आचरण में लज्जा और व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव। तेज, क्षमा, धैर्य, बाहर की शुद्धि एवं किसी में भी शत्रुभाव का न होना और अपने में पूज्यता के अभिमान का अभाव-ये सब तो हे अर्जुन ! दैवी सम्पदा को लेकर उत्पन्न हुए पुरुष के लक्षण हैं॥ 

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